।। पुष्परंजन।।
(ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक)
पाकिस्तान इस समय बहुत प्रसन्न है. उसकी प्रसन्नता का कारण चीन द्वारा निरस्त वह प्रस्ताव है, जिसमें भारत ने ल्हासा में भारतीय महावाणिज्यदूत कार्यालय खोलने की मंशा जाहिर की थी. चीन, चेन्नई में यही सुविधा चाहता है. लेकिन अब लगता है कि चुनाव बाद ही नये सिरे से इस विषय पर बातचीत होगी. चीन की चिंता भारत का चुनाव परिणाम है. यह इसी का ‘साइड इफेक्ट’ है कि सरकार समर्थक चीनी दैनिक ‘ग्लोबल टाइम्स’ को भाजपा प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी से साक्षात्कार लेने की जरूरत पड़ गयी. 21 अप्रैल के साक्षात्कार में नकवी ने स्पष्ट किया कि यदि भाजपा की सरकार बनी, तो भी भारत की चीन नीति में कोई फेर-बदल नहीं होगी. हम चीन से बेहतर संबंध चाहेंगे. अब प्रश्न यह है कि चीनी मीडिया, यही साक्षात्कार कांग्रेस या दूसरे दलों के प्रवक्ताओं से क्यों नहीं लेता?
चीन और भारत ने 2014 को ‘मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदान’ का वर्ष माना है. चुनाव बाद चीन के राष्ट्रपति शी चिनपिंग भारत आयेंगे, और यहां के नये शासनाध्यक्ष से मिलेंगे. लेकिन उनके पधारने से पहले क्या चीन ‘मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदान’ की दिशा में आगे बढ़ रहा है? अगले महीने ही भारतीय युवाओं का एक दल ‘मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदान’ कार्यक्रम के जानिब से पेइचिंग जानेवाला है. लेकिन भारतीय विदेश मंत्रलय पसोपेश में है कि भारतीय युवाओं के दल को चीन भेजा जाये, या नहीं. कारण, युवा मामलों के मंत्री जितेंद्र सिंह का वह कड़ा पत्र है, जिसमें उन्होंने सुझाव दिया है कि हम इस भारतीय दल को भेजें ही नहीं. पिछले हफ्ते चीनी दूतावास ने लगभग आदेश वाले अंदाज में कहा कि इस दल में अरुणाचल प्रदेश का कोई युवा नहीं होना चाहिए. चीन, अरुणाचल प्रदेश के लोगों को नत्थी वीजा देने की बीमारी से बाहर निकलने के मूड में नहीं है. चीन, अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर को विवादित हिस्सा मानता है, और इसी जुनून में चीनी दूतावास के अधिकारी ‘स्टेपल वीजा’ जारी करते रहे. इसमें आपत्ति वाली बात यह है कि चीन, पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीरियों को सामान्य वीजा जारी करता रहा है. इसके विरोध में भारत ने जब पिछले साल प्रतिरक्षा आदान-प्रदान को स्थगित किया, तब जाकर चीन ने जम्मू-कश्मीर के लोगों को नत्थी वीजा देने की गलत परंपरा को बंद किया.
चीन से सीमा विवाद और ‘स्टेपल वीजा’ पर सत्रह बार बैठकें हो चुकी हैं. चीन इन बैठकों में अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर दावा ठोकता रहा है, तो भारत भी तुर्की-ब-तुर्की कहता रहा कि पश्चिमी सेक्टर वाले ‘अक्साई चीन’ में 30 हजार वर्ग किलोमीटर कब्जे वाली जमीन चीन वापिस करे. लेकिन ‘स्टेपल वीजा’ वाले प्रकरण में भारत को चाहिए था कि वह भी तिब्बत से लेकर ताइवान तक, चीन के विवादित क्षेत्र के नागरिकों के लिए नत्थी वीजा जारी करे. मगर ऐसा हुआ नहीं, बल्कि चीन की ‘वन चाइना पॉलिसी’ को भारत ने मान्यता दे दी. नत्थी वीजा के मामले में लगता नहीं कि मोदी के सत्ता में आते ही चीन इससे पीछे हट जायेगा. बल्कि भाजपा की नत्थी वीजा नीति दो कदम पीछे हटने की है. अरुणाचल प्रदेश से भाजपा के पूर्व सांसद किरण रज्जू, जो पार्टी के राष्ट्रीय सचिव भी रहे हैं, ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पिछले साल एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि नत्थी वीजा के साथ चीन की यात्र करने में कोई हर्ज नहीं है. भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय सचिव रज्जू का मानना था कि नत्थी वीजा मामले में हमें चीन से टकराव टालना चाहिए. इससे हमारी संप्रभुता को कोई फर्क नहीं पड़ता. क्या इसे भाजपा की आधिकारिक चीन नीति मान लें? या, नत्थी वीजा वाले मामले पर भाजपा से चीन की कोई ‘डील’ हुई है?
पिछले साल मोदी की पहल पर गुजरात के हीरा व्यापारियों को चीनी हिरासत से जब छोड़ा गया, तब यह उम्मीद जतायी गयी कि मोदी की ‘केमिस्ट्री‘ चीन से मिलेगी. ध्यान से देखिये, तो चीनी मीडिया के लिए 2002 का गुजरात दंगा कोई मुद्दा नहीं है. बल्कि चीन चाहेगा कि नरेंद्र मोदी जैसे नेता शिनचियांग के उईगुर अतिवादियों के सफाये में उसका नैतिक रूप से साथ दें. इस चुनाव पर चीनी समाचार पत्र ‘रेफरेंस न्यूज’ की टिप्पणी थी कि यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनते हैं, तो भारत की चीन-नीति यथावत रहेगी. चूंकि मोदी विकास को प्राथमिकता देते हैं, इसलिए उनके प्रधानमंत्री बनने पर भारत-चीन का आर्थिक सहकार, कूटनीति का अहम हिस्सा बनेगा. ‘वर्ल्ड अफेयर्स रिसर्च सेंटर’ के थांग लू, न्यूज एजेंसी ‘शिन्हुआ‘ में लिखते हैं, ‘अरविंद केजरीवाल की राजनीति भ्रष्टाचार से लड़ने की है, और उनकी पार्टी अब तक संपूर्ण रूप से विदेश नीति नहीं बना पायी है.’ चाइना रिव्यू न्यूज ने लिखा कि चुनाव में नकारात्मक प्रचार से भारत-चीन संबंध प्रभावित हो रहा है, और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए सीमा-विवाद सबसे पहले उछाला जाता है. चाईना रिव्यू ने यह टिप्पणी मोदी के अरुणाचल दौरे के आलोक में की थी, जब मोदी ने चीन को ‘विस्तारवादी’ कहा था.
चीन, ठीक चुनाव के वक्त नत्थी वीजा की बात उठा कर और ल्हासा में भारतीय महावाणिज्य दूतावास के प्रस्ताव को खारिज कर क्या टटोलना चाहता है? पाकिस्तान इस प्रकरण में ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की भूमिका में इसलिए है, ताकि कश्मीर पर भारत को घेरने में उसे चीन का साथ मिले. भारत ने 2011 के बाद दूसरी बार यह चेष्टा की थी कि चीन, ल्हासा में महावाणिज्यदूत कार्यालय खोलने की अनुमति दे. चीन, चेन्नई में वाणिज्यदूत कार्यालय खोलना चाहता है. दिल्ली में दूतावास के अलावा, मुंबई और कोलकाता में चीन का कौंसिलावास है.
उसी तरह पेइचिंग में दूतावास के साथ-साथ हांगकांग, क्वांगचोउ और शांघाई में भारत का कौंसिलावास है. बीते 14 अप्रैल को चीन के उप विदेश मंत्री ल्यू जेनमिन ने ल्हासा में भारतीय कौंसिलेट खोलनेवाले प्रस्ताव को मानने से इसलिए इनकार किया कि इससे तिब्बती और सक्रिय हो जायेंगे. जबकि इससे कैलाश-मानसरोवर के यात्रियों को मदद मिलती. ल्हासा में नेपाल का कौंसिलेट है, उसका बेजा फायदा तो तिब्बती शरणार्थी नहीं उठाते. 1962 के युद्घ से पहले ल्हासा में भारत का वाणिज्यदूत कार्यालय था. यह रोचक है कि इस जगह पर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन का बचपन बीता है. 1950 में शिवशंकर मेनन के पिता ल्हासा के भारतीय कौंसिलावास में नियुक्त थे. ‘पाक डिफेंस’ के एक टिप्पणीकार ने इस बात पर मेनन की खिल्ली उड़ायी है-‘बडी (यार), अभी और इंतजार करो!’ ऐसी तंजतारी से ही पड़ोसी देशों की पॉलिटिक्स का पता चलता है.