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खासी बदल गयी है यूपी की फिजा

।। कृष्ण प्रताप सिंह।। (वरिष्ठ पत्रकार) लोकसभा चुनाव नतीजों के साथ ही उत्तर प्रदेश की राजनीतिक फिजा खासी बदल गयी है. इसलिए भी कि इतिहास की पुनरावृत्ति करके सपा सुप्रीमो मुलायम की सत्ता भाजपा के लिए एक बार फिर बहुत उपयोगी सिद्घ हुई है. सुविदित है कि प्रदेश में किसी भी दूसरी सरकार के दौरान […]

।। कृष्ण प्रताप सिंह।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

लोकसभा चुनाव नतीजों के साथ ही उत्तर प्रदेश की राजनीतिक फिजा खासी बदल गयी है. इसलिए भी कि इतिहास की पुनरावृत्ति करके सपा सुप्रीमो मुलायम की सत्ता भाजपा के लिए एक बार फिर बहुत उपयोगी सिद्घ हुई है. सुविदित है कि प्रदेश में किसी भी दूसरी सरकार के दौरान मतदाताओं को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने में भाजपा को इतनी सहूलियत नहीं होती. इसी को ध्यान में रख कर अटल के प्रधानमंत्रित्वकाल में वह तीन शर्तो के तहत सपा की सरकार बनवाने की हद तक चली गयी थी. ये शर्ते थीं-सोनिया को छुओ मत, भाजपा को तोड़ो मत और आडवाणी को छेड़ो मत. मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम इन शर्तो का बखूबी पालन करते रहे थे.

दो साल पहले हुए प्रदेश विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिलने पर मुलायम ने अपने बेटे को मुख्यमंत्री बनाया, तो सत्ता पर उसकी ढीली पकड़ का लाभ उठा कर भाजपा उसके शपथ लेने के दिन से ही सपा के मुसलिम-यादव समीकरण को दरकाने में लग गयी थी. यादवों के सांप्रदायीकरण के लिए उसके कार्यकर्ता उनमें प्रचार करते रहे कि अखिलेश की सरकार यादवों की उपेक्षा करके सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को सिर चढ़ाये हुए है. इतना ही नहीं, ‘मुलायम अपने परिवार के बाहर के किसी यादव नेता का कद बढ़ना बर्दाश्त नहीं कर पाते.’

इसके बाद कई उपद्रवों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में यादवों के शामिल होने के मामले आये, तो यूपी सरकार की मुश्किल दोहरी हो गयी. वह यादवों पर कार्रवाई करे, तो वे नाराज हों और न करे, तो अल्पसंख्यक. जब तक वह इससे उबरती, मुजफ्फरनगर में दंगे हो गये और सपा न मुसलिमों की विश्वासभाजन रह गयी, न ही यादवों की, जबकि उसकी धर्मनिरपेक्षता का सारा तकिया इन्हीं दो पर होता था. फिर तो लोकसभा चुनावों में उसे परिवारवाद के घाट पर आत्महत्या की कोशिश को मजबूर होना ही था. उसके पांच नये लोकसभा सदस्यों में मैनपुरी और आजमगढ़ से मुलायम खुद, कन्नौज से उनकी पुत्रवधू डिम्पल, फिरोजाबाद से भतीजे अक्षय यादव और बदायूं से धर्मेद्र यादव जीते हैं. यानी परिवार बच गया, लेकिन पार्टी नहीं बच पायी है! कहां तो मुलायम मोदी का विजयरथ रोकने के लिए आजमगढ़ से चुनाव लड़ने आये थे और कहां 2009 में जीती 18 सीटें गंवा कर खुद ही हारते-हारते बचे! मजाक करनेवाले कहते हैं कि बिहार के लालू यादव से तो उनकी हालत अच्छी ही है, जो अपनी बेटी व पत्नी को भी नहीं जिता पाये!

दूसरी ओर बसपा की बेमिसाल कही जानेवाली सोशल इंजीनियरिंग और दलित ब्राह्मण व अल्पसंख्यक गठजोड़ की महत्वाकांक्षी कवायद इसलिए बेकार हो गयीं कि कांग्रेस को मिटती और भाजपा को मोदी के कारण पिछड़ों व अति पिछड़ों के वोट पाती देख कर सवर्णो ने खुद को उसके झंडे तले लामबंद कर लिया. दो करोड़ तीस लाख वोट पा कर भी बसपा खाता नहीं खोल पायी, तो मायावती भले कह रही हैं कि इसका कारण ब्राह्मणों व मुसलमानों का गुमराह हो जाना है, लेकिन राजनीतिक हलकों की चर्चाओं में यह भी कहा जा रहा है कि इसके लिए उनके द्वारा भाजपा के प्रदेश प्रभारी अमित शाह से किया गया ‘मिल कर सपा को निपटा देने का’ गुप्त समझौता जिम्मेवार है. शायद इसी समझौते से यह चमत्कार संभव हुआ कि बसपा के जिस वोटबैंक में दलितों के घर जाने, रात बिताने और खाना खाने के बावजूद राहुल गांधी किंचित दरार नहीं डाल पाये, उसे भाजपा ने चुटकियां बजाते संभव कर डाला! मायावती समझती थीं कि समझौते के तहत ज्यादा-से-ज्यादा ब्राrाण भाजपा में जायेंगे, दलित तो बसपा में बने ही रहेंगे. ठीक इसके उलट जब दलित भी टूटने लगे तो मायावती चेतीं, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.

मोदी अपने पूरे प्रचार अभियान में कांग्रेस को मां-बेटे और सपा को बाप-बेटे की पार्टी कहते रहे. मतदाताओं ने केवल सोनिया व राहुल को जिता कर उसे सचमुच मां-बेटे की पार्टी बना डाला! सपा के बाप-बेटों में अखिलेश मैदान में ही नहीं थे और मुलायम जीते, लेकिन लोकदल के बाप-बेटों अजित और जयंत चौधरी में कोई पार नहीं उतर पाया.

अब हारे हुओं द्वारा बहाने बनाना और ठीकरे फोड़ना शुरू हो गया है. लेकिन विजनरी नेताओं का अकाल है, इसलिए आगे की राह दिखाई नहीं दे रही. कांग्रेस में आसन्न भगदड़ रोकने के लिए फिर से प्रियंका राग शुरू हो गया है, तो मुलायम की तात्कालिक प्राथमिकता अखिलेश की सरकार को हार के कहर से बचाना है. नीतीश के बाद उन पर भी नैतिक आधार पर इस्तीफे का दबाव है. बसपा के लिए यह हार करारी होकर भी शिकस्तों के सिलसिले की एक कड़ी भर है. फिलहाल, लगता है कि ये सब चुपचाप भाजपा के जनादेश की चमक फीकी पड़ने और मोदी की सरकार द्वारा गलतियां शुरू करने का इंतजार करेंगे. राममंदिर वाले भाजपा के स्वर्णकाल में भी इन्होंने ऐसा ही किया था.

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