झारखंड में विधानसभा चुनाव के पास आते ही दल-बदल की राजनीति फिर रफ्तार पकड़ रही है. कई दलों के विधायकों के भाजपा के संपर्क में हैं, वहीं कुछ अन्य बड़े नेता भी इसकी फिराक में हैं.लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद जाहिर तौर पर दूसरे दलों के कद्दावर नेताओं का झुकाव उसकी ओर है. कुछ हार का डर और कुछ पार्टी से असंतुष्टि, उन्हें दल-बदल करने को उकसा रही है. आनेवाले दिनों में टिकट की मारामारी में भाजपा के असंतुष्ट भी दूसरे दलों का रुख कर सकते हैं.
पर, यह तय है कि दल-बदल की राजनीति से परहेज किसी भी दल को नहीं. अभी ये रफ्तार और भी बढ़ेगी. ऐसे माहौल में जब कांग्रेस और भाजपा जैसी विचारधारा के भी लिहाज से दो धुर विरोधी पार्टियों के नेता एक-दूसरे दल में पहुंच जा रहे हैं, तो ना दल का मतलब रह गया है और ना ही व्यक्ति का. तो फिर मतदाता किसे देख कर वोट करेगा. या अपना मत कैसे तैयार करेगा.
यह राजनीति में अत्यंत संकट का दौर है. जब किसी भी दल के पास इतने चेहरे नहीं कि उनकी बदौलत वह चुनाव जीतने या बहुमत जुटाने का माद्दा रखता हो. तेजी से बढ़ रही दल-बदल की राजनीति ने स्थानीय नेतृत्व का सवाल गौण कर दिया है. चूंकि राजनीति की धारा ही यही हो गयी है. लगभग सभी दल इसमें डुबकी लगा रहे हैं, ऐसे में वोटरों के लिए यह सवाल कहां रह जाता है कि उनकी सीट पर किस पार्टी से कौन खड़ा हो रहा है.
लोस चुनाव इसका बड़ा मॉडल बन कर उभरा है. जहां सिर्फ केंद्रीय नेतृत्व की बदौलत पूरा चुनाव लड़ा गया और वोटरों ने भी स्थानीय नेतृत्व के सवाल को तवज्जो नहीं दिया. विस चुनाव जिसे ज्यादा स्थानीय मुद्दों से जुड़ा हुआ माना जाता है, उसमें भी कमोबेश यही स्थिति बनती दिख रही है.
इससे फर्क नहीं पड़ता कौन किस दल से कहां से चुनाव लड़े, फर्क पड़ता है कि प्रदेश का नेतृत्व किसके हाथों में है. सबकी टकटकी इसी पर लगी है कि भाजपा किसे अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बताती है या किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ती है. अन्य पार्टियां इसी आधार पर रणनीति बनाने में जुटी हुई हैं.
विधानसभा स्तरीय मुद्दों पर चुनाव लड़े जाने की तैयारी कहीं दिखाई नहीं देती. यह राजनीति के विकेंद्रीकरण की जगह केंद्रित होते जाने के संकेत हैं, जिसे लोकतंत्र के लिए ज्यादा हितकर नहीं कहा जा सकता.