।। मिहिर पांड्या।।
(सिनेमा शोधार्थी)
करीब पांच दशकों से सिनेप्रेमियों के दिलों को गुदगुदानेवाले गुलजार साहब को 2013 के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया है. गुलजार पर लिखते हुए कभी मैंने कहा था कि उन पर लिखना डायरी लिखने जैसा है. उनके लिखे शब्द मेरी पीढ़ी के सबसे निजी क्षणों के साथी हैं और यह संभव नहीं होता कि आप अपनी स्मृतियों में से सिर्फ उनके लिखे शब्दों को सहेज लायें, साथ नत्थी हुए तमाम सुख-दुख के अनुभव उन शब्दों की उंगली पकड़ कर साथ न चले आयें. खयालातों को शब्दों में सहेजने के लिए युवाओं के पास सबसे सुलभ माध्यम सिनेमाई गीत ही हैं, जो निजी अनुभव को सार्वजनिक दायरे में अभिव्यक्त करने का किसी लोकगीत सा काम करते हैं. हरीश त्रिवेदी हिंदी फिल्मी गीतों के महत्व पर लिखते हैं, ‘हिंदी फिल्मी गीत मुख्यधारा के भारतीय जनमानस का भावनात्मक कल्पनालोक गढ़ते हैं.’
गुलजार इस जनमानस के ‘भावनात्मक कल्पनालोक’ को गढ़नेवाली सबसे प्रामाणिक कलम हैं. वे हिंदी सिनेमा की उस सुनहरे दौर की कथा का हिस्सा हैं, जहां बिमल राय तथा ऋषिकेष मुखर्जी जैसे सदाबहार निर्देशक अपनी पारियां खेल रहे थे. गुलजार की निर्देशित फिल्मों को देखें, तो उनमें बिमल राय (जो सिनेमा की दुनिया में उनके पहले गुरु थे) के सिनेमा का यथार्थवाद और ऋषि दा की फिल्मों की जिंदादिली दोनों मिलती हैं. पटकथा और संवाद लेखन उनकी दो सबसे बड़ी विशेषताएं हैं. उनके लिखे आनंद जैसी फिल्मों के संवाद जिंदगी के मुश्किल लगते फलसफे को सरल शब्दों में बयान करते हैं. आंधी, कोशिश और परिचय तो उनकी हरदिल अजीज फिल्में हैं ही, लेकिन कम चर्चित हुई न्यू डेल्ही टाइम्स और नमकीन जैसी फिल्मों में भी जब मैं उनकी कारीगरी देखता हूं, तो चकित रह जाता हूं.
गीत लेखन गुलजार की वटवृक्ष रूपी रचनात्मकता की छोटी शाख है, लेकिन बीते वर्षो में उनकी रचनात्मकता के इस हिस्से ने उनके चाहनेवालों के लिए सबसे फलदायी डाली सा काम किया है. जब से हुतूतू के बाद उन्होंने निर्देशन से संन्यास लिया है, उनके गीतों की धूप उनके प्रशंसकों को और सुहानी लगने लगी है. उन्होंने 21वीं सदी में भी कुछ सबसे प्रतिनिधि गीत लिखे हैं. ऐसे गीतों में फिल्म की कथा को बयान करने के साथ ही अपने दौर के उन भावों को भी अभिव्यक्त करने का माद्दा होता है, जिन्हें कोरे संवाद कह पाने में शायद असमर्थ होते.
बंटी और बबली में उनका लिखा गीत छोटे-छोटे शहरों से.. उस हिंदुस्तानी युवा का प्रयाण-गीत है, जिसे छोटे शहर की सामुदायिक पहचान से बाहर निकल उस आधुनिकता के सपने के पीछे दौड़ लगानी है जिनका वादा महानगर और उसका ‘खुला समंदर’ करता है. गुलजार यहां नायिका के स्वर को बराबरी की जगह देकर उसकी अदृश्य पारिवारिक चौहद्दियों से आगे निकलने की आकांक्षा को भी वाणी देते हैं. रावण का गीत ठोक दे किल्ली.. इशारों ही इशारों में केंद्र और हाशिये के उस असमान संबंध को पेश कर देता है, जिसके संदर्भ कश्मीर से लेकर बस्तर तक हिंदुस्तान के नक्शे पर उभरे हुए हैं.
उनका लिखा पहला गीत मोरा गोरा अंग लेई ले, मोहे श्याम रंग देई दे.. एक बंद दरवाजों वाले समाज का गीत है. सामाजिक रूढ़ियों में जकड़े समाज से निकला गीत. इस समाज की जकड़न सबसे अधिक तथा सबसे दूर तक स्त्री ही महसूस करती है. नायिका के मन की उलझन, मोह बांह पकड़ कर खींच रहा है और लाज पांव पकड़ कर रोक रही है. ऐसा बंधन जिसमें चांद भी बैरी लगने लगता है. गुलजार के लिखे गीत हर दौर में स्त्री-मन की उलझनों-आकांक्षाओं को वाणी देते रहे हैं. इनमें स्त्री की छटपटाहट भी है, जिसमें वह चांद को ‘राहू लगने’ का शाप देती है, तो यही गीत नये दौर में उस बेपरवाह स्त्री-मन की भी टोह लेते हैं, जो ‘लोग क्या कहेंगे’ की टेक को पार कर चुका है, हम ही जमीं, हम आसमां, खसमाणूं खाये.. प्रेम भी गुलजार के गीतों में आता है, तो वह आजाद करने वाला आधुनिक प्रेम है. यहां ‘पड़ोसी के चूल्हे से आग लेने’ और ‘जिगर से बीड़ी जलाने’ की चाहत भी है, तो ‘यहीं कहीं शब काटेंगे, चिलम-चटाई बांटेंगे’ की ऐंद्रिक ख्वाहिश भी है.
गुलजार की यह सबसे बड़ी खासियत है. खुद को निरंतर पुनर्सृजित करने की कुव्वत जो उन्होंने पायी है, वे सिनेमा के हर आनेवाले नये दौर के लिए ऐसा संदर्भ बिंदु बन जाते हैं, जहां से खड़े होकर वह बिना इस डर के भविष्य की ओर देख सकती है कि कहीं उसके हाथ से इतिहास के सूत्र छूट न जायें. वर्तमान समय में गुलजार का होना समंदर किनारे किसी ऐसे लाइटहाउस के होने सरीखा है, जो आनेवाली पीढ़ियों को हमेशा यह याद दिलाता रहेगा कि ‘नयापन’ दरअसल एक ऐसा मूल्य है, जिसकी उपस्थिति हर दौर में रही है, हमें बस उसे ठीक-ठीक पहचानने की जरूरत है.