।।अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
महाराजगंज संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव भले ही साल भर से कम समय के लिए नया सांसद चुनने के लिए हुआ हो, पर इस पर सबकी आंखें यूं ही नहीं लगी थीं. इस चुनाव का महत्व बिहार की राजनीति और नीतीश सरकार के आठ साल के शासन के हिसाब से काफी बड़ा था, तो लालू प्रसाद की वापसी की उम्मीदों के हिसाब से भी कम बड़ा न था. पर बात इतनी होती तो इसे सिर्फ बिहार की लड़ाई का सेमीफाइनल कहा जाता, राष्ट्रीय राजनीति का सेमीफाइनल नहीं.
एक सीट के उपचुनाव के इतना महत्व पाने की एक कहानी है, जो सिर्फ उमाशंकर सिंह के स्वर्गवासी होने और प्रभुनाथ सिंह के पाला बदल कर चुनाव लड़ने से नहीं बनी है. इसमें नीतीश की राजनीतिक शैली, पीके शाही के राजनीतिक कच्चेपन, लालू प्रसाद की जी-जान से वापसी की कोशिश, गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के बड़े नेता नरेंद्र मोदी के ‘दंगाई व्यक्तित्व’ पर नीतीश कुमार के साफ विरोध, भाजपाइयों में नीतीश और जदयू के रुख को लेकर नाराजगी, बिहार में नीतीश कुमार के पिछड़ने तथा गुजरात में नरेंद्र मोदी द्वारा अपना बचा खुचा आधार वापस पा लेने जैसे पेचो-खम शामिल हैं.
मोदी गुजरात के छह उप-चुनावों में कहीं भी नहीं गये थे, जबकि नीतीश कुमार तीन दिन महाराजगंज में जमे रहे. मोदी कांग्रेस की छहों सीटों पर कब्जा कर चुके हैं, जबकि बिहार में जदयू उम्मीदवार राज्य के शिक्षा मंत्री पीके शाही सवा लाख से भी ज्यादा मतों से हार गये. गुजरात में कांग्रेस अपनी सभी छह सीटें हार गयी, महाराष्ट्र की एक मात्र विस सीट बचाने के अलावा उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा. तब भी कांग्रेस की पराजय से ज्यादा जदयू की पराजय की चर्चा हो रही है.
ममता बनर्जी ने बड़ी मुश्किल से हावड़ा सीट पर कब्जा बनाये रखा. वहां उन्होंने पूर्व फुटबॉलर प्रसून बनर्जी को उम्मीदवार बनाया था. ममता के खिलाफ अब नाराजगी बनने लगी है, पर चुनाव में इससे भी बड़ा प्रभाव इस बात का पड़ा कि हावड़ा नगरपालिका पर काबिज वाम दलों से और ज्यादा नाराजगी थी. हावड़ा में ममता के उम्मीदवार की जीत तय मानी जा रही थी. पिछले लोकसभा और फिर हुए विधानसभा चुनाव की तुलना में तो उनका उम्मीदवार ज्यादा बढ़िया प्रदर्शन नहीं कर सका, पर इतना साफ हुआ कि लोग वाम दलों से अब भी नाराज हैं. ममता इतने भर से चैन से नहीं बैठ सकती. यूपी की एकमात्र विस सीट पर सपा की जीत भी अखिलेश सरकार के लिए प्रमाणपत्र नहीं हो सकती.
पर गुजरात की सभी चार विस सीटें कांग्रेस से छीन लेने का मतलब नरेंद्र मोदी के लिए बहुत बड़ा है. इसमें वे सीटें भी हैं जो लेउवा पटेल बहुल थीं और जहां पिछली बार केशुभाई पटेल के चलते मोदी को धक्का लगा था. इसमें आदिवासी इलाके की सीट भी है, जो कांग्रेस का एकाधिकार मानी जाती थी. साफ है कि मोदी ने गुजरात पूरा जीत लिया है. पिछली बार अगर कोई कमी-बेशी रह गयी हो, तो इस बार मोदी ने उसे पूरा कर लिया है. कांग्रेस के लिए कहा जा सकता है कि पिछली बार वह नुकसान में थी, इस बार दिवालिया हो गयी. उसके कार्यकर्ता और नेता काम करना ही नहीं चाहते. वे राहुल और सोनिया से करिश्मे की उम्मीद के सहारे बैठे हैं.
चार लोकसभा और छह विस सीटों पर उपचुनावों के मौजूदा दौर को अगर अगले आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जाता था, तो उसमें हावड़ा बड़ा कारण नहीं था. उसका कारण था मोदी और नीतीश कुमार की आगे की राजनीति के सूत्र निकलना. नीतीश का एनडीए में रहना या न रहना महत्वपूर्ण है, पर उससे भी बड़ा मसला है कि नरेंद्र मोदी भाजपा के चुनाव अभियान का नेतृत्व करते हैं या नहीं. कहा जा रहा था कि लालकृष्ण आडवाणी द्वारा शिवराज सिंह की तारीफ करने के पहले ही भाजपा मोदी को चुनाव समिति का नेतृत्व देने का मन बना चुकी थी. अब गुजरात की जबरदस्त जीत के बाद जब वे गोवा के अधिवेशन में जायेंगे, तो उनके दावे को रोकना कम से कम भाजपा में किसी के वश की चीज नहीं रह जायेगी.
अब एनडीए में नीतीश कुमार और जदयू का रुख क्या होगा वह महत्वपूर्ण है, लेकिन महाराजगंज उपचुनाव में मिली पराजय के बाद उनका वजन कुछ कम होगा. वजन ही क्यों, अब उनके लिए विकल्प भी कुछ कम होंगे. इस नतीजे ने नीतीश कुमार और जदयू को सबक देने के साथ ही आगे की राजनीति के लिए भी काफी सारे संकेत छोड़े हैं. अब नीतीश कुमार को यह फैसला करना होगा कि वे भाजपा को साथ रखेंगे या जल्दी अलग होंगे. उनके इस फैसले का एनडीए और मुल्क की राजनीति पर असर पड़ना तय है. आप राजनीति और सरकार में भाजपा को साथ रखेंगे और उसके एक नेता पर खुली आपत्ति जतायेंगे, ऐसा ज्यादा दिन नहीं चल सकता.
इसी कारण सबसे चौंकानेवाला नतीजा महाराजगंज का माना जा रहा है. इस क्षेत्र को राजपूतों का गढ़ माना जाता है और काफी समय से वही यहां से जीतते रहे हैं. इस बार नीतीश कुमार ने प्रभुनाथ सिंह के सामने साफ-सुथरी छविवाले अपने शिक्षा मंत्री पीके शाही को उतारा था, जो भूमिहार हैं. नीतीश व जदयू का भूमिहार प्रेम नया नहीं है, पर जीवन में एक भी चुनाव न लड़े शाही जमीनी नेता नहीं हैं. उनकी तुलना में प्रभुनाथ और लालू प्रसाद जमीन से जुड़े नेता हैं. यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि जिस पुराने छपरा जिले में महाराजगंज सीट पड़ती है, उसकी चार सीटों में से तीन पर जदयू या भाजपा का कब्जा नहीं था. फिर भी अगर नीतीश एक नये और समीकरण से अलग के उम्मीदवार को मैदान में उतारने का फैसला लेते हैं, तो यह उनका दुस्साहस न भी हो तो एक बड़ा जोखिम जरूर था. पर इसमें सिर्फ सामाजिक समीकरण या शाही का नया होना ही बाधक नहीं बना. इसमें सबसे बड़ी बाधा बना भाजपा कार्यकर्ताओं का असहयोग या उलटा काम करना, जिसे बाद में शाही और अन्य लोगों ने स्वीकार किया. पर गिरिराज सिंह जैसे भाजपा नेताओं और राज्य के मंत्री ने जो कुछ कहा, उससे साफ हुआ कि प्रदेश भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं को नरेंद्र मोदी के बारे में नीतीश और जदयू नेताओं द्वारा बार-बार की गयी टिप्पणियां नागवार गुजरीं. अब आप भाजपा कार्यकर्ताओं के पसंदीदा नेता से खुला विरोध जताएं, लेकिन उनसे चुनाव में सोलह आना समर्थन की उम्मीद करें, तो यह तो गलत है.
बिहार में छोटा साथी होकर भी भाजपा का संगठन कैसा है, इसका एहसास भी सबको हो गया होगा. नीतीश कुमार की प्राथमिकता सूची में पार्टी संगठन टॉप पर नहीं है. कामकाज के लिए वे कार्यकर्ताओं से ज्यादा अधिकारियों पर भरोसा करते रहे हैं. वैसे यह भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी कि इस जीत के बाद लालू प्रसाद की वापसी की राह निकलेगी या कांग्रेस समेत कई दल उनके पास गंठबंधन करने आयेंगे. पर नीतीश कुमार इस उपचुनाव की चेतावनी को पढ़ते हुए क्या-क्या कदम उठाते हैं, गठजोड़ करते या तोड़ते हैं, इस पर सबकी नजर लगी है, क्योंकि इन सबका देश की आगे की राजनीति पर भी असर होगा.