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दो पाटों के बीच अशांत तुर्की

।। अवधेश आकोदिया ।।(वरिष्ठ पत्रकार)राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं सभ्य समाज के अमन-चैन को किस तरह छिन्न-भिन्न कर सकती हैं, तुर्की में जारी घमासान इसकी ताजा मिसाल है. एक ओर प्रधानमंत्री रिसेप तैयिप एरडोगन अपने रूढ़ीवादी एजेंडे को जबरदस्ती देश पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं, तो दूसरी ओर यहां का संभ्रांत तबका विरोध में गुंडों जैसा […]

।। अवधेश आकोदिया ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं सभ्य समाज के अमन-चैन को किस तरह छिन्न-भिन्न कर सकती हैं, तुर्की में जारी घमासान इसकी ताजा मिसाल है. एक ओर प्रधानमंत्री रिसेप तैयिप एरडोगन अपने रूढ़ीवादी एजेंडे को जबरदस्ती देश पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं, तो दूसरी ओर यहां का संभ्रांत तबका विरोध में गुंडों जैसा व्यवहार कर रहा है.

दो सप्ताह की जद्दोजहद के बाद तुर्की सरकार राजधानी इस्तांबुल के तकसीम चौक से प्रदर्शनकारियों को हटाने का दावा भले कर रही हो, पर विरोध थमा नहीं है. देश के युवा वर्ग को यह रास नहीं आ रहा कि सरकार उनकी मांगों को गंभीरता से सुनने की बजाय धौंस जमा रही है. इससे गुस्सा और बढ़ रहा है. हालांकि प्रधानमंत्री इस सच्चाई को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं. वे एक ओर तो आंदोलनकारियों को वार्ता का न्योता देते हैं, दूसरी ओर उन्हें शैतान कह रहे हैं.

तुर्की में जारी इस बवाल की शुरुआत इस्तांबुल के बीचों-बीच स्थित गाजी पार्क को गिरा कर उसकी जगह ऑटोमन युग की बैरकों की प्रतिकृति और एक शॉपिंग सेंटर बनाने के सरकारी निर्णय के विरोध से हुई थी. इसकी शुरुआत पर्यावरण प्रेमियों ने की, पर जल्द ही युवा और मध्य वर्ग भी इसमें शामिल हो गया. इससे मुद्दा पर्यावरण से जुड़ा कम, राजनीति का ज्यादा हो गया.

प्रदर्शनकारियों ने गाजी पार्क को उजाड़ने के निर्णय को भी प्रधानमंत्री की इसलामी नीतियों से जोड़ दिया. गौरतलब है कि तुर्की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, पर प्रधानमंत्री एरडोगन रूढ़ीवादी सोच के नेता है. उनकी राजनीति ही पश्चिमीकरण और आधुनिकता के विरोध पर टिकी है. वे तुर्की के सामाजिक जीवन में इसलामिक परंपराओं को फिर से स्थापित करने के हिमायती हैं, जबकि उनके विरोधी तर्क देते हैं कि आधुनिक समाज में ऐसे कट्टर विचारों को महत्व नहीं मिलना चाहिए. उनका मानना है कि तुर्की आज जो कुछ भी है, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के कारण है.

इन दो विपरीत विचारधाराओं के टकराव ने तुर्की की शांति छीन ली है. एरडोगन के बयानों से कतई नहीं लग रहा कि वे शांति बहाली के लिए संजीदा हैं. एक चुनी हुई सरकार के मुखिया से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह विरोध की आवाज को दबा दे. जनता को सरकार की किसी नीति पर भरोसा नहीं है, तो उसे विरोध जताने का हक है, पर प्रधानमंत्री एरडोगन ने जनता के इस हक को बेरहमी से मारा.

पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर ऐसे कहर बरपाया, मानो वे शातिर अपराधी हों. ऐसी प्रताड़ना के खिलाफ आवाज बुलंद होना लाजमी है. एरडोगन की आंखें तब खुलीं, जब राजधानी इस्तांबुल के तकसीम चौक का इलाका प्रदर्शनकारियों से अट गया. इसमें युवा सबसे ज्यादा हैं. इनसे निपटने के लिए भी एरडोगन ने पहले बल प्रयोग किया, पर इससे बात और बिगड़ गयी. फिलहाल पूरा देश आंदोलन की जद में है. शहरों से लेकर गांवों-कस्बों तक में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. अब सरकार के रुख में यह परिवर्तन आया है कि आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेताओं से वार्ता की पहल की जा रही है.

एरडोगन 2003 से तुर्की के प्रधानमंत्री हैं और 2011 में लगातार तीसरी बार अपनी पार्टी को चुनाव में जीत दिला कर प्रधानमंत्री बने हैं. उन्होंने न केवल देश को राजनीतिक स्थायित्व दिया, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी बुलंदियों तक पहुंचाया. पर उनका राजधर्म यहीं तक सीमित नहीं है. यह सुनिश्चित करना भी उनकी जिम्मेदारी है कि देश का सामाजिक ढांचा समरसतापूर्ण हो.

दुर्भाग्य से इस मोरचे पर वे नाकाम रहे हैं. उन्होंने उस सपने को चकनाचूर कर दिया, जो आधुनिक तुर्की के निर्माता मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने 1923 में देखा था. उन्होंने इसलामी जगत के सबसे ताकतवर साम्राज्यों में शामिल ऑटोमन साम्राज्य के भग्नावशेषों पर अमन-चैन की आशा करते हुए तुर्की को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया था. उनके बाद देश की सत्ता तक पहुंचे हर राजनेता ने अतातुर्क की भावना का ख्याल रखा.

शीतयुद्ध के बाद आयी इसलामी चरमपंथ की लहर का भी यहां ज्यादा असर नहीं हुआ. पर 2003 में एरडोगन के पीएम बनने के बाद से स्थिति बदलने लगी. सरकार के कामकाज में रूढ़ीवादिता का असर साफ दिखने लगा. एरडोगन के इसलामवादी अभियान ने मुल्क की शांति छीन ली.

यहां यह भी समझना जरूरी है कि विरोध की वजह इसलाम नहीं है, बल्कि उसके नाम पर थोपा जा रहा रूढ़िवादी एजेंडा है. विरोधियों के इस तर्क में दम है कि खुले समाज में विकास की संभावनाएं ज्यादा होती हैं, इसलाम के नाम पर मुल्क को बरबाद करने की छूट नहीं दी सकती. यदि एरडोगन के पास इस तर्क की काट हो, तो उन्हें वह सार्वजनिक करना चाहिए.

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