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केजरीवाल भी मोदी की राह पर!

।। सुभाष गाताडे।। (सामाजिक चिंतक) लोकसभा चुनाव में अब सभी की निगाहें वाराणसी की तरफ हैं, जहां भाजपा नेता नरेंद्र मोदी को चुनौती देते हुए ‘आप’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल मैदान में हैं. केजरीवाल ने अपनी चुनावी मुहिम का आगाज गंगा स्नान से किया है और अपने बनारस संकल्पपत्र में शहर को ‘पवित्र नगरी’ का […]

।। सुभाष गाताडे।।

(सामाजिक चिंतक)

लोकसभा चुनाव में अब सभी की निगाहें वाराणसी की तरफ हैं, जहां भाजपा नेता नरेंद्र मोदी को चुनौती देते हुए ‘आप’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल मैदान में हैं. केजरीवाल ने अपनी चुनावी मुहिम का आगाज गंगा स्नान से किया है और अपने बनारस संकल्पपत्र में शहर को ‘पवित्र नगरी’ का दर्जा दिलाने का ऐलान भी किया है. प्रश्न उठना लाजिमी है कि एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क में, जहां विभिन्न धर्म एवं संप्रदायों की सहअस्तित्व की परंपरा है, इस किस्म का नारा समाज को आगे ले जाने का नारा है या पीछे ले जाने का?

कहा जाता है कि धर्म और राजनीति के बीच का रिश्ता एक तरह से पवित्र और सेक्युलर के बीच के रिश्ते की तरह होता है. साढ़े छह दशक पहले- बंटवारे के बाद के रक्तरंजित वातावरण में- संविधान निर्माताओं ने यह कठिन संकल्प लिया कि वह धर्म एवं राजनीति के बीच के अलगाव को सुनिश्चित करेंगे. इस संकल्प के बावजूद ऐसे अवसर आते गये हैं, जब इस अलगाव की दीवारें टूटी हैं, जब नगरों को धर्म/संप्रदाय विशेष के लिए ‘पवित्र’ घोषित किया गया है. विभिन्न धर्मो, संप्रदायों, रुझानों से बने शहर बनारस में हिंदुओं एवं बौद्धों के ही सर्वोत्कृष्ठ स्थान नहीं हैं, बल्कि जैनियों के कई र्तीथकरों के जन्मस्थान भी हैं, इसलाम को माननेवालों के भी कुछ अहम स्थान हैं. जिस नगरी ने कबीर, रैदास एवं तुलसी जैसे महान संतों को जन्म दिया और 1950 के दशक में पारसी समुदाय की बहुत कम आबादी के बावजूद रुस्तम सैटिन नामक पारसी कम्युनिस्ट नेता को शानदार ढंग से जिताया, उसकी साझी संस्कृति को ‘पवित्र नगरी’ का ओहदा देकर किसी खास इकहरी संस्कृति में ढालने का संकल्प गुणात्मक रूप में उन लोगों से कहां भिन्न है, जो अपने को बहुसंख्यक समुदाय के ‘हृदय सम्राट’ होने का दावा करते हैं और एक भाषा, एक जन और एक संस्कृति के नारे के तहत आगे बढ़ रहे हैं!

वैसे इस मामले में केजरीवाल अकेले नहीं हैं. कुछ साल पहले चुनावी आपाधापी में मध्य प्रदेश के मंत्री एवं पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौड़ की तरफ से जारी एक आदेश में भाजपा सरकार द्वारा ‘पवित्र नगरी’ घोषित चंद नगरियों के बारे में विशेष सूचना प्रकाशित की गयी थी, जिसमें वहां के निवासियों के तौर-ए-जिंदगी को लेकर कुछ दिशा-निर्देश थे. मसलन, ‘पवित्र नगरियों’ में अंडे, मीट-मछली जैसे मांसाहारी खाद्य पदार्थो की बिक्री संभव नहीं होगी आदि. एक तरह से वह अपनी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती के कार्य को आगे बढ़ा रहे थे, जिन्होंने 2003 के अंत में, जब वे मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, अमरकंटक तथा अन्य ‘धार्मिक नगरों’ में मांस-मछली आदि ही नहीं, बल्कि अंडे की बिक्री एवं सेवन पर पाबंदी लगा दी थी. उसी वक्त यह प्रश्न उठा था कि किस तरह एक ही तीर से न केवल गैर हिंदुओं को, बल्कि हिंदू धर्म को माननेवालों के बहुविध दायरे पर भी अल्पमत वर्ण हिंदुओं का एजेंडा लादा जा रहा है. सभी जानते हैं कि हिंदुओं का अल्पमत ही पूर्णत: शाकाहारी है, व्यापक बहुमत मांसाहार करता है, अंडों का सेवन करता है. यह अकारण नहीं कि आंबेडकरी आंदोलन से संबद्धता रखनेवालों ने भाजपा सरकार के इस कदम को एक तरह से ‘ब्राrाणवादी हिंदू धर्म’ को लादने का प्रयास घोषित किया था.

एक बहुधर्मीय, बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक एवं बहुनस्लीय मुल्क में बहुसंख्यक समुदाय के धर्म के हिसाब से ‘पवित्रता’ को परिभाषित करने का काम सिर्फ घोषित हिंदूवादी पार्टियां ही नहीं करती हैं. जिन दिनों पंजाब में अतिवादी सिख नेता भिंडरावाले की गतिविधियों ने जोर पकड़ा था, उन दिनों उनकी तरफ से भी इसी किस्म की ‘आचार संहिता’ लागू कराने की बात की जा रही थी. अमृतसर में तथा सिखों के लिए पवित्र अन्य स्थानों पर खाने-पीने की किस तरह की चीजें बिक सकती हैं या नहीं, इस बारे में फरमान भी उनकी ओर से जारी हुए थे.

वाय एस राजशेखर रेड्डी जिन दिनों अविभाजित आंध्र सरकार के मुख्यमंत्री थे, तिरुमला-तिरूपति और राज्य के 19 अन्य चर्चित मंदिरों वाले नगरों में गैर हिंदू आस्थाओं के प्रचार-प्रसार पर पाबंदी लगाने के अध्यादेश और उसी से संबधित दो सरकारी आर्डर (जीओ) जारी किये गये थे. उसी वक्त विश्लेषकों ने इसे ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रों’ की तर्ज पर ‘विशेष धार्मिक क्षेत्रों’ के निर्माण की योजना के तौर पर संबोधित किया था, जहां अन्य धर्मियों की गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी हो.

एक बहुधर्मीय समाज में एक विशेष धर्म को माननेवालों के आचार-विचारों को ‘पवित्रता’ के आधार पर वरीयता प्रदान करना हिंदुस्तान एवं अन्य दक्षिण एशियाई मुल्कों के विशिष्ट इतिहास को भी नकारता है, जहां विभिन्न आस्थाओं को माननेवालों की आपसी अंतक्र्रिया ने साझी संस्कृति का आविष्कार किया, जहां सूफी संप्रदाय का विकास हुआ. सबसे बढ़ कर यह अवधारणा आस्था के अधिकार को नकारती है.

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