24.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

राष्ट्रपति चुनाव और चुनौतियां

-राजीव रंजन तिवारी- अफगानिस्तान में आगामी पांच अप्रैल को होनेवाले चुनाव को देश के साढ़े तीन लाख सुरक्षाकर्मियों के प्रभाव का इम्तिहान माना जा रहा है. विदेशी सेना अफगानिस्तान से जानेवाली है और ऐसे में यहां के सुरक्षाकर्मी कितने सक्षम हैं, इस चुनाव में पता चल जायेगा. अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव और वहां की चुनौतियों […]

-राजीव रंजन तिवारी-

अफगानिस्तान में आगामी पांच अप्रैल को होनेवाले चुनाव को देश के साढ़े तीन लाख सुरक्षाकर्मियों के प्रभाव का इम्तिहान माना जा रहा है. विदेशी सेना अफगानिस्तान से जानेवाली है और ऐसे में यहां के सुरक्षाकर्मी कितने सक्षम हैं, इस चुनाव में पता चल जायेगा. अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव और वहां की चुनौतियों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.

अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव का बिगुल बजते ही हिंसक घटनाओं ने सुरक्षा व्यवस्था को लेकर फिर सवाल खड़े कर दिये हैं. आगामी पांच अप्रैल को अफगानिस्तान के लोग राष्ट्रपति हामिद करजई का उत्तराधिकारी चुनेंगे. यह चुनाव देश के साढ़े तीन लाख सुरक्षाकर्मियों के प्रभाव का इम्तिहान माना जा रहा है. विदेशी सेना अफगानिस्तान से जानेवाली है और ऐसे में यहां के सुरक्षाकर्मी कितने सक्षम हैं, इस चुनाव में पता चल जायेगा.

फिलहाल राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवारों द्वारा रैलियां की जा रही हैं. लेकिन इस बीच राष्ट्रपति पद के दावेदार के सहयोगियों की हत्या ने सुरक्षा की चिंता बढ़ा दी है. बंदूकधारियों ने पिछले दिनों पूर्व मंत्री अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह के दो सहयोगियों की हेरात में हत्या कर दी. इससे देश में लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता हस्तांतरण के अभियान की उम्मीद को झटका लगा है. गौरतलब है कि 2009 के राष्ट्रपति चुनाव में अब्दुल्लाह दूसरे स्थान पर रहे थे. उन्होंने अपने चुनाव अभियान में ग्रामीण इलाकों में सुरक्षा, भ्रष्टाचार के खात्मे और कानून का शासन लागू करने का ऐलान किया है. उनके मुताबिक द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर देश की सुरक्षा के लिए अहम है. इससे नाटो सेना की वापसी के बाद दस हजार अमेरिकी सैनिक देश में रहेंगे.

अब्दुल्लाह मानते हैं कि देश में अभी अंतरराष्ट्रीय मदद का सिलसिला जारी रहना चाहिए. उन्हें उम्मीद है कि इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद समस्याएं खत्म हो जायेंगी. उधर, अब्दुल्लाह के प्रतिद्वंद्वी 64 वर्षीय अशरफ गनी का कहना है कि देश में सुधार उनके साथ होंगे. जबकि राष्ट्रपति हामिद करजई के बड़े भाई कय्यूम करजई ने लोया जिरगा से चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए कहा कि हम मौजूदा सरकार की सभी सकारात्मक उपलब्धियों को जारी रखेंगे. उन कार्यो पर ध्यान देंगे जिसे सरकार ने नहीं किया.

किसके हाथ आयेगी सत्ता?

अफगानिस्तान पिछले 12 वर्षो से हिंसा की चपेट में है. ज्यादातर अमेरिकी व नाटो सेना इस साल के अंत तक यहां से चली जायेगी. विदेशी सेना की वापसी के बाद देश की सुरक्षा का जिम्मा अफगानी सेना पर होगा. राष्ट्रपति करजई को पिछले साल द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर करने थे, लेकिन उन्होंने इस पर हस्ताक्षर नहीं किये. करजई के मुताबिक उनका उत्तराधिकारी यह काम करेगा. 2001 में तालिबान के खात्मे के बाद से ही करजई का शासन है. उन्हें कई बार आतंकियों ने निशाना बनाने की कोशिश की. अनुमानों में कहा जा रहा है कि चुनाव के दौरान अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह और अशरफ गनी के बीच ही असली मुकाबला होगा. जबकि करजई के वफादार जालमई रसूल तीसरे स्थान पर रह सकते हैं.

शांति के लिए प्रयासरत करजई

अफगानिस्तान में शांति कायम करने के लिए मौजूदा राष्ट्रपति हामिद करजई प्रयास कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय सेना के मिशन के खत्म होने के बाद भी जर्मनी वहां शांति स्थापित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका देख रहा है. इस मुद्दे पर जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और हामिद करजई ने बात भी की है. पिछले दिनों दोनों नेताओं में हुई टेलीफोनिक वार्ता में चरचा हुई कि जर्मन सेनाओं को अफगानिस्तान में और कितने समय तक रखना है. दोनों नेताओं ने जर्मनी के सैनिकों को और लंबे समय तक वहां बनाये रखने की संभावना पर चर्चा की. अफगानिस्तान में अभी जर्मन सेना के करीब 3,100 जवान तैनात हैं. अगर दोनों देश अतिरिक्त समय तक जर्मन सेना को वहां रखने के लिए सहमत होते हैं, तो अंतरराष्ट्रीय मिशन के समाप्त होने के बाद भी जर्मन सेना की एक टुकड़ी वहां बनी रहेगी.

इस प्रकार जर्मनी वहां की सेना को ट्रेनिंग देगी. इसके लिए करीब 800 सैनिक मुहैया कराने की योजना है. लेकिन यह योजना लागू करना कुछ हद तक इस बात पर भी निर्भर है कि अमेरिका और अफगान के बीच सुरक्षा समझौते की बात आगे बढ़े. अमेरिका व अफगान के बीच यह सुरक्षा समझौता नाटो का युद्ध अभियान खत्म होने के बाद यहां अमेरिकी सेना की भूमिका तय करेगा. यहां अंतरराष्ट्रीय सेनाओं का मिशन 2014 में खत्म होना है. पिछले नवंबर में करीब ढाई हजार कबायली नेताओं ने अमेरिका के साथ सुरक्षा समझौते को मंजूरी दी थी. लेकिन करजई ने इस पर दस्तखत नहीं किया. उनका कहना है कि अमेरिका को पहले अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लानी होगी. करजई अमेरिका से देश में सैन्य तलाशियों को बंद करने व चुनाव में सहयोग देने की मांग कर रहे हैं. करजई ने कहा था कि वे चुनाव के बाद समझौते पर दस्तखत करेंगे.

पख्तूनों का गुस्सा

अफगानिस्तान की मौजूदा लड़ाई में पश्चिम के ज्यादातर पर्यवेक्षक एक तरफ नाटो और दूसरी तरफ अलकायदा और तालिबान को देखते हैं. इस बीच हमारी फौज दो जटिल तनावों के बीच फंस गयी है, एक क्षेत्रीय और दूसरा आंतरिक. अफगानिस्तान के भीतर इस जंग को मुख्य रूप से करजई के शासन के खिलाफ पख्तूनों की बगावत के रूप में देखा जाता है. पख्तूनों का गुस्सा इस बात पर है कि इस सरकार ने ताजिक, उज्बेक और हाजरा जैसे जातीय समूहों को मजबूत बनाया है. हालांकि, करजई खुद पख्तून हैं, पर लोग उन्हें अमेरिका का सजावटी मोहरा भर मानते हैं. उत्तर प्रांत के ताजिक को दक्षिण के पख्तूनों के खिलाफ खड़ा करके अमेरिका खुद उस गृहयुद्ध का हिस्सा बन गया है, जो अफगानिस्तान में 1970 से चलता आ रहा है.

अफगानिस्तान की आबादी में 27 फीसदी ताजिक हैं, लेकिन फौज में वे 70 फीसदी हैं. इसी वजह से आबादी में 40 फीसदी हिस्सेदारी वाले पख्तून तालिबान का समर्थन करते हैं या उनसे हमदर्दी रखते हैं. इस अंतर्विरोध को छोड़ दें, तो भी असली समस्या इस क्षेत्र की दो परमाणु शक्तियों भारत और पाकिस्तान को लेकर है. इस जंग में भीतर तक घुस चुके अमेरिका, ब्रिटेन और नाटो अब इसे छोड़ कर जाने की तैयारी कर रहे हैं, जबकि भारत और पाकिस्तान को अभी यहीं डटे रहना है.

पाकिस्तान में अफगानी नशा

करीब दस लाख पाकिस्तानी हेरोइन के नशे के आदी हैं. अफगानिस्तान की सस्ती हेरोइन के लिए पाकिस्तान बड़ा बाजार बनता जा रहा है. पाकिस्तान के प्रमुख शहर कराची के हजारों नवयुवक इस नशे के शिकार हो चुके हैं. यहां एचआइवी का खतरा बढ़ गया है. बीते वर्ष अफगानिस्तान में अफीम की रिकॉर्ड 5,500 टन पैदावार हुई. पाकिस्तान के कई गैर सरकारी संगठन झुग्गियों में रहनेवाले नशे के आदी लोगों को नयी सुइयां बांट कर एचआइवी के बढ़ रहे खतरे को काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं. दुनिया में हेरोइन की कुल पैदावार का 90 फीसदी हिस्सा अफगानिस्तान में होता है. पाकिस्तान से होते हुए यह यूरोप और अमेरिका पहुंचता है. फिलहाल पाकिस्तान ही इसका सबसे बड़ा बाजार बना हुआ है.

अफीम की बढ़ रही खेती

संयुक्त राष्ट्र और अफगान सरकार के मुताबिक अफगानिस्तान में वर्ष 2013 में 36 फीसदी ज्यादा अफीम की पैदावार हुई है. पिछले तीन वर्षो से इसमें लगातार इजाफा हुआ है. अफगानिस्तान अफीम सर्वे और संयुक्त राष्ट्र के मादक पदार्थो और अपराध से जुड़े कार्यालय यूएनओडीसी की रिपोर्ट के मुताबिक किसानों ने इसकी खेती पर ज्यादा ध्यान दिया होगा ताकि अपने लिए ज्यादा पूंजी हासिल कर सकें.

अफगानिस्तान में पिछले 12 वर्षो से विदेशी सेनाएं डटी रहीं और उन्होंने अफीम की खेती पर नकेल लगाने की पूरी कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली. अफगानिस्तान के मादक पदार्थ निरोधी मंत्रलय के कार्यकारी मंत्री दीन मुहम्मद मुबारेज रशीदी मानते हैं कि तालिबान और अल कायदा किसानों को अफीम उगाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. यूएनओडीसी का कहना है कि इससे विकास में बाधा पहुंच रही है. बीते वर्ष दो प्रांतों का ‘अफीममुक्त’ दर्जा खत्म हो गया और इस तरह देश के 34 में से 15 प्रांतों में अफीम की खेती होने लगी. इस साल 2,09,000 हेक्टेयर में अफीम की खेती की गयी है, जो 2007 में 1,93,000 हेक्टेयर से कहीं ज्यादा है. इससे पहले का रिकॉर्ड 2007 का ही है.

माता-पिता कराते हैं नशा!

कम विकास दर को देखने से पता चलता है कि इस देश की अर्थव्यवस्था सतह पर प्रगति करती दिख रही है. पर आंकड़े कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन पर निर्भर करते हैं. खराब फसल विकास दर को गिराने के लिए पर्याप्त है. खासकर जब बुनियादी ढांचे बरबाद कर दिये गये हों. अफीम और हशीश अफगानिस्तान से ही दुनिया में सप्लाई की जाती है. एक अनुमान के मुताबिक, 13 फीसदी आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नशीले पदार्थो के कारोबार से जुड़ी है.

बच्चों के दूध में नींद की गोली मिलाकर देना अफगानिस्तान के पूर्वी इलाके में आम बात है. अकसर पेट दर्द और जुकाम से इलाज के लिए उन्हें अफीम की ज्यादा खुराक दे दी जाती है. अफीम यहां इतना सस्ता है कि लोग उसे नशीले पदार्थ की बजाय दर्द की गोली की तरह खाते हैं. कई बार बच्चे सीधे-सीधे अफीम का इस्तेमाल नहीं करने पर भी इसके आदी हो जाते हैं, जब उनके घर में कोई इसका लगातार सेवन करता है. महिलाएं अकसर बच्चों को अफीम पिलाकर सुला देती हैं ताकि कालीन बना सकें. गरीबी इसकी मूल वजह बतायी जाती है.

आर्थिक संकट की आशंका

2014 में अमेरिकी और नाटो फौज के इस देश से निकलने के बाद चिंता यह जतायी जा रही है कि आर्थिक मदद भी बंद न कर दी जाये. इससे आर्थिक संकट बढ़ने का खतरा है. उजबेक बॉर्डर के पास मजार-ए-शरीफ अफगानिस्तान की सबसे सुरक्षित जगहों से एक मानी जाती है. बल्ख प्रांत विदेशी निवेशकों और स्थानीय व्यापारियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह बन चुकी है. मजार-ए-शरीफ और उजबेकिस्तान के बीच सीमा व्यापार बढ़ने की संभावना है. दोनों के बीच रेल कार्गो सेवा शुरू होनेवाली है. यह पहला शहर है जहां नाटो के नेतृत्व में जर्मन सेना ने अफगानिस्तान की सेना को शहर की कमान सौंपी है. वल्र्ड बैंक के मुताबिक, अफगानिस्तान की 91 फीसदी अर्थव्यवस्था अंतरराष्ट्रीय मदद पर टिकी है. अमेरिका ने 2001 के बाद से अबतक 19 अरब डॉलर की मदद दी है.

घट रहे सिख और हिंदू

अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं और सिखों की आबादी घट रही है. इससे इन समुदायों के लोगों को अपने मृतकों का दाह संस्कार करने में दिक्कतें होती हैं. अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित एक अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि अफगान सरकार हिंदुओं और सिख समुदाय के लोगों के दाह संस्कार संबंधी अधिकारों की रक्षा नहीं कर पा रही है. वर्ष 2001 तक यहां रहनेवाले मूल हिंदुओं और सिखों की छोटी आबादी को छोड़ कर गैर मुसलिम आबादी तकरीबन खत्म हो गयी है.

मैदान में ये हैं प्रमुख उम्मीदवार

अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह : देश में राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार शुरू होने के साथ ही इस बात के कयास लगने लगे हैं कि हामिद करजई की जगह कौन देश की बागडोर संभालेगा. तालिबान विरोधी अहमद शाह मसूद के नजदीकी रहे पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह को एक ताकतवर प्रतिद्वंद्वी माना जा रहा है. तालिबान काल से पहले वह बुरहानुद्दीन रब्बानी की सरकार में काम कर चुके हैं. आंखों के मशहूर डॉक्टर अब्दुल्लाह धाराप्रवाह अंगरेजी बोलते हैं और दुनियावी मसलों पर अपनी खास समझ रखते हैं. काबुल में उनकी पैदाइश एक पश्तून पिता और ताजिक मां से हुई. तालिबान के पतन के बाद 2001 उन्हें देश का विदेश मंत्री बनाया गया, लेकिन 2006 में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया. पिछले चुनाव में वह दूसरे नंबर पर रहे. 2009 में उन्हें करीब 30 फीसदी वोट मिले.

कय्यूम करजई : चुनाव मैदान में कंधार में पैदा हुए कय्यूम करजई भी हैं, जो मौजूदा राष्ट्रपति के बड़े भाई हैं. अमेरिका से पढ़ाई करनेवाले कय्यूम पश्तून समुदाय से हैं. अमेरिका में उनके कई अफगानी रेस्टोरेंट हैं. करीब 66 साल के कय्यूम ने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से एमए की पढ़ाई की है, लेकिन उनमें हामिद जैसे करिश्मे की कमी है.

अशरफ गनी : एक अन्य दावेदार, अंतरराष्ट्रीय विद्वान की पहचान रखनेवाले अशरफ गनी की पढ़ाई बेरूत के अमेरिकी यूनिवर्सिटी से हुई है. उनकी पत्नी रूला लेबनानी हैं. उन्होंने न्यूयॉर्क के कोलंबिया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की है. साथ ही, अमेरिका के कई कॉलेजों में पढ़ा चुके हैं. 64 वर्षीय गनी वल्र्ड बैंक के साथ 11 साल तक काम कर चुके हैं. तालिबान के पतन के बाद उन्होंने काबुल में लखदर ब्राहिमी के विशेष दूत के तौर पर काम किया. 2002-2004 के अंतरिम सरकार में वे वित्त मंत्री बने थे. बाद में वे काबुल यूनिवर्सिटी के चांसलर बने. गुस्सैल स्वभाव के गनी ने पिछला राष्ट्रपति चुनाव भी लड़ा था और चौथे नंबर पर रहे. इस बार भी वे मैदान में हैं.

जालमई रसूल : चुनाव मैदान में भाग्य आजमानेवाले मृदुभाषी जालमई रसूल राष्ट्रपति करजई के करीबी हैं. 70 वर्षीय डॉक्टर रसूल पेरिस के मेडिकल स्कूल में ट्रेनिंग भी देते हैं. पूर्व राजा जहीर शाह के निजी डॉक्टर रह चुके रसूल नागरिक उड्डयन मंत्री रहे हैं. बाद में वे राष्ट्रपति करजई के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने. वह दारी, इंग्लिश, फ्रेंच, इतालवी और अरबी भाषा बोलते हैं.

अय्यूब रब रसूल सय्याफ : चुनाव मैदान में अय्यूब रब रसूल सय्याफ भी हैं. 70 वर्षीय कबायली नेता सय्याफ धार्मिक विद्वान माने जाते हैं. वे सऊदी अरब और इस्लामी कट्टरपंथ से जुड़े लोगों के करीबी बताये जाते हैं. इस वजह से पश्चिमी देशों ने भौंहें टेढ़ी कर रखी हैं. न्यूयॉर्क के 9/11 वाले हमले में उन्हें खालिद शेख मुहम्मद का गुरु बताया गया था. उन पर अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकी ट्रेनिंग कैंप चलाने के आरोप भी हैं.

भारत-अफगानिस्तान संबंध

भारत से अफगानिस्तान और उसके मौजूदा राष्ट्रपति करजई का भावनात्मक संबंध काफी मजबूत है. करजई ने भारत में ही अपनी पढ़ाई पूरी की है. करजई कहते हैं कि भारत में बिताया गया उनका समय उनकी जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिनों में हैं. करजई के सत्ता में आने के बाद भारत को वहां अपना राजनीतिक और आर्थिक असर बढ़ाने का मौका मिला है. भारत ने काबुल में अपने दूतावास को फिर से खोला. चार वाणिज्य दूतावास बनाये. अफगानिस्तान को तकरीबन डेढ़ अरब डॉलर की मदद दी.

दूसरी ओर पाकिस्तान के फौजी अफसरों को लगता है कि अफगानिस्तान और कश्मीर को नियंत्रित करने का सबसे अच्छा और सस्ता तरीका है-जेहादियों का इस्तेमाल. अब जब खुद पाकिस्तान इन्हीं जेहादियों की सांप्रदायिक और राजनीतिक हिंसा का शिकार बन रहा है, तो फौज और खुफिया एजेंसी आइएसआइ में कुछ अधिकारियों के कान खड़े हुए हैं. लेकिन प्रभावी वही हैं, जो यह मानते हैं कि जेहादी ही भारत के खिलाफ उनका सबसे बड़ा व्यावहारिक सुरक्षा-तंत्र हैं. वे मानते हैं कि अफगानिस्तान में खास जेहादियों को समर्थन देने का जोखिम पाकिस्तान को अपने अस्तित्व के लिए उठाना चाहिए.

फिलहाल हकीकत यही है कि तालिबान पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान में बहुत कुछ कर पा रहे हैं और पाकिस्तान के फौजी अफसर उनका समर्थन सिर्फ इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि भारत के खिलाफ वे इनका इस्तेमाल कर सकते हैं. उनकी समस्या एक तो दक्षिण अफगनिस्तान में भारत की भारी मौजूदगी है और दूसरी काबुल में भारत समर्थित सरकार है.

अमेरिकी मदद से तालिबानियों को बेदखल करते हुए अफगानिस्तान में जो नयी सरकार बनी, वह भारत की सहयोगी थी. पाकिस्तान इसी वजह से डरा हुआ था. करजई पाकिस्तान को नापसंद करते हैं. उन्हें शायद इस बात की आशंका है कि उनके पिता की हत्या में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने सहयोग दिया था.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें