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हमने वोट दिया अब तनाव भी लें!

15 अगस्त को टीवी, रेडियो, अखबार, इंटरनेट पर देशभक्ति उफन रही थी. अपने अगल-बगल का माहौल और मौसम तो रोज की ही तरह था, लेकिन मीडियावालों में देशप्रेम कुछ ज्यादा ही हिलोरे मार रहा था. खबरिया टीवी चैनलों की जो एंकर रोज टॉप, कोट वगैरह में नजर आया करती थीं, वो साड़ी लपेट कर ‘पश्चिम’ […]

15 अगस्त को टीवी, रेडियो, अखबार, इंटरनेट पर देशभक्ति उफन रही थी. अपने अगल-बगल का माहौल और मौसम तो रोज की ही तरह था, लेकिन मीडियावालों में देशप्रेम कुछ ज्यादा ही हिलोरे मार रहा था. खबरिया टीवी चैनलों की जो एंकर रोज टॉप, कोट वगैरह में नजर आया करती थीं, वो साड़ी लपेट कर ‘पश्चिम’ को भारतीयता से परास्त कर रही थीं. लेकिन समझदार लोग मीडिया के इन टोटकों के झांसे में नहीं आये.

मेरे पड़ोस में रहनेवाले एक ‘कूल’ युवा को लीजिए. 15 अगस्त की छुट्टी के दिन सुबह-सुबह उठने की जहमत न उठानी पड़े, इसलिए 14 अगस्त की रात एक बजे ही उसने देशभक्ति से लबरेज तीन-चार पोस्ट और तसवीरें फेसबुक पर चिपका दीं और ‘चलो.. काम हो गया’ की बेफिक्री के साथ लंबी तान कर सो गया. और, सुबह तब उठा जब प्रधानमंत्री जी लाल किले पर पूरे एक घंटे उसके नाम संदेश देकर घर जा चुके थे.

मेरे एक अन्य पड़ोसी, भौमिक दादा हैं. वह उठ तो सवेरे गये, पर उन्होंने भी देशभक्ति का बचकाना मुजाहिरा करने से बेहतर समझा, छुट्टी के दिन मछली का लुत्फ लेना. इसलिए वह झोला लेकर निकल पड़े बाजार, और सरकारी रोक के बावजूद 15 अगस्त के दिन मछली खरीद लाये. हां, जो बेवकूफ सुबह-सुबह टीवी खोल कर लाल किले वाला भाषण सुनने बैठ गये, वो बेचारे तनाव में आ गये हैं. प्रधानमंत्री जी ने लिया-दिया कुछ नहीं, ‘राष्ट्रीय चरित्र’ और ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ जैसे बोझ और लाद दिये. आजकल दो जून की रोटी कमाने में इनसान पहले ही गधा बना हुआ, देश के नाम पर और बोझ कहां से उठा पायेगा. और, अगर देश को बनाने व गढ़ने का बोझ जनता को खुद ही उठाना होता, तो फिर मोदीजी, मोदीजी क्यों बनते? जनता ने वोट ही इसलिए दिया कि ‘‘ये ले भाई हमारा वोट, अब अच्छे दिन लेकर आ. हमने वोट दिया, बाकी का तू संभाल.’’ मोदीजी कह रहे हैं, राष्ट्रीय चरित्र से बदलाव आयेगा. बात सही है, पर इसके लिए जनता को मत पेरिए, ऊपर बदलाव लाइए. आम लोग तो माहौल देख कर काम करते हैं.

जहां पहले से कूड़ा पड़ा हो, वहां अपने घर का कूड़ा भी डाल आते हैं. किसी इमारत में पान वहीं पर थूकते हैं, जहां पहले से पीक के निशान हों. पेशाब करने के लिए उसी जगह का चयन करते हैं, जहां पहले से पेशाब किये जाने की निशानियां मौजूद हों. इसके उलट, यही आम आदमी जब किसी चकाचक मेट्रो स्टेशन या एयरपोर्ट पर जाता है, तो टॉफी की चिमचिमी फेंकने के लिए भी डस्टबिन तलाशता है और नहीं मिलने पर उसे जेब में डाल लेता है. क्या मजाल कि इधर-उधर फेंक दे! हर मामले में जनता का चरित्र कुछ ऐसा ही है. दफ्तर में बड़ा अफसर घूस न ले, तो क्या मजाल कि किरानी घूस ले ले. और, अगर नेता-मंत्री घूस न लें, तो भला अफसर की हिम्मत है घूस लेने की! तो जनाब, गंगा की सफाई गंगोत्री से शुरू करें, बनारस से नहीं.

सत्य प्रकाश चौधरी

प्रभात खबर, रांची

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