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गरीब देश में कम्युनिस्टों का यह हाल

सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार surendarkishore@gmail.com सन् 1929 के चर्चित मेरठ षड्यंत्र केस ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाया, तो 2007 की सिंगूर-नंदीग्राम की घटनाओं ने साम्यवादी दलों के अवसान की बुनियाद रख दी. मेरठ षड्यंत्र केस में कई कम्युनिस्ट नेता आरोपित थे. आज तो कम्युनिस्ट दलों की चुनावी दुर्दशा देख कर उनके कुछ राजनीतिक […]

सुरेंद्र किशोर
वरिष्ठ पत्रकार
surendarkishore@gmail.com
सन् 1929 के चर्चित मेरठ षड्यंत्र केस ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाया, तो 2007 की सिंगूर-नंदीग्राम की घटनाओं ने साम्यवादी दलों के अवसान की बुनियाद रख दी. मेरठ षड्यंत्र केस में कई कम्युनिस्ट नेता आरोपित थे. आज तो कम्युनिस्ट दलों की चुनावी दुर्दशा देख कर उनके कुछ राजनीतिक विरोधियों को भी उन पर दया आ रही होगी. याद रहे कि विशेष आर्थिक जोन के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण के कारण सिंगूर-नंदीग्राम में वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ बड़ा जन आंदोलन हुआ था.
भारत जैसे गरीब देश में कम्युनिस्टों की दिन-प्रतिदिन पतली हो रही हालत के लिए आखिर कौन जिम्मेदार रहे? कम्युनिस्ट नेतृत्व, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, सर्वहारा, आम जन, आर्थिक उदारीकरण या कोई अन्य तत्व?
इसी के साथ यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि इस देश में कम्युनिस्ट दलों का पुनरुद्धार अब संभव भी है या नहीं. लगता है कि जिस तरह कम्युनिस्ट आंदोलन के उत्थान के लिए मुख्यतः उसके नेतृत्व को श्रेय जाता है, तो उसके अवसान के लिए भी तो उसी को जिम्मेदारी लेनी होगी.
पुनरुत्थान के मामले में कुछ भी भविष्यवाणी करना जोखिम भरा काम है. इस देश की कम्युनिस्ट पार्टियां शुरू से ही भारत भूमि के अनुसार खुद को कभी पूरी तरह ढाल नहीं सकी.
दुनिया के अन्य कम्युनिस्ट देश तो अपनी भूमि के एक-एक इंच की रक्षा के मामले में ‘राष्ट्रवादी’ रहे हैं. पर, हमारे देश के कम्युनिस्ट रक्षा में लगी सरकार को ‘अंध राष्ट्रवादी’ तो कभी हिंदूवादी कहने लगते हैं. दूसरे देश के कम्युनिस्ट इस बात की चिंता करते हैं कि उनके देश को कौन-कौन से देश घेरने की कोशिश कर रहे हैं. पर केरल सीपीएम के सचिव कहते हैं कि अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया और भारत मिल कर चीन को घेरना चाहते हंै.
सामाजिक न्याय यानी पिछड़ा आरक्षण की कोई अवधारणा कम्युनिस्ट शब्दकोष में नहीं है. कम्युनिस्टों ने लगातार इस रणनीति पर काम किया कि सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता में आने से रोकने के लिए किसी भी राजनीतिक दल का, चाहे वह कितना भी भ्रष्ट, वंश-तंत्रवादी और अक्षम हो, साथ दिया जाना चाहिए. पर क्या वे भाजपा को रोक पाए?
नब्बे के दशक तक यहां के कम्युनिस्टों के एक बड़े तबके की स्थानीय रणनीति इसी आधार पर बनती थी, जिससे सोवियत संघ या चीन के हितों को नुकसान न हो. अब भला ऐसी नीतियां इस देश की कितनी जनता को प्रभावित कर सकती हैं? पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु सरकार ने भूमि सुधार के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम उठाये थे.
उससे वाम मोर्चा को भारी जनसमर्थन मिला. तब अधिकतर कम्युनिस्टों के साफ-सुथरे निजी जीवन ने भी लोगों को प्रभावित किया. पर, लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के कारण किसी भी दल में जो कमजोरियां पनपती हैं, उनके शिकार होने से कम्युनिस्ट भी बचे नहीं रहे. पश्चिम बंगाल की वाम सरकार की अलोकप्रियता बढ़ती गयी. शासन के अंतिम वर्षों में बूथ जाम के जरिये चुनाव जीता गया, पर वह कब तक चलता?
कम्युनिस्ट नेताओं में एक खास खूबी है. वे यदा-कदा अपनी गलतियों को भरसक सार्वजनिक रूप से स्वीकारते हैं. उन्हें दुरुस्त करने की कोशिश भी करते हैं. पर एक समय ऐसा आया, जब कम्युनिस्ट नेतृत्व ने सुधार की ताकत खो दी. इसे किसकी विफलता मानें?
साल 2009 में सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि सत्ता और पैसों की लालच ने पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट आंदोलन के शानदार इतिहास को धूमिल कर दिया.
उधर सीताराम येचुरी ने 2016 में अपनी ही पार्टी की केरल सरकार में जारी भाई-भतीजावाद के खिलाफ आवाज उठायी. उधर ज्योति बसु ने 1994 में कहा कि ‘भारत की विशेष परिस्थितियों में जाति भी महत्वपूर्ण है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.’ क्या ध्यान दिया गया? हां, 2009 में लोकसभा चुनाव में हार के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने कुछ कदम जरूर उठाये. पर तब तक देर हो चुकी थी. साल 2011 में राज्य की सत्ता वाम मोर्चा के हाथों से निकल गयी.
सीपीआइ के महासचिव एबी वर्धन ने तब कहा था कि ‘भ्रष्टाचार और अहंकार ने वाम मोर्चा को आम जन से अलग कर दिया और हम चुनाव हार गये.
वामपंथी खुद को बदलें.’ कतिपय वाम नेताओं ने पहले तो वोट बैंक को मजबूत करने के लिए पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशियों के अवैध प्रवेश का रास्ता साफ किया, पर जब पश्चिम बंगाल के सात जिलों में शासन चलाना कठिन हो गया, तो राजनीतिक कार्यपालिका की तरफ से कहा गया कि राज्य में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ सक्रिय हो गयी है. वाम नेताओं के इस आरोप का अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं ने सख्त विरोध किया.
ममता बनर्जी ने उन्हें हाथों-हाथ लिया. इस तरह अल्पसंख्यक मतदाता धीरे-धीरे ममता की ओर चले गये. अल्पसंख्यकों के बीच के अतिवादियों के तुष्टीकरण मामले में ममता वाम से आगे निकल गयीं. आम अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए दोनों में से किसी ने कुछ नहीं किया. उसका राजनीतिक खामियाजा अब ममता बनर्जी भी भुगत रही हैं.
यदि हिंदी प्रदेशों में वाम दल मजबूत रहे होते, तो बंगाल-केरल-त्रिपुरा के नुकसानों की क्षतिपूर्ति अखिल भारतीय स्तर पर हो सकती थी. पर नेतृत्व की अदूरदर्शी नीतियों के कारण कभी बिहार में मजबूत रही सीपीआइ भी समय के साथ कमजोर होती चली गयी. मंडल आंदोलन और मंदिर आंदोलन के कारण भी कम्युनिस्ट पार्टियां कमजोर हुई हैं.
अनेक वर्णों के बदले सिर्फ दो वर्गों की उपस्थिति में विश्वास करनेवाली कम्युनिस्ट पार्टियों को हिंदी प्रदेशों में मंडल आंदोलन ने नुकसान पहुंचाया है. वहीं बिहार में तो लालू प्रसाद के धृतराष्ट्र आलिंगन में कम्युनिस्ट चकनाचूर ही हो गये.
हिंदी पट्टी मंे अपेक्षाकृत अधिक गरीबी भी है. गरीबों के बीच कम्युनिस्टों के प्रसार की गुंजाइश अधिक रहती है. इसके बावजूद यदि कम्युनिस्ट पार्टियां मुरझा गयीं, तो इसके लिए इन दलों की रणनीतियां और कार्य नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं. साठ-सत्तर के दशक तक कम्युनिस्ट व सोशलिस्ट दलों के नेता व कार्यकर्ता हर साल कोई न कोई आंदोलन करके जेल जाते थे.
पर, लगता है कि उनमें संघर्ष का पहले जैसा माद्दा अब नहीं बचा. नये लोग दल से जुड़ नहीं रहे हैं. याद रहे कि संघर्ष और शिक्षण के कारण जनता की नयी जमात पार्टी से जुड़ती है. पर, दुर्भाग्यवश भारत जैसे गरीब देश में, जहां विषमता बढ़ती जा रही है, कम्युनिस्ट पार्टियां मुरझा रही हैं.

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