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भारत-इस्राइल संबंधों के आयाम
पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भारत-यात्रा ने एक बार फिर इस बहस को गर्म कर दिया है कि क्या मोदी सरकार पश्चिम एशिया में भारत की पारंपरिक नीति को बुनियादी तौर पर बदल रही है और अपने पुराने फिलीस्तीनी मित्रों को छोड़ इस्राइल को गले लगा रही है? […]
पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भारत-यात्रा ने एक बार फिर इस बहस को गर्म कर दिया है कि क्या मोदी सरकार पश्चिम एशिया में भारत की पारंपरिक नीति को बुनियादी तौर पर बदल रही है और अपने पुराने फिलीस्तीनी मित्रों को छोड़ इस्राइल को गले लगा रही है?
जब भी कोई बड़ा नेता हमारा मेहमान होता है या मोदी स्वयं विदेश-यात्रा कर रहे होते हैं, तो व्यक्तिगत डिप्लोमेसी बड़ी गर्मजोशी के साथ संपादित होता है. गले मिलना देर तक हाथ मिलाना एक-दूसरे की प्रशंसा के साथ-साथ मजाहिया जुमलेबाजी और अनौपचारिक याराना ढंग से संबोधित करना बहुचर्चित रहा है. दो करिश्माई ताकतवर नेताओं के बीच व्यक्तिगत ‘रसायन’ के समीकरणों को अंतरराष्ट्रीय राजनय के विद्वान विशेष महत्व नहीं देते.
अधिकांश यथार्थवादी विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रहित ही अंततः दो देशों के बीच संबंधों को निर्धारित करते हैं. अतः शुरू में ही यह बात साफ करना आवश्यक है कि इस्राइली नेता की भारत-यात्रा को अनावश्यक तूल नहीं देना चाहिए. जब चीनी सदर शी भारत आये थे, तब से अब तक यह बात कई बार दोहरायी जा चुकी है- इससे राजनयिक सक्रियता का आभास तो होता है, पर यह दावा प्रमाणित करना एक चुनौती बना रहता है कि किस मेजबानी या मेहमानी की लाभ-लागत क्या रही है.
सबसे पहली बात यह समझने की है कि जब से एनडीए के पहले शासनकाल में भारत के संबंध अमेरिका के साथ प्रगाढ़ और बहुआयामी बने हैं, तब से उसने वामपंथी समाजवादी विचारधारा का बोझ अपने कंधों से खुशी-खुशी उतार दिया है. इसके साथ ही समाजवादी तेवर वाले फिलीस्तीनियों के साथ भी भाईचारे के रिश्ते में रेशम के धागे में गांठ जैसी हालत पैदा हो गयी है.
लंबे समय तक चुनावी राजनीति में भारत के अल्पसंख्यक मुस्लिम मतदाता को रिझाने के लिए भारत सरकार फिलीस्तीनियों के साथ अपने विशेष संबंधों को रेखांकित-प्रचारित करती रही थी, जिसकी कोई जरूरत आज उसे बदले संदर्भ में महसूस नहीं होती. हम बेहिचक अमेरिका को अपना सामरिक साझेदार स्वीकार करते हैं और इसी कारण उसके साथी संधिमित्र सरीखे इस्राइल के साथ भी संबंधों को निरंतर सुधारने में किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता.
अरब जगत में भी भारत सऊदी अरब और खाड़ी देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों को ईरान के साथ अपने सांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों पर, अवसरवादी कहे या अति यथार्थवादी नजरिये से, तरजीह देता रहा है. जो लोग भारतीय विदेश-नीति और डिप्लोमेसी पर पैनी नजर रखते हैं, उनका मानना है कि इस्राइल के साथ हमारे संबंध पिछले कई दशक से- यूपीए के शासनकाल में भी पहले सामान्य, फिर घनिष्ठ होते रहे हैं. भारत ने बड़े कौशल से अरबों-ईरानियों व इस्राइल के साथ एक नाजुक संतुलन बनाये रखा है.
आज जब यह चर्चा हो रही है कि भारत ने कितने दर्जन सौदे और समझौते नेतन्याहू की यात्रा के बाद इस्राइल के साथ किये हैं, हम इस बात को कतई नजरअंदाज नहीं कर सकते कि इन सौदों औैर समझौतों की संख्या चाहे कितनी ही बड़ी हो, इनकी कोई तुलना उन सैनिक साजो-सामान की खरीदारी से नहीं की जा सकती, जिन्हें हम इस्राइल से हासिल करते हैं.
आज रूस, यूरोपीय समुदाय या अमेरिका की भी तुलना में इस्राइल सामरिक खरीद-फरोख्त में हमारे लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. आइटी या बीटी के क्षेत्र में जिन समझौतों पर हस्ताक्षर हो रहे हैं, वह भविष्य में इस सामरिक रिश्ते को और पुख्ता करेंगे. भारतीय राजनय यह संकेत देना चाहता है कि इस्राइल के साथ हमारी दोस्ती सिर्फ अपने दुश्मनों की नाक में नकेल कसने के लिए नहीं, बल्कि दोनों देशों में बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के लिए है.
इस बात को स्वीकार करने में किसी को हिचक नहीं होनी चाहिए कि इस्राइल विज्ञान के सीमांत क्षितिजों पर काम करने में किसी से पीछे नहीं. बंजर धरती को उर्वर बनाना हो या प्राणरक्षक औषधियों का आविष्कार, शल्य चिकित्सा हो या सैद्धांतिक शोध को समुचित तकनीक के साथ जोड़ उसका प्रयोग, इस्राइल का लोहा अमेरिका भी मानता है.
अपनी ऐतिहासिक- मिथकीय विरासत और धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान को बरकरार रखने का इस्राइली हठ उनके राष्ट्रवाद के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है. इसलिए वर्तमान भारत सरकार के कट्टर राष्ट्र प्रेम, पौराणिक रुझान के कारण भी इस्राइल के आकर्षण में वृद्धि हुई है. इस्राइल के विभिन्न जातियों, भाषाओं वाले ‘शरणार्थियों’ को एक सांचे में ढाल समरस नागरिक बनानेवाला इस्राइल अभियान भी एक खास साम्य को उजागर करता है, जो कुछ को चिंताजनक लग सकता है.
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में जेरुसलम राजधानी प्रसंग में इस्राइल के विरुद्ध मतदान के बाद भी क्यों भारत के साथ उसके संबंधों में कोई अंतर नहीं पड़ा है? इसके लिए बहुत दूर की कौड़ी लाने की जरूरत नहीं. इस्राइली राजधानी को स्थानांतरित करने के अमेरिकी फैसले का समर्थन उनके यूरोपीय संधि मित्रों ने भी नहीं किया है. इस्राइल समझता है कि वह भारत से तत्काल किसी ऐसे फैसले की उम्मीद नहीं कर सकता, जो सरकार के लिए क्लेशदायक हो.
उसके लिए इतना काफी है कि भारत का बाजार उसके लिए खुल रहा है और तकनीकी क्षेत्र में सहकार की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं. वह लगभग आधा सदी तक भारत के साथ संबंधों में सुधार के लिए बड़े धीरज से प्रतीक्षारत रहा है और अब भी कोई उतावली नहीं दिखाना चाहता.
हमारी समझ में भारत के साथ इस्राइल के संबंध राष्ट्रहित के एक संयोग पर टिके हैं, जो आनेवाले वर्षों में इनको और भी मजबूत बनायेगा. राष्ट्रहित का यह सन्निपात कट्टरपंथी इस्लामी आतंकवाद की चुनौती से एक-साथ जूझनेवाला है. मुंबई में आतंकवादी हमले के शिकार यहूदियों के कारण कुछ ऐसी दुखद यादें हैं, जिन पर मरहम लगानेवाले को खलनायक के रूप में देखना कठिन हो जाता है.
पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने भी इन मासूमों की ‘शहादत’ का उल्लेख अपनी भारत-यात्रा के दौरान किया था और मोदी ने भी अपनी इस्राइल यात्रा के दौरान उस मासूस बच्चे को सांत्वना दी थी और प्रोत्साहित किया था, जो इस खून-खराबे का शिकार करने के बाद इस्राइल में ही रह रहा है. इसलिए यह सुझाना तर्कसंगत है कि इस यात्रा के दौरान किसी एक समझौते को या तमाम समझौतों के जोड़ को भी इस बुनियादी राष्ट्रहित के संगम से अधिक महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता.
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