भारत समेत पूरी दुनिया में एंटीबायोटिक प्रतिरोधण क्षमता बढ़ने से बीमारियों के उपचार में बड़ी मुश्किलें खड़ी हो रही हैं. रोगों के लिए जिम्मेदार कीटाणु, विषाणु और कुछ परजीवी तत्वों पर एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर होती जा रही हैं. मई, 2015 में जेनेवा में आयोजित विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन में इस चुनौती की गंभीरता को रेखांकित करते हुए एक वैश्विक कार्यक्रम तैयार किया था.
उसी कार्यक्रम के सिलसिले में दुनियाभर में 13 से 19 नवंबर तक विश्व एंटीबायोटिक सप्ताह मनाया गया. एंटीबायोटिक के नाकाम रहने के कारण बीमारियां बढ़ जाती हैं और जानलेवा हो जाती है. माना जाता है कि दुनिया में सात लाख से अधिक मौतें सिर्फ इस वजह से होती हैं और यह संख्या आगामी तीन दशकों में एक करोड़ तक पहुंच सकती है. लोगों और पशुओं के साथ कृषि में भी एंटीबायोटिक के व्यापक इस्तेमाल के चलते यह स्थिति पैदा हो रही है और अगर इसे रोका नहीं गया, तो जल्दी ही इलाज का कोई मतलब नहीं रह जायेगा तथा साधारण रोग भी महामारी का रूप लेकर कहर ढा सकते हैं.
इस समस्या से आर्थिक दबाव भी बढ़ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक इस सदी के मध्य तक सकल वैश्विक उत्पादन में 3.8 फीसदी की कमी एंटीबायोटिक प्रतिरोध की मुश्किल के कारण आ सकती है. अभी कुछ दिन पहले आयी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हमारे देश में संक्रामक रोग घातक सिद्ध हो रहे हैं. गर्म जलवायु, स्वच्छता का अभाव, प्रदूषण आदि के कारण बैक्टीरिया-जनित रोग आम हैं. ऐसे में लोग सामान्यतः बिना डॉक्टर से परामर्श किये दवा दुकानों से एंटीबायोटिक लेकर खा लेते हैं.
इस प्रवृत्ति का एक कारण यह भी है कि हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता समुचित नहीं है. पशुओं के इलाज में और उनका वजन बढ़ाने के लिए भी एंटीबायोटिक दिया जाता है.
उनके दूध और मांस के जरिये वह लोगों तक भी पहुंच रहा है. खेती में रसायनों के भरपूर उपयोग ने भी संकट को गहन करने में योगदान दिया है. एंटीबायोटिक के धड़ल्ले से प्रचलन से बैक्टीरिया और वायरस धीरे-धीरे उनके अभ्यस्त होने लगते हैं तथा उसके प्रतिरोध की क्षमता विकसित कर लेते हैं. ऐसे बैक्टीरिया या वायरस से पीड़ित व्यक्ति जब गंभीर रूप से बीमार होता है और उसे एंटीबायोटिक दवाएं दी जाती हैं, तो उनका असर नहीं होता. इस हालत में डॉक्टरों के पास भी कोई चारा नहीं होता है.
भारत जैसे विकासशील देश, जिसकी अधिकांश आबादी युवा है, ने अगर समय रहते कदम नहीं उठाया, तो हालात बेकाबू हो सकते हैं. चूंकि यह समस्या वैश्विक है, ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परस्पर सहयोग से ही बात बनेगी. लोगों को अपने मन से दवा लेने से परहेज करना चाहिए तथा सरकारों, डॉक्टरों और मीडिया को इस संबंध में जागरूकता का प्रसार करना चाहिए.