डॉ अश्विनी महाजन
एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू
ashwanimahajan@rediffmail.com
पिछले लगभग दो दशक में अंतरराष्ट्रीय व्यापार से खासा लाभ उठाकर अपने भारी-भरकम विदेशी मुद्रा भंडार, इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास और सामरिक प्रगति के चलते चीन में विश्व विजय की महत्वाकांक्षा भी जग गयी.
चीन ने जो विदेशी मुद्रा भंडार जमा किया था, अब उसका इस्तेमाल वह रणनीतिक तरीके से करने लगा और बड़ी मात्रा में अफ्रीका जैसे देशों में उसने भूखंड खरीद लिये. कम संसाधनों वाले देशों में ही नहीं, बल्कि अमीर देशों में भी अब उसने इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के नाम पर अपनी उपस्थिति बढ़ानी शुरू कर दी.
उसने दुनिया के सामने एक योजना रख दी कि एक ऐसे मार्ग का निर्माण किया जाये जो एशिया, अफ्रीका और यूरोप को जोड़े. इसमें 68 देशों को शामिल करने का प्रस्ताव था. चीन ने एक बड़ा सम्मेलन बुलाकर अपनी योजना दुनिया के सामने रख दी, जिसमें 29 देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने हिस्सा लेकर इस योजना का अनुमोदन कर दिया.
चीन की विस्तारवादी नीति को भारत से ज्यादा कोई नहीं जानता, क्योंकि 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर हमारी हजारों किमी जमीन हथिया ली थी, वह भी ऐसे समय में, जब भारत पंचशील के आधार पर शांतिपूर्ण सहआस्तित्व की इबारत लिख रहा था. भारत ने चीन की इस योजना का विरोध करते हुए उस सम्मेलन में भाग नहीं लिया था.
प्राचीन काल से ही भारत दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग और कृषि उत्पादन का केंद्र था. लेकिन आधुनिक काल में यूरोपीय देशों ने दुनिया के बाजारों पर कब्जा जमा लिया, और ये देश औद्योगिक देश कहलाने लगे. उन दिनों आर्थिक चिंतकों ने मुक्त व्यापार का सिद्धांत गढ़ा और यह कहा कि मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार से ही दुनियाभर के लोगों का भला हो सकता है.
इसी मुक्त व्यापार के सिद्धांत की आड़ में भारत और अपने अन्य उपनिवेशों में इंग्लैंड और अन्य औपनिवेशिक ताकतों ने अपने औद्योगिक उत्पादन बेचने शुरू किये. विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में चाहे चीन ने देर से प्रवेश लिया, लेकिन मुक्त व्यापार का सर्वाधिक फायदा चीन ने ही उठाया. डब्ल्यूटीओ के समझौतों के चलते अपने औद्योगिक उत्पादों को चीन ने दुनिया के बाजारों में बेचना शुरू किया और 130 देशों के साथ उसका व्यापार फायदे में होने लगा. इस तरह चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया.
इस सम्मेलन के बाद कुछ घटनाओं ने दुनिया का चीन के प्रति दृष्टिकोण बदल दिया. चीन ने श्रीलंका में हम्बनटोटा नाम के बंदरगाह के निर्माण का जिम्मा लिया और इस हेतु श्रीलंका को बड़ा कर्ज भी दिया.
कर्ज इतना ज्यादा था, जिसे श्रीलंका सरकार चुका नहीं पायी और इसके बाद चीन ने श्रीलंका को इस हेतु बाध्य किया कि वह इस बंदरगाह को उसे 99 वर्ष की लीज पर दे दे. श्रीलंका की जनता और शेष दुनिया ने इसे एक उपनिवेशवादी कदम माना.
अब तो अन्य देशों को यह लगने लगा है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर चीन इन देशों को अपने ऊपर आश्रित करते हुए उनके लिए सुरक्षा खतरा बन सकता है, इसलिए चीन के साथ इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए समझौते के रास्ते पर खड़े देश या समझौते कर चुके देश अब पीछे हटने लगे हैं. मलयेशिया के प्रधानमंत्री महातिर बिन मोहम्मद ने पिछले दिनों चीन के लगभग 23 अरब डाॅलर के समझौतों को हरी झंडी दी थी, पर अब उन्हें रद्द कर दिया है.
बांग्लादेश, हंगरी और तंजानिया जैसे देशाें ने बेल्ट रोड परियोजनाओं को या तो रद्द कर दिया है या उसके स्वरूप को घटा दिया है. म्यांमार ने चीन को यह धमकी देकर कि वह उसके समझौते को रद्द कर सकता है, क्यावपीयू बंदरगाह की पूर्व लागत 7.3 अरब डाॅलर से घटाकर मात्र 1.3 अरब डाॅलर पर ले आया है.
यहां तक कि पाकिस्तान जैसा देश भी परियोजनाओं का पुनरावलोकन करने लगा है. यानी छोटे-छोटे देश भी स्वातंत्र्य खोने के डर से चीन से लोहा लेने लग गये हैं. बेल्ट रोड परियोजना में जो 68 देश शामिल हैं, उनमें 23 देश तो पहले से ही कर्ज के बोझ में दबे हुए हैं.
दुनिया को अब समझ आने लगा है कि पहले चीन ने सब्सिडी देकर अपने निर्यातों को सस्ता करते हुए बाजारों पर कब्जा कर लिया और उसके कारण अपनी बढ़ी हुई शक्ति का दुरुपयोग वह दुनिया पर अपना सामरिक आधिपत्य स्थापित करने के लिए कर रहा है.
ऐसे में चीन को अपनी महत्वाकांक्षी बेल्ट रोड योजना को पूरा करना आसान नहीं होगा. अपने देश के उद्योगों और रोजगारों को बचाने के लिए अमेरिका ही नहीं, भारत समेत कई देश आगे बढ़ रहे हैं. अमेरिका ने चीन से आनेवाले सभी आयातों पर आयात शुल्क में बेतहाशा वृद्धि करते हुए चीन के अपने बाजारों पर कब्जे को समाप्त करने का आगाज कर दिया है.
वहीं भारत ने चीन से आनेवाले सामानों पर न केवल एंटी डंपिंग ड्यूटी और मानकों के माध्यम से आयातों को रोकने का उपक्रम शुरू किया है, बल्कि वर्ष 2018 में इलेक्ट्रॉनिक्स, टेलीकॉम, वस्त्र, रसायन और अन्य सामानों पर आयात शुल्क बढ़ाकर चीन के आयातों को रोकने का काम भी शुरू कर दिया है.
दुनियाभर से चीन को ऐसा प्रतिरोध मिल रहा है. अमेरिकी सरकार ने चीन से आनेवाले सभी उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाने की घोषणा कर दी है. भारत समेत अन्य देश भी संरक्षणवाद की नीति पर चल चुके हैं. व्यापार आधारित चीन की विकास यात्रा अब थम सकती है. यदि दुनिया के देशों ने चीन के साथ इन्फ्रास्ट्रक्चर समझौते रद्द कर दिये या घटा दिये, तो चीन की महत्वाकांक्षाएं ध्वस्त हो सकती हैं.