* परिचय:श्री श्री परमहंस योगानंद
योगी कथामृत के विख्यात लेखक और महात्मा गांधी को क्रिया योग की दीक्षा देने वाले परमहंस योगानंद एक महान संत थे. परमहंस योगानंद ने सन1920में यूरोप और सारी दुनिया में क्रिया योग की जानकारी दी. उन्होंने अपना मुख्य केंद्र अमेरिका को बनाया. भारत में उन्होंने योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के नाम से और अमेरिका में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के नाम सेसंस्थाएं स्थापित कीं.
यह संस्थाएं आज सारी दुनिया में अध्यात्म का प्रकाश फैला रही हैं. योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया(वाईएसएस)में क्रिया योग बताया जाता है जिसे महान संत श्यामा चरण लाहिड़ी ने सबसे पहले सिखाना शुरू किया. लाहिड़ी महाशय को उनके गुरु महावतार बाबा जी ने क्रिया योग की दीक्षा दी थी. लाहिड़ी महाशय ने क्रिया योग की दीक्षा स्वामी श्री युक्तेश्वर जी को दी.
स्वामी श्री युक्तेश्वर ने इसे अपने दिव्य शिष्य परमहंस योगानंद को सिखाया और उनसे कहा कि पश्चिमी देशों के लोगों को इससे लाभांवित करो. शुरू में परमहंस योगानंद जी कोई भी संगठन बनाने के पक्ष में नहीं थे. उनका कहना था कि संगठन बनाने से आरोप ही ज्यादा मिलते हैं. तब स्वामी श्री युक्तेश्वर जी ने कहा कि क्या आध्यात्मिक मलाई तुम अकेले ही खा लेना चाहते हो?परमहंस योगानंद जी ने गुरु की बात मानी और वाईएसएस और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की स्थापना की.
आज ये संगठन नहीं होते तो लाखों लोगों को क्रिया योग की दुर्लभ दीक्षा कैसे मिलती?सन1952में जब उन्होंने अमेरिका में अपना शरीर छोड़ा तो उनका शरीर शव गृह में एक महीने तक रखा रहा. लेकिन उसमें कोई विकृति नहीं आयी. अमेरिका के शव गृह के इंचार्ज ने तब लिख कर दिया था,जो आज भी वहां रखा हुआ है. शव गृह के इंचार्ज ने लिखा है कि यह अद्भुत उदाहरण है. एक महीने बाद भी शव का तरोताजा रहना,आश्चर्यजनक है. लेकिन यह सत्य है.
मरने के बाद भी महान संत परमहंस योगानंद ने अपने शव के जरिये अध्यात्म का संदेश दिया. उन्होंने कहा-सिर्फ शुद्ध और सच्चा प्रेम ही मेरी जगह ले सकता है. परमहंस योगानंद ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं. योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया से प्रकाशित पुस्तक मानव की निरंतर खोज में प्रसन्नता के दस नियम बताये गये हैं.प्रस्तुत है पुस्तक का उक्त अंश:-
* प्रसन्नता के दस शाश्वत नियम
जो धर्मग्रंथों के आदेशों की अवहेलना करता है और जो अपने मूर्खतापूर्ण मनोरथों का अनुसरण करता है,वह न तो सुख,न पूर्णता और न ही परम लक्ष्य को प्राप्त करता है. इसलिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए,इसका निर्णय करने के लिए आप धर्मग्रंथों से मार्गदर्शन लें. पवित्र पुस्तकों में दिए गए आदेशों को समझ कर अपने कर्तव्यों का प्रसन्नतापूर्वक पालन करें. ध्यान रखें,जो आंतरिक रूप से संतुष्ट हैं,वे ठीक जी रहे हैं. केवल ठीक कार्यो द्वारा ही प्रसन्नता प्राप्त होती है. यदि आप भविष्य में स्वर्ग की कामना करते हैं तो आपको अभी से अच्छा बनना चाहिए.
* मेरे अलावा तुम्हारा अन्य कोई आराध्य नहीं
जीवन का लक्ष्य केवल ईश्वरानुभूति होना चाहिए. भौतिक कर्तव्यों को ईश्वर से शक्ति प्राप्त किए बिना पूरा नहीं किया जा सकता. अपने सामान्य कर्तव्यों को पूरा करने के लिए ईश्वर को भूल जाना व्यक्ति का सबसे बड़ा पाप है. पाप का अर्थ है अज्ञान,यानी व्यक्ति का अपनी उच्चतम भलाई के विपरीत काम करना. गीता कहती है,ह्यअन्य सभी धर्मो(कर्तव्यों)को त्याग कर,केवल मुझे स्मरण कर,मैं तुझे समस्त(उन तुच्छ कर्तव्यों को पूरा न करने से उत्पन्न)पापों से मुक्त कर दूंगा. आपके जीवन में अन्य कोई देवता,जिसका महत्त्व आपके लिए ईश्वर से अधिक हो,नहीं होना चाहिए. यद्यपि जीसस ईश्वर के साथ एक थे,फिर भी उन्होंने कहा,मैं उन सब वस्तुओं का नहीं जानता,जिनको मेरे परमपिता जानते हैं. जैसे ही मनुष्य संपत्ति,नाम,यश-ईश्वर से कम महत्व वाली किसी भी वस्तु की पूजा करना प्रारंभ कर देता है तो वह दुख प्राप्त करता है.
* तुम अपने लिए पाषाण प्रतिमा नहीं बनाओगे
कुछ लोगों के लिए मूर्ति(प्रतीक)पूजा ठीक है,परंतु अच्छाई की अपेक्षा इसके बुरे परिणाम अधिक हैं. क्राइस्ट के क्रॉस की पूजा करना और क्रॉस का अर्थ भूल जाना पत्थर की प्रतिमा की पूजा करने के समान है. यदि आप अपने आध्यात्मिक गुरु के देह त्याग के बाद उनकी मूर्ति की पूजा करते हैं,पर उनके गुणों का सम्मान नहीं करते तो आपने अनंत ईश्वर को भुला दिया है. आशय यह है कि परमात्मा की चेतना के साथ आप जिस भी रूप में पूजा का कर्मकांड करें,वह ईश्वर को प्रसन्न करती है. सच्चे भक्त अपनी चेतना को वस्तु पर नहीं लगने देते,बल्कि गहनतम प्रेम और एकाग्रता के साथ उसके पीछे के ईश-भाव का चिंतन करते हैं.
* व्यर्थ में प्रभु,अपने ईश्वर का नाम नहीं लोगे
जब आप ईश्वर का नाम लेते हैं तो आपको आंतरिक रूप से बोध होना चाहिए कि आप क्या कह रहे हैं. दूसरों के मन के अंदर झांकना संभव हो तो आप पाएंगे कि अधिकांश लोग प्रार्थना के समय ईश्वर के अतिरिक्त सभी वस्तुओं के बारे में सोच रहे होते हैं. वे ईश्वर का नाम व्यर्थ ले रहे होते हैं. जब हम प्रार्थना करें तो अपनी संपूर्ण एकाग्रता को ईश्वर पर केंद्रित करने का सर्वोच्च प्रयास करें. जब आप प्रार्थना करें तो ईश्वर के अलावा कुछ और न सोचें. प्रार्थना करें तो आपका हृदय व मन ईश्वर के प्रति प्रेम से भरा होना चाहिए.
* विश्राम-दिवस को पवित्र बनाओगे
सप्ताह के सात दिनों में से कितने कम लोग ईश्वर के लिए एक भी दिन समर्पित करते हैं. प्रभु के लिए एक दिन निकालना आपके अपने लिए ही कल्याणकारी है. रविवार सूर्य का दिन है-ज्ञान के प्रकाश का दिन है. अनेक लोग ईश्वर का चिंतन करने के लिए इसका कभी उपयोग नहीं करते. यदि विश्राम वाले दिन थोड़ा-सा समय एकांत में रह सकें और कुछ समय के लिए शांत रहें तो आप देखेंगे कि कितना अच्छा लगेगा. प्रत्येक व्यक्ति के लिए सप्ताह में एक दिन अपने मानसिक घावों के उपचार के लिए आध्यात्मिक चिकित्सालय में जाने की आवश्यकता है. विश्राम के दिन को मजबूरी में न बिताएं,बल्कि उसका आनंद लें.
* अपने माता-पिता का सम्मान करोगे
अपने माता-पिता का ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में सम्मान करें. ईश्वर ने ही उन्हें मानव की उत्पत्ति करने की शक्ति का अपना उपहार प्रदान किया है. माता,ईश्वर के अशर्त प्रेम की मूर्ति है,क्योंकि सच्ची माता क्षमा कर देती है,जबकि अन्य कोई नहीं करता. पिता,परमपिता के ज्ञान एवं उनकी अपनी संतान के प्रति सुरक्षा की अभिव्यक्ति है. व्यक्ति को माता-पिता को ईश्वर से अलग नहीं,अपितु उनके सुरक्षाकारी प्रेम तथा ज्ञान के प्रतिनिधि के रूप में प्रेम करना चाहिए.
* तुम हत्या नहीं करोगे
इसका अर्थ है कि मात्र मारने के उद्देश्य से किसी की हत्या नहीं करनी चाहिए,क्योंकि तब आप एक हत्यारे बन जाते हैं. किसी को हिंसात्मक भाव के क्षण में दूसरे व्यक्ति की जान नहीं लेनी चाहिए. परंतु यदि देश की रक्षा का सवाल है तो आपको उसकी रक्षा के लिए,जिसे ईश्वर ने आपको सौंपा है,युद्ध करना चाहिए. अपने परिवार और देश की सुरक्षा करना आपका नैतिक कर्तव्य है.
* तुम व्यभिचार नहीं करोगे
यौन संबंध का आदर्श ईश्वर के प्रतिबिंब में बनी संतान की उत्पत्ति के लिए और पति-पत्नी जो एक दूसरे में केवल ईश्वर को देखते हैं,के बीच अनुभव किये जाने वाले आत्मा के पवित्र प्रेम को व्यक्त करने के लिए होना चाहिए. जो केवल शारीरिक स्तर पर रहते हैं और कदापि प्रेम तथा उस उच्च उद्देश्य को नहीं सोचते,जिसके लिए यौन भाव को निर्दष्टि किया गया है,वे व्यभिचार कर रहे हैं. वे उस पशु के समान हैं,जो यौन क्रीड़ा करके अपना रास्ता पकड़ लेता है. व्यक्ति को कामुक विचारों पर मन को नहीं लगाना चाहिए. यहां तक कि जितना आप यौन शक्ति को सुरक्षित रख सकते हैं,उतने ही आप रचनात्मक बनेंगे.
* तुम चोरी नहीं करोगे
जब तक भौतिक स्वार्थता का त्याग न किया जाए,तब तक संसार में कोई सुख नहीं मिल सकता. यदि एक हजार लोगों के किसी समुदाय में सब व्यक्ति एक दूसरे की चोरी करें तो प्रत्येक के999शत्रु होंगे. चोरी मन से प्रारंभ होती है,जब आप उन वस्तुओं के प्रति लोभ करना आरंभ कर देते हैं,जो दूसरों के पास हैं. इच्छा के बीजों को मन से हटा दें.
* पड़ोसी के विरुद्ध झूठी गवाही नहीं दोगे
सत्य को तोड़-मरोड़ कर किसी को क्षति पहुंचाना सामाजिक प्रसन्नता को भंग करने की एक अन्य विधि है. यदि आप चाहते हैं कि आपके पड़ोसी आपके साथ अच्छा व्यवहार करें तो आपको दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए. सदा सत्य बोलना महत्वपूर्ण है. उस सत्य को कहना,जो दूसरे व्यक्ति के साथ विश्वासघात उत्पन्न करता हो,उसका कोई लाभदायक परिणाम भी न हो तो वह झूठ नहीं बोलना चाहिए. असावधानी या दुर्भावना से ऐसी जानकारी व्यक्त न करें,जो दूसरों को ठेस पहुंचाए,उन्हें नुकसान पहुंचाए.
* आवश्यक और अनावश्यक में भेद जानोगे
जो वस्तुएं दूसरे के पास हैं,आप उन्हें पाने का जितना अधिक लालच करेंगे,उतने ही अधिक आप अप्रसन्न रहेंगे. आप अपना जीवन दु:ख में बिताएंगे. संतोष हासिल नहीं कर सकेंगे. अपने अंतर में आध्यात्मिक संपदाओं को खोजें. आप जो भी हैं,सभी वस्तुओं से अथवा किसी अन्य व्यक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं,जिसकी आपने कभी कामना की है. ईश्वर ने आप में स्वयं को इस प्रकार व्यक्त किया है,जिस प्रकार वे अन्य किसी मानव में व्यक्त नहीं हुए हैं. आपकी आत्मा में महानतम निधि विद्यमान है-ईश्वर.
(योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया से प्रकाशित पुस्तक मानव की निरंतर खोज से साभार)