आलोक जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
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कुछ महीने पहले तक ऐसा नहीं लगता था कि भारत किसी गंभीर आर्थिक संकट में फंस सकता है. लेकिन, आज इस असलियत से कोई इनकार नहीं कर सकता है. तमाम आशंकाओं को गलत बताने के बाद सरकार को भी यह मानना पड़ रहा है. अब तो यह खबर पक्की है कि आर्थिक मोर्चे पर यह साल पिछले ग्यारह सालों में सबसे खराब रहनेवाला है. यानी पिछली दो सरकारों के कार्यकाल में ऐसा बुरा वक्त कभी नहीं आया था.
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) का कहना है कि इस साल देश की जीडीपी ग्रोथ की रफ्तार पांच प्रतिशत रहनेवाली है. और एक ही दिन बाद विश्व बैंक ने भी एकदम यही बात दोहरा दी. इससे पहले साल 2008-09 में जीडीपी ग्रोथ गिरकर 3.1 प्रतिशत हो गयी थी.
लेकिन, तब वह पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी का साल था. तब भी भारत की रफ्तार बाकी दुनिया से बेहतर थी और उस वक्त इस बात पर संतोष जताया गया था कि दुनियाभर में फैले आर्थिक संकट से भारत लगभग अछूता ही रह गया, क्योंकि रिजर्व बैंक के गवर्नर वाइवी रेड्डी ने तमाम दबाव के बावजूद वही फैसले किये थे, जो उन्हें सही लग रहे थे. वक्त ने भी बहुत लंबा इंतजार नहीं किया उन्हें सही साबित करने में.
इस बार वक्त की चाल और नसीब का हाल अच्छा नहीं दिख रहा है. विश्व बैंक का अनुमान पहले यह था कि 2019-20 में भारत की अर्थव्यवस्था छह प्रतिशत की दर से बढ़त दर्ज करेगी. लेकिन बैंकों के बाहर कर्ज देनेवाली कंपनियों यानी एनबीएफसी का हाल देखकर उसने अपना अनुमान पांच कर दिया है. साफ है, न तो बैंकों से कर्ज लेनेवाले बढ़ रहे हैं और न ही एनबीएफसी यानी नॉन बैंकिंग कंपनियों से.
कर्ज न बढ़ना उनके लिए तो अच्छी बात हो सकती है, जो अपना जीवन कर्ज से मुक्त रखना चाहते हैं. लेकिन, अर्थव्यवस्था में कर्ज का बढ़ना अच्छा माना जाता है.
यह इस बात का संकेत है कि व्यापारियों और उद्योगपतियों को भविष्य अच्छा दिख रहा है और वे ब्याज पर पैसा उठाकर भी व्यापार बढ़ाना चाहते हैं. यानी वे जोखिम उठाने को तैयार हैं कि मूलधन के साथ ब्याज जोड़कर लौटायेंगे, तब भी उसके ऊपर मुनाफा कमायेंगे. इसीलिए बैंकों को अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है और उनसे बंटनेवाले कर्ज की मात्रा को तरक्की का पैमाना. लेकिन फिलहाल इस पैमाने का हाल अच्छा नहीं दिख रहा है.
इस वक्त तो यही कहा जा सकता है कि बहुत देर हो चुकी है. अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद से देश में अभिजित बनर्जी की बातें ध्यान से सुनी जाने लगी हैं. उनका कहना है कि भारत की अर्थव्यवस्था एक गंभीर मंदी की कगार पर पहुंच चुकी है. ऐसे में जरा सी चूक भी महंगी पड़ सकती है.
लेकिन वह जो उपाय सुझा रहे हैं, वह बहुत से अर्थशास्त्रियों को रास नहीं आयेगा. खासकर उनको, जो आर्थिक मोर्चे पर अनुशासन के पैरोकार हैं. अनुशासन का अर्थ यह है कि सरकार की जितनी कमाई हो, उसी के हिसाब से खर्च किया जाये. यह किस्सा भारत में 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से ज्यादा सुना जाता रहा है. उससे पहले तो यही पढ़ा-सुना जाता था कि देश को तेजी से तरक्की करनी है, तो घाटे की अर्थव्यवस्था ही काम आयेगी.
दोनों ही विचारों के अपने-अपने फायदे हैं. अब भी कोई यह नहीं कहता कि देश का बजट फायदे का बजट बन जाये, लेकिन अनुशासन के समर्थक कहते हैं कि सरकारी घाटे का जो लक्ष्य तय किया गया है, उसके भीतर ही गुजारा होना चाहिए. यानी देश की जीडीपी के लगभग सवा तीन प्रतिशत से ज्यादा का घाटा नहीं होना चाहिए. सरकार ने इस साल घाटे का लक्ष्य 3.3 से कम करके 3.2 प्रतिशत किया था. लेकिन अभी तक के हिसाब-किताब से साफ है कि यह लक्ष्य पूरा नहीं होनेवाला है.
सरकार को पूरा जोर इस बात पर लगाना चाहिए कि कैसे बाजार में मांग वापस आये और कैसे अर्थव्यवस्था दोबारा रफ्तार पकड़े. समस्या यह है कि बाजार में मांग पैदा करने के लिए सरकार को खर्च बढ़ाना पड़ेगा.
जबकि दूसरी तरफ आमदनी बढ़ने के आसार दिख नहीं रहे हैं. इसी का असर है कि चालू वित्त वर्ष में सरकार का कुल खर्च करीब दो लाख करोड़ रुपये कम होने का अनुमान है. कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती की खबर से शेयर बाजार में तो दीवाली चल रही है, लेकिन बाकी देश पर उसका कोई असर दिख नहीं रहा है. कंपनियों के पास नकदी की कोई भारी किल्लत नहीं है, लेकिन वे भी खर्च नहीं करना चाहती हैं, क्योंकि उन्हें भी तो बाजार में मांग नहीं दिख रही है.
अगर अभिजीत बनर्जी की सुनी जाये, तो सरकार को जोरदार तरीके से पैसा निकालना पड़ेगा. उद्योग संगठन फिक्की ने भी यही सलाह दी है कि सरकार को घाटे की चिंता त्याग कर डेढ़ से दो लाख करोड़ रुपये की रकम खर्च करनी चाहिए, ताकि आम आदमी की जेब में पैसा पहुंचे और वह खर्च करने बाजार में निकले. इससे मांग बढ़ेगी.
सलाह वाजिब है. नुस्खा काम भी कर सकता है. लेकिन, समस्या यह है कि इस वक्त देश में एक तरफ सीएए और एनआरसी की कॉकटेल का जबर्दस्त विरोध और जवाब में समर्थन का आंदोलन चल रहा है, तो दूसरी तरफ जामिया और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों के छात्रों का आंदोलन विकराल होता जा रहा है. यह स्थिति अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार सकती है. इसीलिए आर्थिक मोर्चे पर कोई भी दवा तभी काम करेगी, जब समाज में शांति और विश्वास का माहौल होगा.