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धूल की चोट

उत्तर भारतीय राज्य फिलहाल मौसम के तेज बदलाव की चपेट में हैं. आंधी-तूफान, बारिश, गर्मी और हवा में धूल के कारण रोजमर्रा का जीवन कठिन हो रहा है. इस बाबत नुकसान के आंकड़े भयावह हैं. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट का आकलन है कि पर्यावरणीय बदलाव के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को हर साल 80 […]

उत्तर भारतीय राज्य फिलहाल मौसम के तेज बदलाव की चपेट में हैं. आंधी-तूफान, बारिश, गर्मी और हवा में धूल के कारण रोजमर्रा का जीवन कठिन हो रहा है. इस बाबत नुकसान के आंकड़े भयावह हैं. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट का आकलन है कि पर्यावरणीय बदलाव के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को हर साल 80 अरब डॉलर का नुकसान होता है.

इस साल अब तक 16 राज्यों में खतरनाक गति के 50 तूफानों से सैकड़ों जानें गयी हैं तथा हजारों घर तबाह हुए हैं. सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्नमेंट का आकलन है कि वर्ष 2003 से 2017 के बीच 22 तेज तूफान आये थे, जबकि 1980 से 2003 के बीच ऐसे तूफानों की तादाद केवल नौ रही थी.

बात सिर्फ तेज तूफानों तक सीमित नहीं. उत्तर भारत के शहर और गांव पूरे साल हवा में बढ़ते धूलकणों के कारण प्रदूषित वायु में सांस लेने को मजबूर है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का आकलन है कि इस साल दिल्ली में मार्च, अप्रैल और मई को मिलाकर सिर्फ एक दिन गुजरा है, जब हवा में मौजूद धूलकण की मात्रा को सेहत के लिए ‘सुरक्षित’ माना गया.

पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हवा में घुले सल्फेट, नाइट्रेट और ब्लैक कार्बन के सूक्ष्म कणों की सालाना मात्रा के औसत के आधार पर बताया था कि दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित वायु से त्रस्त 15 शहरों में से 14 भारत में हैं. इनमें कानपुर और फरीदाबाद जैसे कल-करखानों के शहर भी हैं और शहरी विकास के पैमाने पर पिछड़े बनारस और गया भी.

वक्त बीतने के साथ सघन आबादी के ऐसे इलाकों की संख्या बढ़ती जा रही है और लोगों की सेहत के लिहाज से यह खतरा बहुत बड़ी चिंता का विषय बन गया है. साल 2010 में सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में सिर्फ दिल्ली और आगरा का नाम ही शामिल था. परंतु 2013 से 2015 के बीच वायु प्रदूषण की गंभीर चपेट में आये दुनिया के 20 शहरों में भारत के शहरों की संख्या चार से बढ़कर सात हो गयी.

अनेक वैज्ञानिक शोधों ने इंगित किया है कि हवा में धूलकणों की बढ़ती मात्रा की एक वजह धरती के तापमान में बढ़ोतरी और उससे हो रहा जलवायु परिवर्तन है. पिछले 50 वर्षों में भारत का औसत तापमान करीब 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है और बीसवीं सदी के शुरुआत की तुलना में 1.2 डिग्री सेल्सियस. तापमान की यह बढ़त ग्रीनहाऊस गैसों का भारी उत्सर्जन के कारण हो रही है, जिसका मुख्य स्रोत जीवाश्म ईंधन पर आश्रित हमारी उत्पादन पद्धति है.

उत्तर भारत आर्थिक रूप से पिछड़ा क्षेत्र माना जाता है जहां गरीबी, कुपोषण और बीमारी का भी बसेरा है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान और उससे हो रहे भारी आर्थिक नुकसान को रोकने तथा लोगों को सेहत के संकट से बचाने के लिए सतत और समावेशी विकास की कार्य-योजना अपनाने की जरूरत है जिसमें पर्यावरण की संरक्षा और उसकी बेहतरी का लक्ष्य प्राथमिक हो.

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