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वाह! धूप
कविता विकास स्वतंत्र लेखिका प्रकृति की मार आमो-खास पर एक सी पड़ती है- बिना किसी भेदभाव के. साधनों से लैस आदमी या तो सर्दी में गर्मी या गर्मी में भी सर्दी का एहसास कर सकता है, पर कुछ चीजों की चाह में वह भी अन्य प्राणियों की तरह मासूम बन जाता है. ऐसी ही एक […]
कविता विकास
स्वतंत्र लेखिका
प्रकृति की मार आमो-खास पर एक सी पड़ती है- बिना किसी भेदभाव के. साधनों से लैस आदमी या तो सर्दी में गर्मी या गर्मी में भी सर्दी का एहसास कर सकता है, पर कुछ चीजों की चाह में वह भी अन्य प्राणियों की तरह मासूम बन जाता है. ऐसी ही एक चाह होती है, जाड़े में नर्म-मुलायम, गुनगुनी सी धूप की. कोहरे की चादर में लिपटी दिल्ली हो या उत्तर भारत में सर्द की मार झेलता कोई भी शहर या गांव, लोग टकटकी बांध सूरज की किरणों का इंतजार करते हैं.
आज से तीन-चार दशक पहले की ठंड को याद करें. आंगन में सूरज की किरणें जैसे ही पड़ीं कि दादी-नानी गरम कपड़ों और रजाई को चटाई पर निकालना आरंभ कर देतीं.
मां के अचार, पापड़, बड़ियां धूप में सूखने के लिए रख दिये जाते. धीरे-धीरे पूरा कुनबा आंगन में सिमट जाता. बेटी के बालों में तेल लगा कर लंबी चोटियां गूंथी जातीं. बच्चों के कोलाहल से आंगन तो आंगन, गलियां भी गुलजार हो जातीं.
आस-पड़ोस के लोग भी जमा हो जाते. छोटे मसलों के हल निकाले जाते, तो बेटी की शादी जैसे बड़े मसलों पर भी निर्णय ले लिये जाते थे. बच्चे घरेलू खेलों मसलन, पिट्टू, गिल्ली-डांडा, लाल मोहन आदि में व्यस्त हो जाते.
तब तनाव कम थे, मित्रता और रिश्ते-नातों में जो सामंजस्य था, वही समय बिताने का साधन भी. जैसे-जैसे फ्लॅट कल्चर ने पांव पसारना शुरू किया, धूप तो लुप्तप्राय हो ही गयी, सामाजिकता का यह बोध भी बीते दिनों की कहानी बन कर रह गया. यह तो बच्चों की मासूम हरकतें हैं, जो कभी-कभार अकेलेपन की परिधि में सेंध लगाकर लोगों को मिलवाने का काम करती हैं. गगनचुंबी इमारतों के कबूतरखाना नुमा फ्लैट्स में छिटपुट धूप को पकड़ते हुए सामने के अहाते में बच्चे-बूढ़े, छोटे-बड़े लोगों का जमावड़ा लग जाता है. आदतन बच्चों को बच्चे ही भाते हैं.
अपनी साइकिल छोड़ दूसरे बच्चे की साइकिल पर बैठने की जिद, दूसरे की सैंडविच को ललचाई नजरों से देखना, ऐसी हरकतें हैं कि उनके पैरेंट्स को आपस में बातें करनी ही पड़ती हैं. लेन-देन और हल्के-फुल्के संवाद धीरे-धीरे खुलते जाते हैं. जब पता चलता है, अमुक फ्लैट वाले अपने ही प्रांत से हैं, तो फिर अपनत्व और सामाजिकता का ताना-बाना सुदृढ़ हो जाता है.
करिश्माई तो यह धूप ही है, जो खत्म होते जा रहे संवाद को पुनर्जीवित करती है और आधुनिक ज्ञान से उपजे उस अभिजात्य वर्ग को जो समाजीकरण को गंवारू शैली का द्योतक मानता है, उसे अपनी गर्माहट से पिघलाने का प्रयास करती है. रिश्तों की नरमी का एहसास है यह धूप. अनोखी है यह धूप. हर दिल अजीज भी है यह धूप. हम तो गमलों में पल रहे कैक्ट्स हैं, सुखों की कंटीली बाड़ से घिरे हैं. जिन प्रस्तर प्राणों ने देखा नहीं आंगन, वे आखिर धूप की गर्माहट और उसके गुनगुनी चमत्कार को क्या जानें!
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