।। राजेंद्र तिवारी ।।
(कॉरपोरेट एडिटरप्रभात खबर)
अगर वैदिक का उद्देश्य पत्रकारीय था, तो उन्हें किसी अखबार-पत्रिका-चैनल-वेबसाइट पर इंटरव्यू देना चाहिए था. इसका कंटेंट सुन कर लोग खुद ही तय कर लेते कि इंटरव्यू पत्रकारीय उद्देश्यों के तहत है या किसी निजी एजेंडे के तहत.
वेद प्रताप वैदिक की हाफिज सईद से मुलाकात को लेकर हल्ला मचा हुआ है. राजनीतिक बयानबाजी चल रही है और पत्रकार व पत्रकारिता को लेकर भी हर जगह बहस है. पहला सवाल तो यह है कि क्या वैदिक केंद्र सरकार की बैक चैनल डिप्लोमेसी के तहत सईद से मिले? केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि इस मुलाकात के पीछे उसकी कोई भूमिका नहीं है. यह बात सही प्रतीत होती है, क्योंकि यदि केंद्र की कोई भूमिका होती, तो यह प्रकरण सामने ही नहीं आता.
यहां मैं उल्लेख करना चाहूंगा वर्ष 2000 में तत्कालीन वाजपेयी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में घोषित किये गये एकतरफा संघर्ष विराम का. 2000 में आतंकी गतिविधियां चरम पर थीं और उसी दौरान केंद्र सरकार कश्मीर के सबसे बड़े अलगाववादी आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन से बैक चैनल के जरिये लगातार संपर्क में था. मध्यस्थ की भूमिका जो लोग अदा कर रहे थे, उनके नाम सिर्फ उन्हीं लोगों को पता हैं, जो इस बैक चैनल से जुड़े थे या उनके विश्वस्त थे. मैं उस समय जम्मू-कश्मीर में अमर उजाला का ब्यूरो चीफ था. मेरे गैरसरकारी सूत्रों ने एक दिन बताया कि केंद्र सरकार और हिजबुल मुजाहिदीन के बीच राजनीतिक समझौते पर बातचीत चल रही है.
यह वर्ष 2000 का नवंबर का महीना था. जो जानकारी मुङो मिली, वह मेरे लिए हैरान कर देनेवाली थी. अलगाववादी सूत्रों के मुताबिक, मुजफ्फराबाद में रह रहे हिजबुल के सुप्रीम कमांडर सैयद सलाउद्दीन और इधर कश्मीर में रह कर हिजबुल की गतिविधियों का संचालन करनेवाले चीफ कमांडर माजिद डार से एक बड़े अलगाववादी नेता के जरिये केंद्र की बातचीत हो रही थी. बातचीत का आधार यह था कि यदि ये दोनों कमांडर हथियार डाल दें और मुख्यधारा की राजनीति में आ जायें, तो कश्मीर में विधानसभा भंग कर समय से पहले चुनाव करा दिये जायेंगे और ये दोनों कमांडर हिजबुल को राजनीतिक संगठन घोषित कर चुनाव में भाग लें. केंद्र ने पूरी प्रक्रिया पर भी उन्हें राजी कर लिया था.
प्रक्रिया के तहत, सरकार रमजान का महीना शुरू होने से पहले हिजबुल के खिलाफ एकतरफा संघर्ष विराम की घोषणा करेगी और इसी बीच खुफिया एजेंसियां सैयद सलाउद्दीन को कवर देकर इधर ले आयेंगी. फिर केंद्र के कदम के प्रत्युत्तर में ये दोनों कमांडर भी संघर्ष विराम का एलान करेंगे. यहां यह उल्लेख करना गैरवाजिब न होगा सैयद सलाउद्दीन व माजिद डार तमाम निदरेषों की हत्या के गुनहगार हैं. मुङो यह खबर मिली, तो मैंने इसे क्रास चेक करने के लिए सरकारी, सैन्य व खुफिया सूत्रों को खटखटाया. अधिकतर ने तो इस जानकारी को ही गलत बताया, लेकिन एक ने न केवल इसकी पुष्टि की, बल्कि एक फोन नंबर दिया जो श्रीनगर का था. उसने बताया कि यह नंबर अमुक बुजुर्ग अलगाववादी नेता का है. उसने मेरी मदद की और सब लाइन-अप करके मुझसे उस नंबर पर फोन करने को कहा. मैंने फोन उसपर किया तो माजिद डार से बात हो गयी. बातचीत में अप्रत्क्ष रूप से मेरी जानकारी भी पुष्ट हो गयी. मैंने अपने संपादक को बताया तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लेकिन फिर उन्होंने कहा कि खबर लिखो. वह खबर सभी संस्करणों में प्रमुखता से छपी.
मैं थोड़ा डरा हुआ था कि केंद्र सरकार इसका खंडन न जारी कर दे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. केंद्र ने संघर्ष विराम की घोषणा कर दी. मैं यहां सिर्फ यह बात बताना चाहता हूं कि बैक चैनल में काम करनेवाले लोगों का नाम लोग नहीं जान पाते हैं, जबकि वेद प्रताप वैदिक ने खुद ही हाफिज सईद के साथ अपना फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया. हिजबुल और केंद्र के बीच मध्यस्थता करनेवाले उस अलगाववादी नेता का नाम न सिर्फ अलगाववादियों, बल्कि आम कश्मीरियों के बीच बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है. यदि कोई कहे कि यह सज्जन फलां के लिए काम करते हैं, तो भी इसे कोई नहीं मानता. वहीं वैदिक को लेकर संदेह ही संदेह है, चाहे राजनीतिक दलों की बात हो या फिर पत्रकारिता जगत की.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि वेद प्रताप वैदिक के पाकिस्तान, अफगानिस्तान व खाड़ी देशों में काफी ऊंचे निजी संपर्क हैं. जब प्रधानमंत्री मनमोहन काबुल यात्रा पर गये थे, तो उनके साथ पत्रकारों की टीम में वेद प्रताप वैदिक भी थे. नटवर सिंह उस समय विदेश मंत्री थे. संयोग से वैदिक और मैंने काबुल में होटल रूम शेयर किया. वह बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे. किंग जहीर शाह के खानदान से अपने रिश्तों का बयान करते नहीं थक रहे थे. मुङो लग रहा था कि वह लंतरानी झाड़ रहे हैं. लेकिन काबुल यात्रा के पहले ही दिन देर रात (करीब नौ बजे) उन्होंने कहा कि जहीर शाह के कुछ रिश्तेदार उन्हें लेने के लिए आनेवाले हैं. पहले तो मुङो भरोसा नहीं हुआ, लेकिन बाद में यह बात सच निकली.
अब बात उनके पत्रकार के तौर पर हाफिज सईद से मिलने की. उनके संपर्क हैं, वह हाफिज सईद से अपने संपर्को के जरिये मिल सकते हैं. लेकिन उन्होंने अपनी बातचीत का जितना खुलासा किया है, उससे उनका उद्देश्य पत्रकारीय नहीं लगता. वह कहते हैं कि मैंने कहा कि मोदी सभी धर्मो को साथ लेकर चलने के पक्षधर हैं. उन्होंने बातचीत में किसी का पक्ष क्यों रखा? उन्होंने जो बात की, उसमें पत्रकारीय उत्कंठा नहीं दिखाई दे रही है. पत्रकार हमेशा अपने पाठकों, अपने समाज में तमाम चीजों को लेकर स्पष्ट तसवीर प्रस्तुत करने का काम करता है. उसका लालच सिर्फ यही होना चाहिए कि वह अपने पाठकों व समाज के सामने वह सब रख पाये, जो लोग नहीं जानते या गलत जानते हैं.
अगर उनका उद्देश्य पत्रकारीय था, तो उन्हें किसी अखबार-पत्रिका-चैनल-वेबसाइट पर इंटरव्यू देना चाहिए था. इसका कंटेंट सुन कर लोग खुद ही तय कर लेते कि इंटरव्यू पत्रकारीय उद्देश्यों के तहत है या किसी निजी एजेंडे के तहत. फोटो के साथ-साथ वह पूरा इंटरव्यू सोशल साइट पर भी पोस्ट कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. क्यों? अगर वह ऐसा करते, तो उन्हें चीख-चीख कर यह बताने की जरूरत नहीं पड़ती कि उन्होंने पत्रकार के तौर पर इंटरव्यू किया है और लोग तय कर लेते कि इंटरव्यू पत्रकारीय है या निजी एजेंडे को सेट करने के लिए है.
और अंत में.. पढ़िए, तुर्की कवयित्री मस्सेर येनलिए की यह कविता जिसका हिंदी अनुवाद किया है रति सक्सेना ने :
फूलों का गांव
मैंने फूल से सीखा कि किस तरह/ अपनी जगह खड़ा हुआ जाये/ मैंने कोई दूसरा सूरज नहीं देखा/ मैंने कोई दूसरा पानी नहीं देखा/ मैंने अपनी जड़ें अपने गांव में पायी/ मेरी जमीन ही मेरा आसमान है/ मौसम मुझ पर से गुजरते हैं/ चींटियों के घरौंदों के दोस्त/ मैंने एक फूल बनना सीखा/ बिना रुके खड़े रहने से..