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अपराध में पुलिस की भूमिका

आये दिन अखबारों में ‘पुलिस के प्रति असंतोष’ जैसे वाक्यांश पढ़ने को मिलते हैं. यह असंतोष किसी निजी कारण से नहीं, बल्कि पुलिस की कार्यशैली से है. झारखंड में इसरी-डुमरी बंद की घटना हो या उत्तर प्रदेश का बदायूं कांड, हमेशा यह बात आती है कि पुलिस की लापरवाही से अमुक घटना घटी बात. हकीकत […]

आये दिन अखबारों में ‘पुलिस के प्रति असंतोष’ जैसे वाक्यांश पढ़ने को मिलते हैं. यह असंतोष किसी निजी कारण से नहीं, बल्कि पुलिस की कार्यशैली से है. झारखंड में इसरी-डुमरी बंद की घटना हो या उत्तर प्रदेश का बदायूं कांड, हमेशा यह बात आती है कि पुलिस की लापरवाही से अमुक घटना घटी बात.

हकीकत भी यही है. पुलिस अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देती है. सीधे-सादे ग्रामीणों पर वह हावी होती दिखती है, लेकिन ऊंची पहुंचवालों के सामने बौनी हो जाती है. रसूखवालों पर कार्रवाई करने में कई तरह के बहाने करती है. पुलिस के पास ऐसे अधिकार हैं कि वह अपने मुताबिक केस बना सकती है या केस खराब कर सकती है. गांव-कस्बों में लोगों के बागी बन जाने की वजह कहीं न कहीं पुलिसिया अत्याचार और दमन भी है. फिर इन्हीं बागियों पर पुलिस नक्सली होने का आरोप लगाती है.

धीरेंद्र कु मिश्र, रानीडीह, गिरिडीह

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