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शिक्षा बेहतर हो

शैक्षणिक तंत्र की गुणवत्ता उत्कृष्ट न हो, तो विकास की धार कुंद पड़ जाती है. यह जगजाहिर तथ्य है कि हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में अनेक समस्याएं है. यदि इनके समाधान के त्वरित उपाय नहीं किये गये, तो अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. शासन-प्रशासन के स्तर पर साधारण चिंताओं के […]

शैक्षणिक तंत्र की गुणवत्ता उत्कृष्ट न हो, तो विकास की धार कुंद पड़ जाती है. यह जगजाहिर तथ्य है कि हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में अनेक समस्याएं है. यदि इनके समाधान के त्वरित उपाय नहीं किये गये, तो अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

शासन-प्रशासन के स्तर पर साधारण चिंताओं के निवारण में भी बहुत समय लगना दुर्भाग्यपूर्ण है. वर्ष 1989 में प्रख्यात साहित्यकार आरके नारायण ने राज्यसभा में बच्चों के बस्ते के भारी बोझ पर मार्मिक भाषण दिया था. ‘मालगुड़ी डेज’ के रचनाकार के इस संबोधन के परिणामस्वरूप महान वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में गठित समिति ने 1993 में अपनी रिपोर्ट दी थी.

बरसों तक इस मुद्दे पर मीडिया और अदालत में भी चर्चाएं हुईं, पर सरकारी स्तर पर इस महीने स्पष्ट निर्देश जारी किये गये हैं. यह देखना अभी बाकी है कि इन पर स्कूलों में किस हद तक अमल होता है. हर स्तर पर प्रति शिक्षक छात्रों की संख्या पर भी ध्यान दिलाने की कोशिशें होती रही हैं.

वर्ष 2009 के शिक्षा के अधिकार कानून के अनुसार, प्राथमिक स्तर पर छात्र-शिक्षक अनुपात 30:1 और उच्च प्राथमिक स्तर पर 35:1 होना चाहिए. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हमारे स्कूलों में मौजूदा अनुपात संतोषजनक है. प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद् के सदस्य बिबेक देबरॉय ने इस अनुपात को कम करने की सलाह दी है. यूनेस्को की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि 74 देशों में शिक्षकों की भारी कमी है और इस सूची में भारत का स्थान दूसरा है. दो साल पहले प्रकाशित एसोचैम के एक अध्ययन के अनुसार देश में शिक्षकों के 50 फीसदी पद खाली हैं.

हरियाणा, झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली और गुजरात में यह समस्या सबसे गंभीर है. इस बीच नियुक्तियां हुई हैं, पर वे अपर्याप्त हैं. सबसे अहम मसला शिक्षकों के प्रशिक्षण और गुणवत्ता का है. यदि शिक्षक ही अच्छे नहीं होंगे, तो उनकी संख्या अधिक होनेभर से शैक्षणिक गुणवत्ता बेहतर नहीं हो सकती. अनेक राज्यों में शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए बिना प्रशिक्षण के सिर्फ शैक्षणिक योग्यता के आधार पर नियुक्तियां की गयीं, तो कुछ राज्यों में इसमें भ्रष्टाचार भी खूब हुआ.

कुछ राज्यों ने शिक्षक अर्हता परीक्षा उत्तीर्ण करने की अनिवार्यता भी हटा दी है. नियुक्ति के बाद शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के ठोस प्रयास नहीं हुए. पिछले सालों में इस बाबत छपी कई खबरें इन खामियों की सूचना देती हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालात बेहद खराब हैं. देशभर के सरकारी स्कूल और कॉलेज बुनियादी सुविधाओं और शिक्षकों की कमी से ग्रस्त हैं.

गांवों में शिक्षकों की अनुपस्थिति भी एक समस्या है. केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत राज्यों के साथ मिलकर प्रशिक्षण की दिशा में कदम उठाया है. ई-बस्ता की डिजिटल पहल भी सराहनीय है. केंद्र और राज्य सरकारों को समुचित बेहतरी के लिए दीर्घकालिक निवेश और रणनीति पर ध्यान देने की जरूरत है.

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