18.1 C
Ranchi

लेटेस्ट वीडियो

एक साथ चुनाव के प्रश्न

II नवीन जोशी II वरिष्ठ पत्रकार [email protected] देश में सभी चुनाव एक साथ कराने की चर्चा अक्सर छिड़ जाती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चार साल के कार्यकाल में इसे एक मुद्दे की तरह बार-बार उठाया. वे लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ कराने की वकालत करते हैं. कुछ समय पहले उनके सुझाव पर […]

II नवीन जोशी II
वरिष्ठ पत्रकार
देश में सभी चुनाव एक साथ कराने की चर्चा अक्सर छिड़ जाती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चार साल के कार्यकाल में इसे एक मुद्दे की तरह बार-बार उठाया. वे लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ कराने की वकालत करते हैं. कुछ समय पहले उनके सुझाव पर केंद्रीय विधि आयोग ने तीन पेज का एक सार-पत्र तैयार किया है.
उसका उद्देश्य इस बारे में जनता, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक दलों की राय लेना है. पिछले दिनों विधि आयोग ने इस पत्र को सभी मान्यता प्राप्त दलों के विचारार्थ भेजा है. उनसे इसी 30 जून तक आयोग के साथ चर्चा करने या अपनी राय लिखित रूप में भेजने का आग्रह किया गया है.
अब जबकि लोकसभा चुनावों को एक साल से भी कम समय रह गया है, भाजपा सरकार इस मुद्दे पर कुछ तेजी दिखाती लगती है. मोटा-मोटा प्रस्ताव यह है कि जिन राज्य विधानसभाओं के चुनाव आनेवाले साल-दो साल में होने हैं, उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ करा दिया जाये.
बाकी विधानसभाओं के चुनाव 2024 के आम चुनावों के साथ हों. कुछ लोग इसे नरेंद्र मोदी की चाल के रूप में देख रहे हैं कि वे अपनी छीझती लोकप्रियता को यथाशीघ्र अगले कुछ समय के लिए भुना लेना चाहते हैं या लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में स्थानीय मुद्दों को भुलाकर लाभ उठाना चाहते हैं.
साल 1983 में निर्वाचन आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का सुझाव रखा था. 1999 में केंद्रीय विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में इसकी वकालत की थी.
दिसंबर 2015 में संसद की एक स्थायी समिति ने एक साथ चुनाव कराने के वैकल्पिक और व्यावहारिक मार्ग खोजने की सिफारिश की थी. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पिछले वर्ष संसद के संयुक्त सत्र में इस बारे में चर्चा की थी.
इस सुझाव के पक्ष में कुछ तर्क बड़े ठोस हैं. एक साथ चुनाव कराने से बार-बार चुनाव आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी, जिससे विकास कार्यों में रुकावट नहीं आयेगी.
चुनाव आयोग, प्रशासनिक तंत्र और सुरक्षा बलों से लेकर सरकारी कर्मचारियों एवं अध्यापकों तक को हर बार निर्वाचन कार्यों में व्यस्त नहीं होना पड़ेगा. चुनाव-नियमितता सुनिश्चित होगी तो सरकारें अपना ध्यान पूरी तरह विकास कार्यों की तरफ लगा सकेंगी. राजनीतिक स्थिरता रहेगी. चुनावों में खर्च कम होगा. सुशासन को बढ़ावा मिलेगा और राजनीतिक भ्रष्टाचार कम होगा, आदि.
साल 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ ही हुआ करते थे. उसके बाद भारतीय राजनीति में नया दौर आया. कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती मिली, क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ, मध्य जातियों और दलितों के राजनीतिक उभार से नये समीकरण बने. दल-बदल और गठबंधन की राजनीति बढ़ने से संसदीय अस्थिरता का दौर आया.
कई राज्यों में हफ्तेभर से लेकर साल-छह महीने की सरकारें बनीं. बार-बार राष्ट्रपति शासन और जल्दी-जल्दी चुनावों का सिलसिला शुरू हुआ. 73वें-74वें संविधान संशोधनों के बाद त्रिस्तरीय नगर निकायों और पंचायतों के चुनाव शुरू हुए, तो राज्यों में हर साल कोई न कोई चुनाव होने लगे. मतदाता सूचियां भी अलग-अलग हैं.
सतारूढ़ दल से लेकर विपक्ष तक और पूरे प्रशासनिक तंत्र का ध्यान चुनावों पर रहता है. शिक्षकों का यह हाल है कि वे स्कूलों में कम, चुनावी कार्यों में ज्यादा तैनात रहते हैं. इस सब ने एक साथ चुनाव कराने की चर्चा को बल ही प्रदान किया.
विधि आयोग के सार-पत्र के अनुसार, 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ कुछ विधानसभाओं के चुनाव कराने के लिए या तो उनका (राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) कार्यकाल कुछ बढ़ाना होगा या कुछ (जिनका कार्यकाल 2020 या 2021 में खत्म हो रहा हो) का कार्यकाल घटाना होगा. बाकी विधानसभाओं को भी 2024 के आम चुनाव तक खींचना होगा. इसके लिए संविधान संशोधन की जरूरत होगी. निर्वाचन संबंधी कानून बदलने होंगे. उप-चुनाव लंबे समय तक टालने होंगे.
क्या कुछ क्षेत्रों की जनता को जन-प्रतिनिधि विहीन रखना लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत नहीं होगा? क्या गारंटी है कि साथ चुनाव कराने के बाद कुछ राज्यों में मध्यावधि चुनाव की नौबत नहीं आयेगी? केंद्र में भी चरण सिंह (1979) और अटल बिहारी बाजपेयी (1996) की सरकारों जैसी क्या कभी नौबत नहीं आयेगी? अगर कोई सरकार अविश्वास प्रस्ताव से गिर गयी तो?
विधि आयोग का सार-पत्र कहता है कि अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के साथ सांसदों अथवा विधायकों को वैकल्पिक सरकार के लिए भी मत देना होगा, ताकि सदन भंग करने की नौबत न आये. यह कितना व्यावहारिक होगा? सुझाव यह भी है कि त्रिशंकु सदन होने पर सभी दलों के निर्वाचित सदस्य मिलकर एक नेता का चुनाव करें.
जो हालत हमारे दलों की है, उसमें यह कैसे हो पायेगा? फिर, इसमें दल-बदल कानून आड़े आ जायेगा. तो, क्या दल-बदल कानून भी बदला या रद्द किया जायेगा? केंद्र में राष्ट्रपति शासन का विकल्प भी रखना होगा. एक साथ चुनाव से खर्चे कम हो सकते हैं, लेकिन बहुत बड़ी संख्या में ईवीएम एवं वीवीपैट मशीनों की आवश्यकता होगी. उसके लिए भी बड़ी रकम चाहिए.
ब्रिटेन ने 2011 से अपने यहां हर पांच साल बाद संसदीय चुनाव की तारीख निश्चित की है. दक्षिण अफ्रीका और स्वीडन जैसे देशों में चुनाव एक साथ कराये जाते हैं, किंतु ज्यादातर बड़े लोकतंत्रों में एक साथ चुनाव नहीं हो पाते.
हमारे यहां कांग्रेस इसे व्यावहारिक मानती है. तृणमूल कांग्रेस ने इसे अलोकतांत्रिक कहा है, तो भाकपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी मानते हैं कि इसे लागू करना ही संभव नहीं है. माकपा ने भी व्यावहारिक दिक्कतें गिनायी हैं. अन्नाद्रमुक और असम गण परिषद् समर्थन में हैं.
एक साथ चुनाव से कुछ समस्याएं दूर हो सकती हैं, किंतु यह देखना ज्यादा जरूरी है कि कहीं इससे हमारे संघीय लोकतांत्रिक ढांचे में कुछ मूलभूत परिवर्तन तो नहीं हो जायेंगे? इतने विशाल और विविध देश में जनता के भिन्न-भिन्न स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा तो नहीं होने लगेगी?
तमाम नकारात्मकताओं के बावजूद हमारा लोकतंत्र और संघीय स्वरूप कायम रहा है. जो बुराइयां आ गयी हैं, क्या उन्हें दूर करने का उपाय दूसरा नहीं हो सकता? चुनाव सुधारों की बात क्यों भुला दी जा रही है? संवैधानिक संस्थाओं को और सुदृढ़ क्यों नहीं बनाया जा रहा है? दल स्वयं अपने भीतर सुधार लाने की बात क्यों नहीं करते? बहुत सारी खामियां उन्हीं की पैदा की हुई हैं.
Prabhat Khabar Digital Desk
Prabhat Khabar Digital Desk
यह प्रभात खबर का डिजिटल न्यूज डेस्क है। इसमें प्रभात खबर के डिजिटल टीम के साथियों की रूटीन खबरें प्रकाशित होती हैं।

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

संबंधित ख़बरें

Trending News

जरूर पढ़ें

वायरल खबरें

ऐप पर पढें
होम आप का शहर
News Snap News Reel