कश्मीर घाटी में बाढ़ का कहर जारी है. पांच सौ से अधिक लोग काल-कवलित हो चुके हैं और डेढ़ लाख से अधिक अब भी फंसे हुए हैं. राहत एवं बचाव की कोशिशें जारी हैं. देशभर से मदद-सामग्री प्रभावित क्षेत्रों में भेजी जा रही है. आपदा की इस घड़ी में पूरा देश कश्मीर के साथ खड़ा है, लेकिन समाज का एक वर्ग ऐसा भी है, जो ओछी बयानबाजियों के जरिये कश्मीरियों के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को तुष्ट करने में लगा है.
ऐसे कठिन समय में जब प्राथमिकता लोगों की मदद करना होनी चाहिए, कुछ लोग बेमानी सवाल और बयान उछालने में मशगूल हैं. कोई राज्य सरकार पर राहत पहुंचाने में नाकाम रहने का आरोप लगा रहा है, तो कोई पूछ रहा है कि कश्मीर के भारत से अलग होने की मांग करनेवाले कहां हैं! ऐसे बयान देनेवालों को या तो तबाही का अंदाजा नहीं है या उनका इरादा ठीक नहीं है. राज्य सरकार के कार्यालय और भवन डूबे हुए हैं. ऐसे में राज्य सरकार की आलोचना का क्या मतलब है! अलगाववादी नेताओं के घर डूबे हुए हैं और खुद उन्हें भी मदद की दरकार है. आपदा देश के किसी कोने में हो, सेना ही राहत एवं बचाव अभियान की अगुवा होती है.
वह चाहे कोसी की बाढ़ हो, उत्तराखंड की तबाही या फिर कश्मीर की आपदा, सेना ने अपने कर्तव्यों का बखूबी निर्वाह किया है और इसके लिए देश अपने सैनिकों का ¬णी है. लेकिन, आज कुछ लोग बेबस कश्मीरियों से मांग कर रहे हैं कि वे सेना के प्रति आभार जतायें. काश! कोई ऐसे तत्वों को समझा पाता कि पीड़ितों में बचाव दल के प्रति कितना सम्मान है. रही बात छिटपुट नाराजगी की, तो क्या राहत के दौरान उत्तराखंड में ऐसा नहीं हुआ था! स्वाभाविक है कि पीड़ित राहत पाने के लिए व्यग्र हैं और यह व्यग्रता कभी-कभी गुस्से में बदल जाती है.
इसे सेना पर हमले के तौर पर देखना शर्मनाक नासमझी है. राष्ट्रीय आपदा के मौके पर ऐसी बातें न सिर्फ असंवेदनशील हैं, बल्कि अमानवीय भी हैं. बेहतर होता कि ऐसे लोग भावनाएं भड़काने के बजाये मदद के लिए आगे आते. रही बात कश्मीर की, तो नावेद रजा का यह शेर मौजूं है- ‘ये दाग लिक्खा था सैलाब के मुकद्दर में/ मिरा मकान तो पहले से खस्ता-हाल भी था.’