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सटीक नहीं हैं सैनिकों के हथियार
मोहन गुरुस्वामी अर्थशास्त्री mohanguru@gmail.com फील्डमार्शल वेवल ने, जो भारत के एक कम विशिष्ट वायसराय बनने के पूर्व एक विशिष्ट इन्फेंट्री (पैदल सेना) सैनिक थे, लिखा है, ‘हमें तीन तथ्यों पर स्पष्ट होना चाहिए– पहला, सभी लड़ाइयां और युद्ध अंततः पैदल सैनिकों द्वारा ही जीते जाते हैं. दूसरा, सेना के अन्य लड़ाकूओं की अपेक्षा पैदल सैनिक […]
मोहन गुरुस्वामी
अर्थशास्त्री
mohanguru@gmail.com
फील्डमार्शल वेवल ने, जो भारत के एक कम विशिष्ट वायसराय बनने के पूर्व एक विशिष्ट इन्फेंट्री (पैदल सेना) सैनिक थे, लिखा है, ‘हमें तीन तथ्यों पर स्पष्ट होना चाहिए– पहला, सभी लड़ाइयां और युद्ध अंततः पैदल सैनिकों द्वारा ही जीते जाते हैं. दूसरा, सेना के अन्य लड़ाकूओं की अपेक्षा पैदल सैनिक अधिक मार झेलते हैं, उनके ही हताहतों की तादाद ज्यादा होती है. तीसरे, आधुनिक युद्ध में किसी भी अन्य की तुलना में पैदल सैनिक की कला में निपुणता हासिल करना ज्यादा मुश्किल होता है.’ यूएस मरीन (जल में या स्थल पर समान रूप से प्रवीण सैनिक टुकड़ी) के राइफल सैनिक क्रीड बताते हैं, ‘मेरी राइफल मेरी सर्वोत्तम मित्र है.
यह मेरी जिंदगी है. मुझे इस पर वैसा काबू पाना ही चाहिए, जैसा मुझे हर हाल में अपनी जिंदगी पर पाना चाहिए. मेरे बिना मेरी राइफल निरर्थक है और राइफल के बगैर मैं बेकार हूं. मुझे राइफल से सही निशाना लगाना आना ही चाहिए. मेरी गोली मेरे उस शत्रु की गोली से ज्यादा सटीक होनी ही चाहिए, जो मेरे प्राण लेने के प्रयास में है. बुनियादी बात यह है कि सैनिक होने का मतलब ही मारना है. जो सेना इसे बेहतर अंजाम देगी, जीतेगी.’
लिओन यूरस के 1953 में प्रकाशित उपन्यास ‘बैटल क्राइ’ में राइफल को गन कहने के लिए एक नौसैनिक को निर्वस्त्र होकर यह बोलते हुए परेड स्थल के चक्कर लगाने की सजा दी जाती है कि ‘यह मेरी राइफल है, यह मेरा गन है. यह लड़ने के लिए है, यह मनोरंजन के लिए है!’ सैन्य भाषा में ऐसी किसी भी चीज को गन कहा जा सकता है, जो कोई वस्तु प्रक्षिप्त कर सकती है.
इसलिए वे एक तोप को भी गन ही कहते हैं. राइफल सैनिकों द्वारा इस्तेमाल किया जानेवाला विशिष्ट हथियार है. इसकी नली लंबी और अंदर से सर्पिल ढंग से खांचेदार होती है, ताकि उसकी गोली घूमती हुई लंबी दूरी के निशाने पर भी सटीक मार कर सके. स्टालिन की एक मशहूर उक्ति है कि ‘एक मात्र वास्तविक शक्ति एक लंबी राइफल से ही निःसृत होती है.’ इसी संदर्भ में डगलस मैकार्थर ने कहा था कि ‘जिसने भी कलम को तलवार से बलवान बताया, स्पष्ट है कि उसने कभी स्वचालित हथियारों का सामना नहीं किया.’ स्वचालित हथियारों का विकास प्रमुख अमेरिकी सैन्य विश्लेषक ब्रिगेडियर एसएलए मार्शल द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद किये गये एक अध्ययन पर आधारित था.
संघर्ष के दौरान अमेरिकी सैनिकों द्वारा हथियारों के इस्तेमाल के ढर्रे पर अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि ऐसे अधिकतर सैनिकों द्वारा अपनी राइफलों का कम-से-कम प्रयोग किया जाता था. जो सैनिक किसी ऐसे साथी के बहुत निकट होते थे, जो ब्राउनिंग स्वचालित राइफल चला रहा हो, केवल उनके ही द्वारा अपनी राइफल के अधिक उपयोग की संभावना होती थी, क्योंकि ब्राउनिंग से गोलियों की बौछार होने पर शत्रु जमीन में नीचे छिप जाता और यही वह अवसर होता जब राइफलधारी सैनिक अपनी आड़ से ऊपर उठ निशाना लेकर राइफल का इस्तेमाल किया करता था. इस अध्ययन से और अधिक स्वचालित हथियारों की आपूर्ति की जरूरत साफ हुई.
पाठकों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि जब जीवन में ज्यादातर चीजों के बड़ी और बेहतर होने की जरूरत होती है, तो एक कम व्यास की नलीवाले स्वचालित हथियारों को क्यों तरजीह दी जानी चाहिए?
सोच में इस परिवर्तन की तीन वजहें थीं. पहली यह कि एक बड़े व्यास के स्वचालित हथियार की गोलियों को वांछित रफ्तार देने के लिए उनमें अधिक विस्फोटक क्षमता का इस्तेमाल जरूरी होता. एक स्वचालित हथियार में ऐसी व्यवस्था की जाने पर गोलियां निकलने के दौरान उसके द्वारा पीछे की ओर दिया जानेवाला धक्का संचालक सैनिक के लिए बेकाबू होता और वह उसे चोट भी पहुंचा सकता था.
दूसरी, इनके द्वारा वस्तुतः किसी निशानेबाज के लिए हथियार की जरूरत नहीं पूरी करनी थी, जो 800 मीटर की दूरी तक सटीक मार कर सके. द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर कोरिया तथा वियतनाम तक युद्धों के दौरान अमेरिकी सेना द्वारा राइफल लड़ाइयों के विश्लेषण से पता चला कि उनमें से 90 प्रतिशत 300 मीटर या उससे कम दूरियों पर हुईं और 70 प्रतिशत तो 200 मीटर अथवा उससे भी निकट की दूरियों पर लड़ी गयी थीं. लंबी दूरियों तक सटीकता की बातें बेमानी थीं. मगर कठिनाई यह सामने आयी कि स्वचालित हथियारों पर बढ़ती निर्भरता से गोलियों की ज्यादा जरूरत भी उभरी.
इस तरह, अब यह बहस अपनी पूरी गोलाई घूम कर पुनः अपने प्रस्थान बिंदु पर पहुंच रही है. पूरे विश्व में सेनाओं द्वारा एक बार फिर औसतन 7.62 राउंड गोलियां चला कर दुश्मन को अक्षम कर देने की क्षमतावाले हथियारों तक लौटने को तरजीह दी जा रही है. यह दूसरी बात है कि वर्तमान में विकसित कुछ ऐसे हथियार नुकसान तो पहुंचाते हैं, पर मौतें कम देते हैं.
वैसी स्थिति में एक घायल शत्रु प्रायः सक्षम शत्रु जितनी ही हानि पहुंचा सकता है. इंसास राइफलों ने कई दूसरी किस्मों की राइफलों की खूबियां तो बटोर लीं, पर कभी उनकी तरह का उत्कृष्ट प्रदर्शन न कर सकीं. कारगिल युद्ध के दौरान प्रायः ही भारतीय सैनिकों को इंसास के जाम हो जाने अथवा ठंड में मैगजीन दरक जाने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा.
अब भी भारतीय सैनिकों द्वारा एके-47 को ही पसंद किया जाता है, क्योंकि बेहतर हथियार की तलाश पूरी नहीं हो सकी है. हालिया रक्षा व्ययों को देखते हुए ऐसा लगता है कि हमारे रणनीति नियंता एक बार फिर पैदल सैनिकों द्वारा इस्तेमाल किये जानेवाले हथियारों की बनिस्बत एसयू-30, और रॉफेल जेट, 155 मिमी तोपें, मुख्य युद्धक टैंकों, परमाणु पनडुब्बियों तथा विमान वाहकों जैसी बड़ी और शानदार चीजों पर व्यय करने की अपनी पुरानी आदतों पर लौट चुके हैं, जबकि पैदल सैनिकों के हथियार ही देश की हार या जीत तय करते हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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