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हमारे समय में कवि और उसकी कविता

।। रविभूषण।। (वरिष्ठ साहित्यकार) हमारा समय आर्थिकी और राजनीति से क्षत-विक्षत, लहू-लुहान है. सोलहवीं लोकसभा चुनाव का माहौल सबके समक्ष है. दुनिया के राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कॉरपोरेटों, पूंजीपतियों, धनाढय़ों और इनके इर्द-गिर्द मंडरानेवालों का बोलबाला है. इनमें से किसको बेहतर इंसान का दरजा दिया जा सकता है? ये सब मिल कर ध्वंस-लीला कर रहे […]

।। रविभूषण।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)

हमारा समय आर्थिकी और राजनीति से क्षत-विक्षत, लहू-लुहान है. सोलहवीं लोकसभा चुनाव का माहौल सबके समक्ष है. दुनिया के राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कॉरपोरेटों, पूंजीपतियों, धनाढय़ों और इनके इर्द-गिर्द मंडरानेवालों का बोलबाला है. इनमें से किसको बेहतर इंसान का दरजा दिया जा सकता है? ये सब मिल कर ध्वंस-लीला कर रहे हैं. रचनात्मक शक्तियां एक साथ नहीं हैं और कहीं से भी उनके सम्मिलित स्वर सुनायी नहीं पड़ रहे हैं. अमेरिकी पत्रकार और लेखक क्रिस्टोफर लीन हेजेज ने जो सैंको के साथ 2012 में एक किताब लिखी थी. ‘डेज ऑफ डिस्ट्रक्शन, डेज ऑफ रिवोल्ट.’ 25 से 27 मार्च 2014 तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद और रचना पाठ ‘हमारे समय का साहित्य’ का उद्घाटन करते हुए कुलपति सुधीर कुमार सोपोरी ने हेजेज को उद्धृत किया था- ‘हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहां विश्वविद्यालय ज्ञान समाप्त कर रहा है, प्रेस सूचना, चिकित्सक स्वास्थ्य, बैंक अर्थव्यवस्था, न्यायपालिका न्याय और धर्म आचरण का नाश कर रहा है. इस कथन में राजनीति को भी शामिल किया जाना चाहिए, जो नीति विहीन हो चुकी है.’ क्या कोई दल या उसका शीर्षस्थ नेता (प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार) देश से बड़ा हो सकता है? देश पर विजय पाने की आकांक्षाओं के पीछे क्या है? क्या है ‘भारत विजय रैली’ का अर्थ? ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का अर्थ हम समझ सकते हैं, लेकिन ‘भारत विजय’ का अर्थ क्या है?

सच्चई यह है कि कवि पृथ्वी का सर्वोत्तम प्राणी है. कवि सभी नहीं होते. सभी कविता लिखनेवालों को कवि का दरजा नहीं मिल सकता. जो रचयिता है, वही कवि है. कवि समय के साथ नहीं होता. वह समय की रचना करता है- एक संसार की रचना भी. उसका भौतिक शरीर इस भूलोक में वास करता है, पर कवि कभी स्मृति-विहीन और कल्पना-शून्य नहीं हो सकता. वह निर्माता है. स्वाभाविक है कि जो ध्वंसकारी शक्तियां हैं, कवि उसके खिलाफ खड़ा हो. इस स्वप्न-विहीन समय में कवि ही स्वप्नद्रष्टा है. यह कवि ही कहेगा-‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना.’ वह जटिल-कुटिल समय में एकाकी रहने को अभिशप्त है-‘देख चुका जो-जो आये थे, चले गये/ मेरे प्रिय सब बुरे गये, सब भले गये.’ रामचंद्र शुक्ल ने जब कवि-कर्म के उत्तरोत्तर कठिनतर होते जाने की बात कही थी, तब उनके सामने समय ही था. विकास का मनमोहनी या मोदीय ढांचा सभी भारतवासियों के लिए नहीं है. तीस करोड़ भारतीय मध्यवर्ग, जो उपभोक्ता वर्ग है, पर सभी देशों की दृष्टि है. वह मनुष्य से अधिक क्रेता है. जिसके पास क्रय शक्ति नहीं है, बाजार उस ओर देखता भी नहीं.

आवारा, वहशी, उच्छृंखल पूंजी किसके लिए है? इससे किसका भला हो रहा है? विगत दो-तीन दशकों में अंबानी-टाटा और कॉरपोरेट घरानों की पूंजी जिस रफ्तार से बढ़ी है, उस रफ्तार से और क्या बढ़ा है? क्या उसी रफ्तार से गरीबी घटी है, बेरोजगारी कम हुई है, हिंसा घटी है, बलात्कार रुका है, आत्महत्याएं कम हुई हैं? संसार का सर्वोत्तम प्राणी होने के नाते कवि की चिंता में संसार का सबसे कमजोर प्राणी रहना चाहिए. सृष्टि में जो भी सुंदर है, उसे शब्दों से बचाने का एक बड़ा जिम्मा कवियों का है.

अमेरिकी कवि इमर्सन ने कवियों को शब्द-रचना का श्रेय दिया है. भाषा को विकृत करने का कार्य सर्वाधिक अपने आचरण की असभ्यता से राजनीतिज्ञों ने किया है. जनता से सर्वाधिक वादाखिलाफी, उसी ने की है. रचनाकारों का दायित्व है कि वह अपने समय की आवाज बने और धोखेबाजों, लफ्फाजों और झूठ बोलनेवालों से सबको सावधान करे. पुरस्कृत, अलंकृत, सम्मानित होकर कवियों और लेखकों का एक बड़ा तबका सत्ताधारियों के साथ उठने-बैठने में ‘गौरव’ महसूस करता है. जो सच के साथ नहीं है, वह न कवि है, न रचनाकार. ब्रेख्त ने सच लिखने की जो कठिनाइयां बतायी हैं, वे आज भी हैं. सच को पहचानने की ही नहीं, उसे हिम्मत से कहने की भी जरूरत है. सच सपाट ढंग से नहीं कहा जा सकता. उसे कहने की कला भी जरूरी है. सच को उन लोगों तक पहुंचाना जरूरी है, जिन्हें उनकी जरूरत है और यह जांचना भी जरूरी है कि सच की जरूरत किन्हें है? सामान्य जन की चेतना को समङो बिना उन तक पहुंचाया नहीं जा सकता. जाहिर है, कवि कर्म और रचना कर्म कठिन है. जो भी छप रहा है, सब रचना नहीं है.

बड़ा सवाल यह है कि कवि कहां खड़ा है? किसके साथ खड़ा है? हमारा समय कल के समय से भिन्न है. देवताले की एक कविता है-‘यमराज की दिशा’- ‘आज जिधर पैर करके सोओ/वही दक्षिण दिशा हो जाती है/सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं.’ कवि का काम अपने भविष्य की रचना करना नहीं है. उसका काम दिल्ली-दरबार में जाना भी नहीं है. ‘संतन को कहां सीकरी से काम/जैसी एक छोटी-सी पंक्ति/ पांच सौ वर्षो से हिला रही है हिंदी को’ (केदारनाथ सिंह).

मार्च वसंत का महीना है. भारत में जहां चतुर्दिक संकट छाया हुआ है, इस महीने में एक से तीन मार्च तक विदेश मंत्रलय और साहित्य अकादमी के सहयोग से संपन्न आयोजन में हिंद महासागर के तटवर्ती देशों के कई कवियों ने कविता-पाठ किया. साहित्य अकादमी के वार्षिक पुरस्कार समारोह के अवसर पर कई भारतीय कवियों ने अपनी कविताएं सुनाईं और चार दिनों (21-24 मार्च 2014) का जो आयोजन ‘सबद-विश्व कविता उत्सव’ विवेकानंद की 150वीं जन्मशती तथा रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा नोबेल पुरस्कार प्राप्ति की शतवार्षिकी के अवसर पर साहित्य अकादमी, संस्कृति मंत्रलय, भारत सरकार के सहयोग से संपन्न हुआ, उसमें 21 विदेशी कवि और 19 भारतीय कवियों ने, जिनमें हिंदी के कुंवर नारायण, चुन्नूलाल देवताले और मंगलेश डबराल थे, ने अपनी कविताएं पढ़ीं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी 27 मार्च को हिंदी सहित कुछ अन्य हिंदीतर भाषाओं के कवियों ने अपनी कविताएं सुनायीं. बड़ा सवाल यह है कि इस सबके बाद भी हमारे समय में राजनीति क्यों अधिक महत्वपूर्ण है? और कविता की आवाज दूर तक क्यों नहीं जा पा रही है? कविता की दुनिया में भी छल-छंद, छद्म कम नहीं है. कवि अपनी रक्षा करेगा या कविता की? वह सबसे खराब समय होगा, जब कवि प्रसन्न रहेगा और उसके सामने उसकी कविता दम तोड़ती दिखायी देगी.

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