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ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारत

पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार चीन में हो रहे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के ऊपर आशंकाओं के बादल मंडरा रहे थे. एक समय तो यह लगने लगा था कि भारत इस शिखर सम्मेलन में भाग नहीं लेगा और सिर्फ यह सम्मेलन ही नहीं, ब्रिक्स की महत्वाकांक्षी परियोजना ही ध्वस्त हो जायेगी. डोकलाम घटना को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र […]

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
चीन में हो रहे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के ऊपर आशंकाओं के बादल मंडरा रहे थे. एक समय तो यह लगने लगा था कि भारत इस शिखर सम्मेलन में भाग नहीं लेगा और सिर्फ यह सम्मेलन ही नहीं, ब्रिक्स की महत्वाकांक्षी परियोजना ही ध्वस्त हो जायेगी.
डोकलाम घटना को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जबर्दस्त दबाव था कि वह चीन की चुनौती का दिलेरी से मुकाबला करें और धौंस-धमकी से डरकर कोई ऐसा राजनयिक समर्पण न करें, जिससे भारतीय राष्ट्रीय हितों को नुकसान हो. इसे नरेंद्र मोदी की और एनडीए सरकार की कामयाबी ही समझा जाना चाहिए कि उन्होंने पहले पलक नहीं झपकायी और चीन को सोलह की मुद्रा मुखर करने के लिए मजबूर किया.
जब चीन ने यह एेलान किया कि सीमा पर तनाव घटाना दोनों ही पक्षों के हित में है और इसी कारण उन्होंने सामरिक संकट को अधिक तूल न देने का फैसला किया है. अब भारत की राजनयिक जीत हुई या चीन को अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एएस डोभाल ने कोई गोपनीय आश्वासन तो नहीं दिया, जिसे अप्रत्यक्ष समर्पण कहा जा सके.
फिलहाल जो संयुक्त घोषणापत्र ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन के बाद जारी किया गया है, उसकी भाषा से यह लगता है कि भारत कम-से-कम अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के बारे में अपने पक्ष में बहुमत जुटाने में समर्थ रहा है.
पाकिस्तान में रहनेवाले आतंकवादी संगठनों की भर्त्सना तो इस बयान में जरूर की गयी है, पर इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि पाकिस्तान का नाम अब भी नहीं लिया गया है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भले ही पाकिस्तान को दुष्ट राज्य कह चुके हैं, चीन ऐसा करने से कतरा रहा है. आनेवाले दिनों में यह देखने लायक होगा कि चीन अपने वीटो का प्रयोग सुरक्षा परिषद् में कर पाकिस्तानी दहशतगर्द राज्य को कवच प्रदान करता है या नहीं?
शिखर सम्मेलन को सफल बनाने के लिए चीन का रुख भले ही नर्म पड़ा हो, उसके लिए सिर्फ भारत की मजबूती को ही निर्णायक कारण नहीं समझा जा सकता. भारत के लिए डोकलाम एक बेहद संवेदनशील सामरिक स्थल है, जो न केवल चीन के साथ किसी संभावित संघर्ष में परेशानी पैदा कर सकता है, किंतु बांग्लादेश, भूटान और म्यांमार संगम में होने के कारण हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए कही अधिक महत्वपूर्ण है.
चीन के लिए पाक अधिकृत कश्मीर का अक्साई चिन और गिलगिट वाला प्रदेश अधिक संवदेनशील है, जहां से होकर प्रस्तावित नये रेशमराजमार्ग का निर्माण हो रहा है. इसी मार्ग से चीन की पहुंच क्वादर बंदरगाह के जरिये अरब सागर तक होने जा रही है. एक बार शिखर सम्मेलन निर्विघ्न निपट जाने के बाद चीन के रुख में फिर परिवर्तन हो सकता है, भले ही नाजायज घुसपैठ की घटनाएं डोकलाम में न दौहरायी जायें. उत्तराखंड या लद्दाख में ऐसी घटनाओं में चिंताजनक बढ़ोत्तरी की संभावना नकारी नहीं जा सकती.
हमारे लिए इस बात को अच्छी तरह समझना बेहद जरूरी है कि चीन के लिए ब्रिक्स की अहमियत भारत से कहीं अधिक है. रूस के साथ उसके संबंध इस समय भले ही सामान्य और कमोबेश मधुर हैं, पुतिन के रूस के साथ प्रतिस्पर्धा किसी-न-किसी रूप में जारी रहेगी. अमेरिकी महाद्वीप में ब्राजील और अफ्रीकी महाद्वीप में दक्षिणी अफ्रीका महाद्वीप में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इससे अच्छा मंच चीन काे नहीं मिल सकता. मोदी के नेतृत्व में भारत ने संसार के अनेक देशों के साथ उभयपक्षीय आर्थिक और तकनीकी रिश्तों को मजबूत किया है.
इसीलिए उसके पास विकल्पों का अभाव नहीं. चीन ने जिन देशों के साथ उभयपक्षीय संबंध मजबूत किये, उनमें अधिकतर देश दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी हैं- पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका. इनमें से किसी को भी यूरोपीय समुदाय, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान या इज्राइल के समकक्ष नहीं माना जा सकता.
चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से कहीं बड़ी है और अमेरिका के साथ चीन के आर्थिक संबंधों का पैमाना भारत से कहीं बड़ा है.
पर, इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जब से ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं, वह बार-बार अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मंदी की दुर्दशा के लिए चीन की आर्थिक नीतियों को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति का यह कहना भी गलत नहीं कि जिस तरह के शोसक श्रम कानून चीन में लागू हैं, उनका मुकाबला कोई जनतांत्रिक राज्य नहीं कर सकता. चीन पर यह आरोप भी लगाया जाता रहा है कि वह दूसरों के पेटेंटों को संरक्षण प्रदान नहीं करता और उसके नकलची उद्यमी औद्योगिक तस्करी का फायदा उठाते रहे हैं. यह बात एक बड़ी सीमा तक सच है.
इस शिखर सम्मेलन में चीनियों ने एक नया नारा भी बुलंद किया, जो तिपहिये वाली साइकिल का रूपक है. चीनी विदेश मंत्री वांगही ने कहा कि आर्थिक और तकनीकी सहकार के साथ ही सदस्य देशों की जनता के बीच सांस्कृतिक लेन-देन को प्रोत्साहन देकर इस संगठन को और अधिक गतिशील बनाना चाहते हैं.
जाहिर है यह मंसूबा भारत के सहयोग के बिना पूरा नहीं हो सकता.चीन की महत्वाकांक्षा ब्रिक्स बैंक की स्थापना द्वारा अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अमेरिकीयों के उस आर्थिक वर्चस्व को चुनौती देने की है, जिसके लिए वह विश्व बैंक का इस्तेमाल करते रहे हैं. यदि भारत पूरे मनोयोग से ब्रिक्स में भाग नहीं लेता, तब यह महत्वाकांक्षा खटाई में पड़ सकती है. जियामिन नगर में जारी संयुक्त वक्तव्य का विश्लेषण इसी पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए.
उत्तर-कोरिया के सनकी राष्ट्रपति के गैरजिम्मेदार आचरण ने इस समय चीन के लिए एक और सरदर्द पैदा कर दिया है. अपने-अपने पड़ोस में पूर्वोत्तरी एशिया में सरदर्द पैदा किया है.
दक्षिणी चीनी सागर में विस्तारवादी नीतियों के कारण जापान, वियतनाम और फिलीपींस के साथ उसका मनमुटाव पहले से चल रहा है. इसीलिए ब्रिक्स का मंच अक्षत रखना चीन की मजबूरी है. यह भारत के लिए गंभीरता से सोचने का विषय है कि एक बार जब चीन को दूसरे राजनयिक मोर्चों पर रत्तीभर राहत मिलती है, तब वह भारत के साथ ब्रिक्स से इतर किस तरह के रिश्ते रखता है?

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