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लोकतंत्र पर गर्व का क्षण

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com ब्रिटिश हुकूमत से आजाद होने के हिलोरें मारती भारतीय तमन्ना से उपजे आंदोलन के दबाव में जब भारत को स्वतंत्र करने पर विचार किया जाने लगा था, तो अधिकतर ब्रिटिश नेता मानते थे कि उनके चले जाने के बाद यह देश एक नहीं रह पायेगा. विंस्टन चर्चिल तो पहले से […]

नवीन जोशी

वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
ब्रिटिश हुकूमत से आजाद होने के हिलोरें मारती भारतीय तमन्ना से उपजे आंदोलन के दबाव में जब भारत को स्वतंत्र करने पर विचार किया जाने लगा था, तो अधिकतर ब्रिटिश नेता मानते थे कि उनके चले जाने के बाद यह देश एक नहीं रह पायेगा. विंस्टन चर्चिल तो पहले से ही डंके के चोट पर कहते थे कि स्वतंत्र होते ही भारत के कई टुकड़े हो जायेंगे. भारत के बारे में बेहतरीन कृतियां रचनेवाले रुडयार्ड किपलिंग से लेकर अमेरिकी नेताओं-लेखकों तक को लगता था कि इतनी विविधताओं वाला देश एक नहीं रह सकता.
और तो और, 1969 में जबकि हमारे देश को स्वतंत्र होने के बाद अखंड रहते हुए 22 वर्ष हो चुके थे, ब्रिटिश पत्रकार डॉन टेलर ने लिखा था कि- ‘सबसे बड़ा सवाल अब भी यही है कि क्या भारत एकताबद्ध रह सकेगा या इसके टुकड़े हो जायेंगे?
जब हम इतने बड़े देश को देखते है, इसकी 52 करोड़ 40 लाख की आबादी, उसकी अलग-अलग 15 बड़ी भाषाओं, उसके टकराते धर्मों और कई-कई जातियों के बारे में सोचते हैं, तो यह अविश्वसनीय लगता है कि यह एक देश के रूप में कायम रह सकेगा.’ लेकिन उसने यह भी लिखा था कि ‘फिर भी कोई बात है, जो भारत के अस्तित्व के प्रति आश्वस्त करती है. उसे सिर्फ भारतीयता कहा जा सकता है.’
15 अगस्त 1947 से हम 15 अगस्त 2019 तक आ गये हैं. स्वतंत्र भारत की अखंडता के बारे में ब्रिटेन ही नहीं पूरी दुनिया की आशंकाएं एवं भविष्यवाणियां कबके निराधार साबित हो गयीं और इस भारतीयता पर दुनिया हमें हैरत और गर्व से देखती है.
यह भारतीयता न केवल कायम है और देश को एक सूत्र में पिरोये हुए है, बल्कि लोकतंत्र की अपनी बगिया भी हरी-भरी और रंगीन बनाये रखे है, जबकि भारतीय आजादी के आस-पास स्वतंत्र हुए कई देश अपनी एकता कायम रख सके न लोकतंत्र.
सन 1952 का आम चुनाव देखने के लिए कई विदेशी पर्यवेक्षक और पत्रकार भारत आये थे. हाल ही में सत्रहवीं लोक सभा के लिए संपन्न चुनावों की प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए भी कई विदेशी राजनयिक और पत्रकार-दल भारत भर में घूम रहे थे.
उनके लिए यह एक आश्चर्यलोक की तरह है कि यहां किसी सुदूर वन में मात्र एक मतदाता के लिए पूरा मतदान केंद्र बनाया जाता है, हिम ढके पर्वत प्रदेशों की स‌ड़क-विहीन ऊंचाइयों में मतदान कराने के लिए चुनाव-दल मीलों पैदल या खच्चरों पर यात्रा करता है और कहीं नावों से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें ले जायी जाती हैं, ताकि एक भी मतदाता मतदान के अपने दायित्वपूर्ण अधिकार से वंचित न होने पाये.
जिन विकसित और तथाकथित सभ्य देशों ने अपने यहां अश्वेतों, महिलाओं और गैर-स्नातकों को मतदान का अधिकार देने में दशकों लगा दिये, उन्हें यह देखकर अचंभा होना स्वाभाविक है कि भारत ने कैसे पहले ही दिन से अपने सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार दे दिया.
सीधे-सादे, भोले-भाले अनपढ़ और गरीब ग्रामीण जब अपने सबसे अच्छे वस्त्रों में सज-धज कर मतदान केंद्रों की ओर जाते हैं तो किसी मेले का-सा कौतुकपूर्ण दृश्य भले रचते हों लेकिन लोकतंत्र के इन्हीं रखवालों ने तानाशाही प्रवृत्ति वाले शासकों ही नहीं, बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का दावा करनेवाले सत्ताधीशों को धूल चटाने में कोई संकोच नहीं किया. सत्ता में बैठाये जाने के बाद नेता चाहे जितना इतरायें, उन पर नकेल कसने की जिम्मेदारी भारतीय मतदाता ने खूब निभायी है.
अपने लोकतंत्र पर गर्व से इतना इतरा चुकने के बाद उसकी चुनौतियों, आसन्न खतरों और अब तक अधूरे या भूले-बिसरे वादों-संकल्पों की चर्चा करना आवश्यक है, ताकि हमें लोकतंत्र के आसन्न और संभावित खतरों का बराबर ध्यान रहे. ताकि हम सजग रहें.
अपनी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के संचालन के लिए हमने एक संविधान बनाया और उसे अपनो को ही अर्पित किया है. यानी संविधान के पालन का उत्तरदायित्व हमने अपने पर ही डाला है- ‘हम भारत के लोग, भारत को एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उनमें बंधुत्व बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं.’
पूछना चाहिए कि क्या सही अर्थों में हम ऐसा कर पाये हैं? क्या हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय मिल रहा है? क्या विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता वास्तव में सबको निर्विघ्न मिली है? सामाजिक प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हर नागरिक को उपलब्ध है, क्या इसका दावा किया जा सकता है? संविधान में लिखे उच्चतम मूल्य वाले शब्दों को हम व्यवहार में कितना उतार पाये हैं?
क्या संविधान प्रदत्त कतिपय स्वतंत्रताओं पर अयाचित पहरे नहीं बैठ गये हैं? ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं. यह भी देखना जरूरी है कि इन उच्चतम लोकतांत्रिक मूल्यों को अमल में लाने के मामले में हम प्रगति करते रहे हैं या स्वतंत्रता के बाद कहीं पिछड़े भी हैं? आगे बढ़ रहे हैं तो यात्रा धीमी ही सही अभीष्ट दिशा में है. पिछड़ रहे हैं तो स्थिति चिंताजनक है.
अगर चुनिंदा एक प्रतिशत आबादी देश की कुल संपत्ति के 73 फीसदी भाग पर कुंडली जमाये है और यह अनुपात बढ़ता जा रहा है, तो सवाल उठता ही है कि यह कैसी आर्थिक समानता है? अवसर की भी यह कैसी समानता कही जायेगी, जब बहुत सारे लोगों के सिर पर छत नहीं है कई लोग दुमहले-चौमहले में रह रहे हैं? गरीबी को रातों-रात उअड़नछू नहीं हो जाता था, लेकिन गरीबी-अमीरी की खाई चौड़ी क्यों होती जा रही है?
लोकतंत्र का सिद्धांत यह स्वीकार करता है कि सत्ता और शक्ति के लिए संघर्ष होगा, किंतु यह संघर्ष शांतिपूर्ण और वैचारिक होना चाहिए. सत्ता के लिए हमारी लड़ाई वैचारिक से अधिक जाति, उप-जाति और धर्म के आधार पर क्यों होने लगी? चिंताजनक है कि जैसे-जैसे देश विभिन्न मोर्चों पर प्रगति करता जा रहा है, जनता का यह विभाजन भी बढ़ता जा रहा है.
हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है. ऐसे दूरदर्शी नेताओं की आवश्यकता होगी जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न कर दें.
हम भारत के लोगों को, जिनमें हमारे नेताओं की गिनती भी शामिल है, गंभीरता से सोचना होगा कि 1949 में दी गयी यह चेतावनी क्या हम सुन और समझ रहे हैं?

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