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बीमारियों के प्रति गैर-जिम्मेवार रुख

एक ताजा शोध में सामने आया है कि 2006 से 2012 के बीच भारत में डेंगू के 60 लाख मामले सामने आये, लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय की मानें तो इस अवधि में डेंगू के करीब 21 हजार मामले ही प्रकाश में आये. यह खबर इस तथ्य को रेखांकित करती है कि आंकड़ों को दर्ज करने की […]

एक ताजा शोध में सामने आया है कि 2006 से 2012 के बीच भारत में डेंगू के 60 लाख मामले सामने आये, लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय की मानें तो इस अवधि में डेंगू के करीब 21 हजार मामले ही प्रकाश में आये. यह खबर इस तथ्य को रेखांकित करती है कि आंकड़ों को दर्ज करने की सरकारी मशीनरी अकुशल और अपारदर्शी होने के कारण अविश्वसनीय है.

स्वास्थ्य विभाग बरसात के तुरंत बाद शहरों में जगह-जगह बोर्ड लगा कर लोगों को चिकुनगुनिया, डेंगू और मलेरिया आदि से बचने के उपाय बताता है. उपायों की इस सूची में आखिर में दर्ज होता है कि कि अगर इन बीमारियों के लक्षण गंभीर रूप ले लें, तो बीमार इस या उस सरकारी अस्पताल में दिखाएं, जहां रोग के नि:शुल्क उपचार की व्यवस्था है.

शेष उपायों को समीक्षा-भाव से पढ़ें, तो यही प्रकट होगा कि अगर किसी को डेंगू, मलेरिया या चिकुनगुनिया हो गया हो, तो दोष व्यवस्था का नहीं, बल्कि स्वयं उस बीमार का है जो लापरवाहियों के कारण पानी की निकासी की सही व्यवस्था नहीं कर सका और उसे डेंगू या मलेरिया सरीखी मच्छरजनित बीमारी ने अपनी चपेट में ले लिया. जल-निकासी की सही व्यवस्था करना नगरपालिका और सरकारी विभागों की जिम्मेवारी होती है, यह सोच सरकारी स्वास्थ्य नीति से गायब मिलती है.

नागरिक को स्वास्थ्यकर वातावरण प्रदान करने की अपनी जिम्मेवारी से पीछे भागने के लिए सरकार बहानों की ओट लेती है. जापानी इंसेफ्लाइटिस या फिर उससे मिलते-जुलते लक्षणों वाली कुछ बीमारियों ने हाल के वर्षों में कई राज्यों में मासूमों पर कहर बरसाया है, जबकि ऐसी बीमारियों के बारे में सरकारी स्वास्थ्य विभाग का रुख उन्हें अज्ञात कारणों से पैदा कहने का होता है.

सरकार कहर बरपाती बीमारियों के कारण का पता लगाने और उनकी दवा विकसित करने के लिए शोध पर अपना खर्च क्यों नहीं बढ़ाती है, यह जरूरी सवाल सामने ही नहीं आ पाता. सरकार साबित करना चाहती है कि वह नागरिकों को स्वास्थ्य-सुविधा प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभा रही है. इसके लिए वह झूठे आंकड़ों का भी सहारा लेती है. सरकारी रवैये को देखते हुए कहा जा सकता है कि शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में हमारी नीतिगत प्राथमिकताएं अभी ठीक से तय नहीं हो पायी हैं.

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