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विश्वपटल पर भारत की छवि
II मनींद्र नाथ ठाकुर II एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com अंतरराष्ट्रीय जगत में किसी देश की छवि का क्या महत्व है? क्या भारत को इसके लिए सचेत होना चाहिए? हमें आज के युगधर्म को ठीक से समझना चाहिए. यह समय सिमटते संसार का है. मनुष्य ने दुनिया को मुट्ठी में तो कर लिया है, लेकिन इससे […]
II मनींद्र नाथ ठाकुर II
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
अंतरराष्ट्रीय जगत में किसी देश की छवि का क्या महत्व है? क्या भारत को इसके लिए सचेत होना चाहिए? हमें आज के युगधर्म को ठीक से समझना चाहिए. यह समय सिमटते संसार का है. मनुष्य ने दुनिया को मुट्ठी में तो कर लिया है, लेकिन इससे वह खुद भी दुनिया की मुट्ठी में आ गया है.
संचार के माध्यमों ने हमें सूचनाओं के हाईवे पर लाकर खड़ा कर दिया है. ऐसे में हम किसी मुद्दे पर क्या सोचते हैं, उसे किस तरह से हल करना चाहते हैं, इन बातों को केवल स्थानीय स्तर पर ही नहीं सोच सकते. उसे विश्व के व्यापक फलक पर और दुनिया में स्थापित मान्यताओं की कसौटी पर कसकर देखने की जरूरत है. लेकिन, भारत में अभी तक यह प्रवृत्ति बन नहीं पायी है. नतीजतन, यहां के समाज के आंतरिक विरोधाभाषों के कारण देश की छवि दुनियाभर में धूमिल हो रही है. अब सवाल है कि इन विरोधाभासों को कम करें या फिर इसे दुनिया से छुपाने का प्रयास करें?
पिछले कुछ दिनों में भारत अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी छवि को सुधारने में लगा है. प्रधानमंत्री ने कई बार अपने भाषण में कहा है कि भारत अब संपेरों का देश नहीं रहा और अब हमारे बच्चे कंप्यूटर ‘माउस’ से खेलते हैं.
सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी में हम सिद्धहस्त हो गये और दुनिया हमारा लोहा मानने लगी. हमारी इज्जत थोड़ी बढ़ी थी. विदेशियों को यह लगने लगा था कि भारत एक पुरानी सभ्यता है और इसमें अपने आप को आधुनिक बनाने की असीम क्षमता है. योग, दर्शन, आयुर्वेद आदि के माध्यम से हम लोगों को यह बताने में सफल थे कि हम आधुनिकता को अपनी सभ्यता में समेटने की मंशा और क्षमता दोनों रखते हैं.
लेकिन, हम केवल सॉफ्ट पावर के दबदबे से दुनिया के विकसित देशों में शामिल नहीं हो सकते हैं या फिर पुरानी सभ्यता के बल पर विश्वगुरु नहीं बन सकते हैं. हमें सभ्यता के आज के मापदंडों पर भी खरा उतरना पड़ेगा.
पिछले कुछ वर्षों में तो हद ही हो गई है. हमारा व्यवहार असभ्य समाज की तरह ज्यादा रहा है. कानून का राज जैसे खत्म ही हो गया है. चौक-चौराहे पर उन्मत्त भीड़ के द्वारा लोगों की हत्याएं हो जा रही हैं. कारण चाहे जो भी हों, भीड़ के द्वारा की जानेवाली हत्याओं का मनोविज्ञान एक जैसा ही है.
या तो हमारे समाज में राज्य की सता खत्म हो गयी है या फिर उस पर जनता का विश्वास नहीं रहा है. ऐसा भी हो सकता है कि हम कभी जनतांत्रिक समाज थे ही नहीं. जनतंत्र केवल एक राजनीतिक व्यवस्था मात्र बन पायी थी. समाज अब भी सामंती और हिंसक है.
जनतंत्र तो स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की कोरी कल्पना मात्र थी, जो चुनाव तक सीमित हो कर रह गयी! संभव है आर्थिक मंदी के दौर में हम बेचैन हैं और जनतांत्रिक मूल्यों की जड़ें गहरी न हो होने के कारण हम हिंसक हो जाते हैं.
हम कितना घृणित हो सकते हैं, इसकी सीमा का ही पता नहीं चल रहा है. आये दिन छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की खबरें आती हैं. इस पर राजनीति गरम होती रहती है. क्या किसी भी समाज में बच्चियों के साथ बलात्कार को किसी भी आधार पर जायज ठहराया जा सकता है?
जी हां, यहां इसे भी विचारधारा की लड़ाई में बदलते आप देख सकते हैं. दुनियाभर में संपेरों की कहानियों के बाद अब घृणित से घृणित बलात्कारों की कहानियां भी हमारे नाम से लिखी जा सकती हैं. हमने बंटवारे के दौर की नफरत को झेला है, लेकिन उससे सबक नहीं सीखा है.
हम कोई ऐसी राजनीतिक व्यवस्था नहीं बना पा रहे हैं, जिसमें न्याय संगत समाज की कल्पना की जा सके. वर्षों यही तय करने में लग जाता है कि अपराधी कौन है. दबंग लोग इस व्यवस्था का सहारा लेकर न्याय को ठेंगा दिखाते रहते हैं.
राजनीति में नीतियां नहीं केवल वे प्रवृत्तियां हैं, जिसे मानवीय मूल्यों के विपरीत देखा जा सकता है. यदि समाज में जनतांत्रिक मूल्यों की जड़ें गहरी न हों, तो फिर राजनीति कैसी हो सकती है, राजनेता कैसे हो सकते हैं? सरसरी तौर पर देखने से तो यही लगता है कि ज्यादातर गंभीर मामलों में या तो राजनेता स्वयं फंसे रहते हैं या फिर उनके परिवार के लोग. और सत्ता के मद में चूर ऐसे लोग कानून का अपने अनुसार उपयोग भी कर लेते हैं.
कभी-कभी लगता है कि कवि ने ठीक कहा है कि ‘लाज लजाती जिसकी कृति से, धृति निर्माता वो है’, तो फिर हमारा समाज किधर जा सकता है. समझना यह भी होगा कि आखिर हम सबके नसीब में ऐसे राजनेता क्यों हैं, जिनकी अपनी नैतिकता पर ही प्रश्नचिह्न लगा हो. क्या इनके भरोसे हम अपने राष्ट्र की छवि को ठीक कर सकते हैं?
भारत में राजनेताओं की नयी पौध की जरूरत है. राजनीति की पारिवारिक परंपरा हो या न हो, विचारधारा और संगठन हो या न हो, नेतृत्व को नैतिकता के मापदंड पर सबसे पहले सही होना चाहिए. जनता का प्रतिनिधि बनने की उनकी पात्रता का कोई मापदंड तय होना चाहिए.
और यदि हो सके तो यही एक आधार होना चाहिए जनप्रतिनिधि को चुनने का. लेकिन, क्या यह संभव है? यदि जनता में ही सभ्यता का मापदंड नहीं हो, यदि समाज में ही नैतिकता खत्म हो गयी हो, तो फिर इसका क्या निराकरण हो सकता है?
अपने समाज को ठीक करने के लिए जिस नेतृत्व की हमें खोज करनी है, उसका मिलना तो शायद मुश्किल है, लेकिन समाज के प्रबुद्ध नागरिकों, बुद्धिजीवियों, जन-आंदोलनों के नायकों, कलाकारों आदि को यह दायित्व अपने ऊपर लेना होगा. उनके अंदर राजनीति को लेकर जो विक्षोभ है, उससे बाहर निकलना होगा. नये प्रयोग करने होंगे.
समाज में नैतिकता का एक आंदोलन चलाना होगा. आज के दौर में ये बातें अजीब लग सकती हैं, लेकिन यदि हमें बदलाव लाना है, तो इतना तो करना ही होगा. भारतीय संस्कृति के उन्नायकों को यह भी समझना होगा कि केवल संस्कृति पर आधारित राजनीति से हम विश्वगुरु नहीं बन सकते हैं. दुनिया को कुछ अनुकरणीय दे सकें, तभी हमारी संस्कृति का भी कोई महत्व हो सकता है.
जनतंत्र को जनसंस्कृति बनाना होगा. हमें लोगों का, धर्मों का, अलग-अलग संस्कृतियों का सम्मान करना सीखना होगा. इनके बीच जो विषमताएं हैं, संवाद से उनका समाधान करना होगा. ऐसा करना कठिन जरूर है, पर असंभव नहीं है. हमारी संस्कृति, हमारी ज्ञान परंपराओं में इसकी असीम संभावनाएं हैं. जरूरत है उन्हें समझने और उनका उचित उपयोग करने की, न कि उसे महान बताकर उस पर राजनीति करने की.
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