।। कृष्ण प्रताप सिंह।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
नेताओं की जहर उगलती जुबानों पर मत जाइये, वरना उनकी मायावी राजनीति के दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास का फर्क नहीं समझ पायेंगे. न ही यह कि उनके बीच का भीषण वाक्युद्घ वास्तव में परदे के पीछे के उनके तमाम अघोषित आपसी समझौतों की ढाल है. उत्तर प्रदेश में तो उनके ऐसे समझौते सारी दलीय प्रतिद्वंद्विताओं को ताक पर रख कर न सिर्फ एक दूजे, बल्कि एक दूसरे के परिजनों का भी ‘खास खयाल’ रखने की हद तक जा पहुंचे हैं.
सपा व कांग्रेस इन दिनों खयाल रखने की इस परंपरा में नयी कड़ियां जोड़ रही हैं. पिछली बार की ही तरह सपा अमेठी व रायबरेली में राहुल व सोनिया के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतार रही, तो कांग्रेस भी मुलायम व उनके परिवार के प्रत्याशियों के खिलाफ या तो मैदान में ही नहीं उतर रही या डमी प्रत्याशी उतार रही है. इस ‘परंपरा’ के ‘इतिहास’ में जायें, तो कांग्रेस को सारे फसाद की जड़ मानने के बावजूद मुलायम को सोनिया व राहुल का लोकसभा में होना जरूरी लगता है और राजबब्बर के हाथों मुलायम की बहू डिम्पल को धूल चटवा देनेवाली कांग्रेस अब उस बहू के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ती! याद कीजिए, कन्नौज के गत लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने कैसी भूमिका निभायी थी!
लेकिन उसने निभायी तो निभायी, उसमें और सपा में कम से कम ‘सेकुलरिज्म’ का तो नाता है. लेकिन तब ‘सांप्रदायिक’ भाजपा ने भी डिम्पल को चुनौती नहीं दी थी. उमा भारती ने भाजपा नेताओं से डिम्पल के खिलाफ लड़ने की इच्छा जतायी, तो उन्हें इसकी इजाजत नहीं मिली थी. संतों का बड़ा सम्मान करनेवाली पार्टी में होने के बावजूद इन्हीं उमा ने इस बार सोनिया के खिलाफ लड़ने का बाबा रामदेव का आग्रह इसलिए ठुकरा दिया कि रानी लक्ष्मीबाई की तरह वे अपनी झांसी नहीं छोड़ना चाहतीं, तो इसका एक ही ‘तर्क’ समझ में आता है : दुश्मनों की बहू-बेटियों की भी इज्जत करनी चाहिए! फिर वह बहू इंदिरा गांधी की हो या मुलायम सिंह यादव की!
हां, यह इज्जत एकतरफा नहीं है. भाजपाध्यक्ष राजनाथ 2009 में गाजियाबाद लोकसभा सीट से इसलिए आसानी से जीत गये थे कि उनके दोस्त मुलायम ने जान-बूझ कर उनको चुनौती नहीं दी थी. नेताओं की मिली मार का यह ट्रेंड खुले फरुखाबादी खेलों के मुकाबले नया जरूर है, लेकिन बहुत नया भी नहीं. राजनाथ जैसी दरियादिली सपा एक समय कल्याण सिंह तक के साथ बरत चुकी है. अलबत्ता, उसने इसका ताजा प्रदर्शन पिछले दिनों लखनऊ में किया. राजनाथ को अटल की परंपरागत लोकसभा सीट अपने लिए खाली कराने में उस पर काबिज अपनी ही पार्टी के लालजी टंडन से तो थोड़ी बहुत असुविधा हुई, सपा सुप्रीमो से कमजोर प्रत्याशी का वरदान पाने में उन्हें एक सेकेंड भी नहीं लगा!
सपा जानती थी कि इस सीट पर अवश्य ही कोई भाजपाई दिग्गज चुनाव लड़ेगा. इसके मद्देनजर उसने पहले ही अशोक वाजपेयी को प्रत्याशी घोषित कर दिया था. वे क्षेत्र में अपने आधार के बूते किसी को भी कड़ी टक्कर दे सकते थे. लेकिन राजनाथ के आते ही सपा ने मुकाबले की औपचारिकता निभाने के लिए प्रदेश सरकार में मंत्री अभिषेक मिश्र को सामने कर दिया. तब लोगों को समझ में आया कि क्यों मुलायम सिंह व उनके परिजनों के खिलाफ भाजपा के प्रत्याशी तीसरे स्थान से आगे नहीं बढ़ पाते और क्यों लोकसभा तक में मुलायम व राजनाथ एक दूजे के सुर में सुर मिलाते देखे जाते थे!
कांग्रेस के राहुल और भाजपा के वरुण गांधी अगल-बगल की लोकसभा सीटों- अमेठी व सुल्तानपुर से लड़ रहे हैं, मगर एक दूजे के खिलाफ मुंह नहीं खोलते! वरुण तो पार्टी लाइन से परे जाकर राहुल की तारीफ भी कर डालते हैं. वाराणसी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ मजबूत प्रत्याशी देने की बात करती-करती कांग्रेस दिग्विजय से उतर कर अपने स्थानीय नेता अजय राय पर आ जाती है और भाजपा दिल्ली में कपिल सिब्बल को भी न हरा पानेवाली स्मृति ईरानी को राहुल को हराने अमेठी भेज देती है. राजनाथ के खिलाफ एक झटके में अपना प्रत्याशी बदल देनेवाली सपा मोदी के खिलाफ न प्रत्याशी बदलने को तैयार होती है और न ही साझा उम्मीदवार खड़ा करने को! दीवान-ए-खास में यह सब हो और बहिन जी का नाम न आये. गत लोकसभा चुनाव में मुरली मनोहर जोशी वाराणसी से भाजपा प्रत्याशी बने, तो उन्हें सुभीते के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हेतु अल्पसंख्यक प्रतिद्वंद्वी की जरूरत महसूस हुई. उन्होंने संपर्क साधा तो बहिन जी ने मुख्तार अंसारी को हाजिर कर दिया!
सो, कम-से-कम उत्तर प्रदेश में कांटे की चुनावी टक्करें भूल जाइये! सारे बड़े नेता दूसरे सारे बड़े नेताओं व उनके अपनों की जीत पक्की करने में लगे हैं. छोटे नेताओं व कार्यकर्ताओं में ऐसा अपनापा नहीं है, तो यह उनकी समस्या है या दुर्भाग्य, वे ही जानें!