।। राजेंद्र तिवारी।।
(कारपोरेट एडिटर, प्रभात खबर)
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का यह हश्र क्यों हुआ, इस पर अनेक विश्लेषण आ चुके हैं और लगातार आ रहे हैं. लेकिन कहीं भी कांग्रेस के भीतर पनपी दो महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों पर बात नहीं हो रही है जो शायद कांग्रेस के इस हश्र के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं. पहली है आंतरिक लोकतंत्र का क्षरण, और दूसरी है अराजनीतिक सोच व कार्यशैली.
यदि देश या कहें भारतीय उप- महाद्वीप के इतिहास को देखा जाये तो लोकतंत्र जैसी कोई व्यवस्था 1947 से पहले इस भू-भाग में कहीं नहीं थी. 1885 में कांग्रेस की स्थापना भारत के लिए कुछ अच्छा सोचनेवाले लोगों के क्लब के रूप में हुई. अपनी स्थापना के करीब 25 साल बाद कांग्रेस देश के पटल पर एक राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरनी शुरू हुई. कांग्रेस की कहानी को लेकर तमाम मत हो सकते हैं, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भारत और यहां के लोगों में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना का काम कांग्रेस ने ही किया. उस समय के अधिकतर दूसरे राजनीतिक संगठन लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से नहीं चलते थे. कांग्रेस में ही निचले स्तर से चुनाव की प्रक्रि या शुरू हुई. चूंकि कांग्रेस का जनाधार बहुत बड़ा था, लिहाजा कांग्रेस के लोकतांत्रिक तौर-तरीकों ने लोगों की सोच में जगह बना ली.
यह सवाल अक्सर उठता है कि भारत व पाकिस्तान एक ही संघर्ष से आजाद हुए, लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि भारत में जहां लोकतंत्र इस तरह जम गया जैसे सदियों से यहां ऐसा ही होता आया हो, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान में लोकतंत्र कभी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया, मिलिट्री एक स्वायत्त पावर सेंटर ही नहीं, बल्कि सबसे बड़े पावर सेंटर के रूप में जम गयी. इसका सिर्फएक ही जवाब है कि बंटवारे के समय पाकिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व उन ताकतों के हाथ में गया, जो लोकतांत्रिक तरीकों से नहीं चलते थे. दूसरी ओर भारत में नेतृत्व कांग्रेस के हाथ आया जिसके नेता लोकतांत्रिक तौर-तरीकों में गहरी आस्था रखते थे. जब तक कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र मजबूत रहा, कांग्रेस एक मजबूत संस्था के तौर पर खड़ी रही.
1971 के बाद, जब कांग्रेस में लोकतंत्र का क्षरण शुरू हुआ तो व्यक्ति जरूर मजबूत रहे, लेकिन संस्था कमजोर होती चली गयी. आज हालात ये हैं कि कांग्रेस का कोई भी नेता ताजा हार के कारणों को लेकर सच नहीं बोल पा रहा, जबकि जानते सब होंगे कि वे इतनी शर्मनाक स्थिति में क्यों पहुंचे. जब सबकुछ एक ही व्यक्ति में केंद्रित हो जायेगा, तो स्वाभाविक है कि नीचे के लोग कुछ भी हासिल करने के लिए उसे ही खुश रखने में लगे रहेंगे और जो ऐसा नहीं कर सकते होंगे, वे हाशिये पर चले जायेंगे.
अब बात करते हैं दूसरी प्रवृत्ति की. कांग्रेस में लोकतंत्र का क्षरण तो तेज हो ही गया था और साथ में राजनीतिक सोच का अभाव भी पिछले चार-पांच सालों में जबरदस्त तरीके से दिखायी दिया. याद करिये 1999 के बाद जब पार्टी खड़ी हुई तब उसको चलाने वाले कौन लोग थे और 2004 में जब कांग्रेस चुनाव जीती, तब कौन लोग थे. और उसके बाद पांच साल तक सरकार चलाने में किस-किस की भूमिका रही. अगर आप देखेंगे तो उस समय खांटी राजनीतिक लोग थे. सीताराम केसरी से लेकर अर्जुन सिंह तक. 2004 में सरकार चलानेवालों में वाम दल, लालू यादव, मुलायम सिंह, ममता, अर्जुन सिंह, प्रणब मुखर्जी जैसे खांटी राजनीतिक जिनसे कहीं न कहीं मनमोहन सिंह को भी ताकत मिलती होगी. लेकिन 2009 के बाद की सरकार से राजनीतिक सोच वाले लोग गायब हो गये. प्रणब मुखर्जी बचे थे, वे भी राष्ट्रपति भवन पहुंच गये. मां-बेटे की राजनीतिक परवरिश थी नहीं. कुछ लोग तर्क देते हैं कि इंदिरा गांधी ने तो जबरदस्त तरीके से राजनीति की. लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि इंदिरा गांधी की परवरिश खांटी राजनीतिक माहौल में हुई. उनका घर देश की राजनीति का केंद्र हुआ करता था और वे खुद उसमें रु चि लेती थीं. राजनीतिक परवरिश संजय गांधी की हुई थी. राजीव गांधी राजनीति से दूर रह कर अपनी दुनिया में मस्त रहते थे, एक अपालिटिकल (अराजनीतिक) व्यक्ति की तरह. संयोग से उन्हें राजनीति में आना पड़ा. लेकिन हश्र क्या हुआ? देश के इतिहास का सबसे बड़ा जनादेश पानेवाले राजीव गांधी पांच साल में ही विलेन बन गये. यहां तक कि बच्चों की जुबान पर भी चढ़ गया कि गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है. और उसके बाद कांग्रेस कभी अपने बूते बहुमत नहीं हासिल कर सकी. राजीव की मौत के बाद सोनिया और उनके बच्चे राजनीति से दूर रहे. करीब सात-आठ साल बाद सोनिया प्रत्यक्ष तौर पर राजनीति में आयीं और उसके पांच साल बाद राहुल. ये लोग अराजनीतिक थे लिहाजा एनजीओ मॉडल से प्रभावित थे. नेशनल एडवाइजरी काउंसिल जिसे सोनिया हेड कर रही थीं, उसमें एनजीओ-वाले ही शामिल थे. कपिल सिब्बल और सलमान खुर्शीद जैसे नेताओं ने अन्ना आंदोलन व बाबा रामदेव को जिस तरह हैंडल किया, उससे उनकी राजनीतिक निपुणता का अंदाजा लगाया जा सकता है. आखिर में प्रणब मुखर्जी ही काम आये. प्रणब को भी राष्ट्रपति भवन भेज दिया गया.
अब प्रधानमंत्री अराजनीतिक, यूपीए अध्यक्ष अराजनीतिक और भावी नेतृत्व भी अराजनीतिक. वैसे राहुल ने अपने अराजनीतिकपने का प्रदर्शन उसी दिन कर दिया था जब उन्होंने अध्यादेश की कापी प्रेस कांफ्रेंस में फाड़ी थी. एक तरफ अराजनीतिक सोच और दूसरी ओर नरेंद्र मोदी जैसा खांटी राजनीतिक. अराजनीतिक लोगों का राजनीति में क्या हश्र होता है, यह समझने के लिए आम आदमी पार्टी का भी उदाहरण सामने है. इस पार्टी की शुरुआत सोनिया की राष्ट्रीय सलाहकार कमेटी में शामिल रहे लोगों ने ही की. दिल्ली विधानसभा में सफलता मिल गयी, लेकिन जब बड़े फलक पर मुकाबला हुआ तो तारे जमीन पर ही दिखायी दिये. आम आदमी पार्टी में तो अच्छे लोग थे जिन पर कोई निजी आरोप नहीं. तो कांग्रेस की सोचिये जिस पर इतने बड़े-बड़े घोटालों के आरोप थे. कांग्रेस का यह हश्र सभी राजनीतिकों के लिए सबक है, उनके लिए भी जो जीत का जश्न मना रहे हैं.
और अंत में..
अज्ञेय की बहुत सी कविताएं ऐसी हैं जिन्हें जब मैंने बचपन में पढ़ा था, तब ही अच्छी लगने लगी थीं. लेकिन क्यों अच्छी लगीं, यह पता बाद में चला जब उनके गहरे राजनीतिक निहितार्थ समझ में आये. पढ़िए, इन्हीं कविताओं में से मेरी पसंद की दो कविताएं-
जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएंगे।
सेनाएं हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएंगे.
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूं–(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डंसना–
विष कहां पाया?