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आतंकियों से निहत्थे लड़ते हुए तीन पत्रकारों की जान बचाई थी मेजर प्रमोद ने

जबलपुर : 14 बरस पहले कश्मीर में आतंकियों से निहत्थे लड़ते हुए तीन पत्रकारों की जान बचाने की जद्दोजहद में अपनी जान गंवाने वाले मेजर प्रमोद पुरुषोत्तम के परिवार को बरसों से जिन लम्हों का इंतजार था, वे आए तो सही लेकिन परिवार उनका हिस्सा नहीं बन सका. सेना ने हाल ही में श्रीनगर स्थित […]

जबलपुर : 14 बरस पहले कश्मीर में आतंकियों से निहत्थे लड़ते हुए तीन पत्रकारों की जान बचाने की जद्दोजहद में अपनी जान गंवाने वाले मेजर प्रमोद पुरुषोत्तम के परिवार को बरसों से जिन लम्हों का इंतजार था, वे आए तो सही लेकिन परिवार उनका हिस्सा नहीं बन सका.

सेना ने हाल ही में श्रीनगर स्थित 15 कोर में मेजर प्रमोद को सम्मानित करने का फैसला किया, लेकिन इस समारोह में उनकी पत्नी लेफ्टिनेंट कर्नल :सेवानिवृत्त: वाल्सा पुरुषोत्तम या उनकी बेटी पल्लवी को बुलाना जरुरी नहीं समझा. वहां दिवंगत मेजर की आवक्ष प्रतिमा का अनावरण किया जाना था. मेजर के 94 वर्षीय पिता, के.एम पुरुषोत्तम पिछले चार साल से बिस्तर पर हैं खाली खाली नजरों से दीवार पर टंगी अपनी बेटे की तस्वीर को ताकते हैं और कुछ ही पलों में उनकी आंखें भर आती हैं.

पुरुषोत्तम बड़े भारी मन ने उन पलों को याद करते हैं, जब उन्हें 1999 में अपने प्राणों की आहूति देने वाले अपने पुत्र को सम्मान दिलाने के लिए सैन्य अधिकारियों से लगभग लड़ना ही पड़ा था. यह सब बताते हुए बूढ़े पिता की आवाज लड़खड़ाने लगी तो मेजर के बड़े भाई विनोद ने उनके बिखरे शब्दों को जोड़ने की कोशिश करते हुए बताया, ‘‘पापा कह रहे हैं कि सैन्य अधिकारियों से एक ‘बलिदान का चिन्ह’ हासिल करने में ही उन्हें चार साल लग गए.’’विनोद कहते हैं, ‘‘अब भी सेना हमारे जख्मों पर नमक छिड़कती है. अगर वे मेरे भाई की आवक्ष प्रतिमा के अनावरण के मौके पर हमारे परिवार की मौजूदगी के बारे में गंभीर होते तो वह इस कार्यक्रम को व्यवस्थित तरीके से आयोजित करते और हमें समय रहते सूचित करते.’’

विनोद ने बताया कि उन्हें 18 फरवरी की शाम को लेफ्टिनेंट कर्नल एन एन जोशी का फोन आया. उन्होंने पूछा कि क्या हम 22 फरवरी को श्रीनगर में आयोजित होने वाले समारोह में शामिल हो सकते हैं?विनोद ने पूछा, ‘‘इतने कम समय में ऐसा कैसे संभव है?’’ वाल्सा कहती हैं कि उन्हें तो शिष्टाचार के नाते बुलाया तक नहीं गया.

उन्होंने कहा, ‘‘मैं जा रही हूं या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन उस सैनिक के परिवार तक पहुंचने का प्रयास तो किया जाना चाहिए था, जिसने इतना बड़ा बलिदान करके सेना का गौरव बढ़ाया.’’ उन्होंने कहा, ‘‘एक संस्थान के रुप में मैं सेना के खिलाफ नहीं हूं. जब से मैंने ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ली है, मैंने सेना से किसी भी तरह का संबंध रखने से गुरेज किया है.’’ जब 15 कोर के जनरल-ऑफिसर-कमांड लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह से परिवार की शिकायत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘‘हम जल्दी ही परिवार के लिए एक अन्य समारोह आयोजित करेंगे.’’ अपनी मुश्किलों को याद करते हुए वाल्सा ने कहा कि यह भारी विडंबना थी कि सेना उनके पति के पार्थिव शरीर को जबलपुर तक लाने में मदद नहीं कर सकी. ‘‘लेकिन मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपना सरकारी विमान दिया ताकि मेरे पति का पार्थिव शरीर लाया जा सके. वर्ना उनके पार्थिव शरीर को दिल्ली में ही देरी हो जाती.’’

वाल्सा ने कहा, ‘‘मेरे पति के साथ जो व्यवहार हुआ है, उसे देखकर वाकई बहुत दुख होता है. वे एक सच्चे सिपाही की तरह आतंकियों से लड़े और 15 कोर के जनसंपर्क अधिकारी के रुप में भी उन्होंने पत्रकारों समेत बाकी लोगों का भी दिल जीता.’’ 3 नवंबर 1999 को लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों के फिदायीन हमले में मेजर पुरुषोत्तम अपने दफ्तर में ही थे. किसी स्थानीय सैन्य मुख्यालय पर यह अब तक का अकेला हमला है. यह हमला ऐसे दिन किया गया जब कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल घाटी में कई आतंकी गुटों के निष्क्रिय होने के दावे कर रहे थे.

आत्मघाती हमले वाले दिन प्रमोद पुरुषोत्तम के दफ्तर में मीडिया मामलों की चर्चा के लिए तीन पत्रकार एस तारिक, फयाज अहमद और हबीब नकाश मौजूद थे. आतंकियों ने गोलियां चलाते हुए हमला किया और मेजर पुरुषोत्तम ने खतरा भांपकर अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना पत्रकारों को एक अन्य कर्मचारी के साथ उनके दफ्तर में ही बने बाथरुम में छिप जाने के लिए कहा. आतंकी अंधाधुंध गोलियां बरसाते हुए जनसंपर्क अधिकारी के कार्यालय में घुस आए.

22 फरवरी को प्रतिमा के अनावरण के अवसर पर सेना ने कहा था, ‘‘दिवंगत मेजर प्रमोद पुरुषोत्तम ने वीरतापूर्वक आतंकियों से लड़ते हुए अपने कार्यालय परिसर में फंसे लोगों की जिंदगियां बचाईं और अपने जीवन का बलिदान दे दिया.’’ अपनी बच्ची को अकेले पाल रहीं वाल्सा बड़ी विनम्रता से नम आंखों से कहती हैं कि उन्हें कोई शिकायत नहीं है. ‘‘ठीक है.

उनके बलिदान को सेना ने सम्मान नहीं दिया, लेकिन भगवान तो है न. वह सबका ध्यान रखता है.’’ विदेश में पढ़ रही बेटी पल्लवी सेना पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहती और बस इतना कहती है, ‘‘मैं अपने पापा को याद करती हूं.’’ मेजर के पूर्वजों के घर में उनके दो भतीजे -अभिनव व सिद्धार्थ अपने चाचा को गर्व के साथ याद करते हैं और उनकी वीरता के किस्से अपने दोस्तों को सुनाते हैं. उनकी मां राथोई पुरुषोत्तम हमेशा उनकी ट्रॉफियों और मेडलों से धूल साफ करती रहती हैं. मेजर अपने कॅरियर के दौरान बिहार रेजीमेंट में थे. विनोद कहते हैं, ‘‘उनके लिए, जिंदगी शायद आगे बढ़ चुकी है लेकिन प्रेम की कमी उनकी आंखों में हर समय देखी जा सकती है.’’

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