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हमारी सकारात्मक अंतरिक्ष पहल
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया delhi@prabhatkhabar.in पचास वर्ष पूर्व 24 जुलाई, 1969 को अमेरिका का अपोलो-11 यान चंद्रमा की यात्रा से लौट आया. उसके तीन अंतरिक्षयात्री, पायलट माइकल कोलिंस, एडविन एल्ड्रिन तथा कमांडर नील आर्मस्ट्रांग को फ्लोरिडा से उड़कर चंद्रमा तक की अपनी यात्रा पूरी कर वापस लौट आने में कुल आठ दिन […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
delhi@prabhatkhabar.in
पचास वर्ष पूर्व 24 जुलाई, 1969 को अमेरिका का अपोलो-11 यान चंद्रमा की यात्रा से लौट आया. उसके तीन अंतरिक्षयात्री, पायलट माइकल कोलिंस, एडविन एल्ड्रिन तथा कमांडर नील आर्मस्ट्रांग को फ्लोरिडा से उड़कर चंद्रमा तक की अपनी यात्रा पूरी कर वापस लौट आने में कुल आठ दिन लगे.
22 जुलाई, 2019 को भारत ने चांद पर अपना दूसरा अंतरिक्षयान भेजा. इसे पृथ्वी के उपग्रह (चांद) पर उतरने में लगभग सात सप्ताह का समय लगेगा और इसके साथ ही अमेरिका, रूस तथा चीन के बाद भारत चांद तक पहुंचने की क्षमतावाला चौथा देश बन जायेगा.
जर्मनी, फ्रांस एवं जापान कुछ अन्य वैसे देशों में शामिल हैं, जिनके पास भी इसकी प्रौद्योगिक क्षमता है, पर उनकी सरकारें यह यकीन नहीं करतीं कि उनके करदाताओं के पैसे ऐसी चीजों पर खर्च किये जाने चाहिए.
चंद्रमा के अध्ययन की वजह यह है कि यह हमारे समूची सौर प्रणाली के विकास को समझने में हमारी मदद करेगा. चंद्रमा 3.5 अरब वर्ष पुराना है और इसकी ज्वालामुखियों के मुंह एक लंबे अरसे में निर्मित हुए, जो फिर अपरिवर्तित ही रहे, क्योंकि न तो चांद का कोई वातावरण है, न ही यहां ऐसी कोई अन्य आंतरिक हलचल है, जो इनके स्वरूप बदल सके. चंद्रमा ने उन सभी प्रक्रियाओं के असर दर्ज कर रखे हैं, जो पूरी सौर प्रणाली में घटित हुईं तथा जो बहुत सारी ऐसी चीजें बता सकती हैं, जिन्हें धरती पर नहीं समझा जा सकता. अपोलो मिशन के बाद ही यह समझा जाना भी संभव हो सका कि संभवतः जब एक बड़ी चीज पृथ्वी से टकरायी, तभी चंद्रमा का निर्माण हुआ.
वर्ष 1969 के उक्त महान पल के बाद अमेरिका ने स्वयं भी अपने अंतरिक्ष मिशन को बहुत अधिक आगे नहीं बढ़ाया. आर्मस्ट्रांग एवं एल्ड्रिन के बाद 10 अन्य अमेरिकी अंतरिक्षयात्रियों ने चंद्रमा पर अपने कदम रखे, मगर अंतिम मिशन वर्ष 1972 में संपन्न हो गया. वर्ष 1980 के दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के शासन काल में अमेरिका ने स्पेस शटल कार्यक्रम विकसित किया, जो वर्ष 2011 में समाप्त हुआ.
वर्ष 2003 में भारतीय मूल की अंतरिक्षयात्री कल्पना चावला का उस दुर्घटना में देहांत हुआ, जब अंतरिक्ष से अपनी वापसी यात्रा में पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करते वक्त स्पेस शटल कोलंबिया नष्ट हो गया. वर्ष 1980 में स्पेस शटल की प्रथम दुर्घटना के बाद यह उसकी दूसरी दुर्घटना थी. इन दोनों के बीच अन्य दुर्घटनाओं ने 14 मानव जिंदगियां लील लीं.
30 वर्ष पूर्व शीत युद्ध की समाप्ति तथा सोवियत संघ के पतन का परिणाम यह हुआ कि लंबी दूरियों की मिसाइलों के विकास में लगे संसाधन अब दूसरी ओर स्थानांतरित हो गये. यहां यह ध्यातव्य है कि इन मिसाइलों तथा अन्तरिक्ष राकेटों के विकास में बहुत कुछ समानताएं होती हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही यह कहा है कि वे नासा को पुनः आगे बढ़ाएंगे तथा वर्ष 2024 तक एक बार पुनः अमेरिकी अंतरिक्षयात्री चंद्रमा पर उतर सकेंगे. मगर वर्तमान में अंतरिक्ष के क्षेत्र में सर्वाधिक अग्रिम पंक्ति की पहल अरबपति अमेरिकी इंजीनियर एलोन मस्क द्वारा नीत एक निजी कंपनी ‘स्पेसएक्स’ द्वारा की जा रही है. स्पेसएक्स ने राकेट के विभिन्न चरणों को फिर से हासिलकर उनके उपयोग करने जैसी ऐसी क्षमताएं विकसित कर ली हैं, जो नासा के भी पास नहीं हैं. अमेजोन के मालिक जेफ बेजोस द्वारा संचालित एक अन्य निजी कंपनी ‘ब्लू हराइजन’ ने भी यह क्षमता विकसित की है.
वर्ष 2002 के लगभग जब मस्क ने अपनी कंपनी की शुरुआत की, तो उन्होंने पाया कि पिछले 50 वर्षों के दौरान राकेट प्रौद्योगिकी में कोई प्रगति नहीं हुई है और विभिन्न सरकारें 1960 के दशक से उसी प्रौद्यगिकी का इस्तेमाल करती आ रही हैं.
मस्क मंगल पर एक मानव कॉलोनी बसाने की योजना पर चल रहे हैं और उनकी लगन, विजन तथा प्रतिबद्धता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वे अपनी इस महत्वाकांक्षा को काफी हद तक साकार कर दिखाएंगे.
जब भारत जैसे देशों द्वारा अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर सार्वजनिक निधियां खर्च करने की बात आती है, तो इस पर दो तरह के मत व्यक्त किये जाते हैं और मेरी समझ से अपनी जगह दोनों ही सही हैं. पहला विचार तो सहज ही यह आता है कि भारत जैसे गरीब देशों को अंतरिक्ष क्षमताओं की वृद्धि में राशियां खर्च नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे राष्ट्रीय गौरव के अलावा उनके नागरिकों के लिए किसी खास लाभ की प्राप्ति नहीं होती. किंतु दूसरा मत यह है कि ऐसे कार्यक्रम राष्ट्र के वैज्ञानिक मिजाज को विकसित करने में सहायक होते हैं.
खासकर, इस विश्व के एक ऐसे हिस्से में जहां सरकारें अपने नागरिकों को यह भी बताती हैं कि उन्हें क्या खाना अथवा न खाना चाहिए, वैज्ञानिक प्रकृति और उसके नतीजतन खुली प्रकृति की मानसिकता विकसित करना लाभदायक ही होगा.
संभवतः यही वजह है कि भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को इसके हर राजनीतिक पक्ष का समर्थन मिलता रहा है. भारत के जिस ‘मिशन चंद्रमा’ के अगले चरण की शुरुआत सोमवार को हुई है, उसकी स्वीकृति वर्ष 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दी थी.
चंद्रयान-2 नामक जिस उपग्रह को चंद्रमा तक भेजा गया है, वह एक वर्ष तक काम करता रहेगा. इस यान को जिस राकेट से अंतरिक्ष में पहुंचाया जा रहा है, उसका नाम जीएसएलवी-तीन है और उसकी प्रक्षेपण शक्ति सैटर्न-5 नामक उस राकेट की चौथाई ही है, जिसने आर्मस्ट्रांग को चंद्रमा तक पहुंचाया था. इस उपग्रह का वजन 3.8 टन है, जिसे चंद्रमा की सतह से सौ किलोमीटर ऊपर की एक वृत्ताकार कक्षा में स्थापित किया जायेगा.
इस कार्यक्रम के अंतर्गत चंद्रमा का चक्कर लगानेवाले इस यान से अलग होकर चंद्रमा की सतह पर उतरनेवाला हिस्सा, जिसका नाम भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के नाम पर ‘विक्रम’ रखा गया है, चांद के दक्षिणी ध्रुव के निकट उतरेगा.
उसके बाद उसका ‘प्रज्ञान’ नामक रोबोटीय हिस्सा इस सतह पर चौदह दिनों तक चलता हुआ विभिन्न खनिजों तथा रसायनों के नमूने इकट्ठे करेगा, ताकि उनके विश्लेषण से चंद्रमा की सतह की बनावट को समझा जा सके. निस्संदेह, इस कार्यक्रम की सफलता भारत को विश्वव्यापी मीडिया में एक सकारात्मक वजह के लिए सुर्खियों की हकदार बना देगी.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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