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कहां है ””भारत”” ?

– हरिवंश – असम की घटना, पढ़ कर वर्षों पहले पढ़ी एक पुस्तक याद आयी. 1960 में छपी थी. इंडिया द मोस्ट डेंजरस डिकेड्स (सेलिग.एस.हेरिसन). तब भी दुनिया स्तर पर बहुचर्चित, आज भी प्रासंगिक. इस पुस्तक में एक घटना का उल्लेख है. जवाहरलाल नेहरू एक सभा को संबोधित कर रहे थे. आजाद भारत में. लोगों […]

– हरिवंश –
असम की घटना, पढ़ कर वर्षों पहले पढ़ी एक पुस्तक याद आयी. 1960 में छपी थी. इंडिया द मोस्ट डेंजरस डिकेड्स (सेलिग.एस.हेरिसन). तब भी दुनिया स्तर पर बहुचर्चित, आज भी प्रासंगिक.
इस पुस्तक में एक घटना का उल्लेख है. जवाहरलाल नेहरू एक सभा को संबोधित कर रहे थे. आजाद भारत में. लोगों ने नारा लगाया, भारत माता की जय. वह भीड़ से पूछ बैठे, किस भारत माता की जय? लोगों ने जवाब दिया, धरती भारत माता. फिर नेहरू जी तर्क कर बैठे, कौन सी धरती? आपके गांव की धरती ? आपके जिले की धरती ? आपके राज्य की धरती ? या देश की धरती ? या दुनिया की धरती ?
आधुनिक भारत के सामने शायद सबसे बड़ा सवाल आज भी यही है? कौन सा भारत? किसका भारत? और दुर्भाग्य क्या है? आज भारत में एक नेता नहीं, जिसकी आवाज भारतीय हो. जिसकी पहचान, पीड़ा, अपील या सोच अखिल भारतीय हो. स्टेटसमैनशीप की यह क्राइसिस (संकट), नेतृत्व की यह दरिद्रता, भारत अजीब मोड़ पर झेल (फेस कर) रहा है?
आज दुनिया में शोर है, भारत महाशक्ति बन रहा है. 25 नवंबर के इकोनामिक टाइम्स में रिपोर्ट है बिलियन पीपुल, बिलियन डॉलर इकोनोमी. भारत अब दुनिया के इलीट क्लब की अर्थव्यवस्था में शामिल हो गया है. इसमें कुल 12 देश हैं, अमेरिका, जापान, जर्मनी, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, स्पेन, कनाडा, ब्राजील, रूस और अब भारत भी. यह डॉलर के कमजोर होते जाने का तात्कालिक परिणाम है.
पर इस महाशक्ति और अमीर बनते भारत का नेतृत्व वर्ग कैसा है? कांग्रेस से लेकर हर क्षेत्रीय दल के क्षत्रप नेता का सपना क्या है? परिवार को भारत की बागडोर सौंप देना. क्या चरित्र, चिंतन और कर्म में एक भी राष्ट्रीय दल बचा है? एक भी क्षेत्रीय दल ऐसा उभरा है, जो वंशवाद, परिवारवाद या निजी तानाशाही की संस्कृति से मुक्त हो? जिसमें राष्ट्रीय सोच, उदारता, अंदरूनी लोकतंत्र और समतापूर्ण अर्थनीति का सपना हो. दलों की जगह अब गिरोह हो गये हैं. राहुल गांधी, नेहरू परिवार के अकेले उत्तराधिकारी या वारिस नहीं हैं.
परिवारवाद या वंशवाद पर कांग्रेस का ही एकाधिकार नहीं रहा. कमोबेश हर दल में ‘राहुल गांधी’ देश की बागडोर संभालने की कतार में खड़े हैं. क्या इनमें से किसी दल के एजेंडा पर देश है? धुर वाम से धुर दक्षिण का फर्क भारतीय राजनीति में मिट गया है. सब एक समान दिखते हैं. किसी दल के पास गुजरात दंगों का अतीत है, तो किसी की पूंजी नंदीग्राम है.
हर दल का एक ही गणित या समीकरण है, गद्दी हथियाना. गद्दी किसलिए? सत्ता सुख भोगने, पैसे कमाने और परिवार को उत्तराधिकार सौंपने के लिए. किस दल के पास आज विचार की राजनीति है, चरित्र की राजनीति है, मुद्दों की राजनीति है? जाति, धर्म, समुदाय, क्षेत्र वगैरह से ऊपर उठ कर कोई भारतीय सपना आज बचा है? आधुनिक देश और सभ्य समाज गढ़ने का कोई खाका है?
जब भारत, गरीब था, तब हमारे पास नेतृत्व था. आजादी के समय साधनहीन था भारत. पर हर जिले, प्रांत और देश में ‘अखिल भारतीय सपना’ दिखानेवाले समर्पित, ईमानदार और दूरदर्शी नेता-कार्यकर्त्ता थे. आज आगे बढ़ते भारत का नेतृत्व दरिद्र है. यहां जो कुछ प्रगति हो रही है, वह भारतीयों के हुनर, प्रतिभा और कौशल की देन है.
आज देश दर्जनों दरारों में बंट गया है. असम में बिहारियों, झारखंडियों की हत्या. पंजाब या कश्मीर में बिहारियों के साथ यही सलूक. महाराष्ट्र का भेदभाव कई बार सुर्खियों में आया है. बंगाल और तमिलनाडु के सांसद इसी लोकसभा में क्षेत्रीय हित के लिए कैसे लड़े थे? दक्षिण के राज्यों में भी कई सवालों पर आपस में अप्रिय टकराव है.
पहले इन दरारों को सूझबूझ से संपन्न नेतृत्व पाटता था. संसद मरहम लगाती थी. आज? आज संसद की समितियां इन बुनियादी मुद्दों पर सोचती-विचारती हुं ै? एक समिति ने हाल में सुझाव दिया है कि देश में घरेलू उड़ान भरनेवाले विमान समूहों को देश के अंदर विमान यात्रा में शराब परोसने की छूट दी जाये. जिस मुल्क के सामने इथनिक क्लैश (सामुदायिक द्वेष), आतंकवाद, नक्सलवाद, बढ़ती विषमता, जातीय-धार्मिक नफरत जैसे गंभीर मुद्दे हों, वहां के सांसद, गांधी के देश में, आसमान में शराब परोसने पर अपनी बौद्धिक ऊर्जा लगा रहे हों, वहां क्या होगा? शराब लॉबी की पैरोकार राजनीति, देश बना या बचा सकती है?
दरिद्र भारत का इकबाल दुनिया में गूंजता था. अपनी विशिष्टता, सैद्धांतिक आग्रह या साहस के कारण. पर आज महाशक्ति बनते भारत की राजसत्ता कितनी कमजोर, लाचार और बेबस है? दलाईलामा की उपेक्षा का प्रसंग ताजा है. लगभग पांच दशकों से दलाईलामा और तिब्बती शरणाथ, भारत में हैं.
सत्कार और सम्मान के साथ. हाल में चीनी दूतावास ने भारत सरकार को कहा, दलाईलामा को महत्व न दें. भारत सरकार के मंत्री, दलाईलामा के एक कार्यक्रम में शरीक होने की सहमति दे चुके थे. चीन की इस धमकी के बाद कोई मंत्री उस कार्यक्रम में नहीं गया. कमिटमेंट के बाद सरकार की नजर में दलाईलामा रातोंरात अनिमंत्रित अतिथि जैसे हो गये हैं?
संभवतया चौथी (या तीसरी?) संसद ने शपथ ली थी कि चीन से अपनी जमीन वापस पाये बिना हम चीन से बात नहीं करेंगे? क्या भारत के संकल्प, प्रतिज्ञा, शपथ, वायदों या बातों का कोई मोल है? यह सिर्फ चीन या दलाईलामा का प्रकरण नहीं है. सत्ता, सरकार और भारतीय राजनीति के चरित्र का नमूना है. रीढ़हीन, कायर और धमकी के आगे नतमस्तक. अपनी बात, वसूल और देश हित के सवालों पर स्टैंड न लेनेवाले इंसान, समाज और देश से क्या अपेक्षा की जा सकती है?
यही स्थिति तसलीमा नासरीन के प्रकरण में है. कभी बंगाल सरकार कहती है, भाग जाइए, कभी बयान देती है, आपका स्वागत है? दोनों ही स्थितियों में भारत सरकार की मौन सहमति है.
क्या देश या राज्य ऐसे चलते हैं? आधुनिक भारत की नीति और सपना क्या है? इसी के ईद-गिर्द ही कोई राज्य या देश, फैसला करता है या भीड़ की धमकियों के अनुसार सरकार के स्टैंड बदलेंगे? वोट बैंक के अनुसार नीति या नीयत में फर्क होगा? अगर भारत सरकार महसूस करती है कि तसलीमा को भारत में जगह नहीं मिल सकती, तो स्पष्ट रूप से स्टैंड लेना चाहिए.
अन्यथा वैचारिक स्वतंत्रता, सेकुलर समाज वगैरह की बातें नहीं करनी चाहिए. द्वंद्व में पड़ा देश, ढुलमुल नीतियों का देश, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने स्टैंड पर कायम न रहनेवाला देश! क्या यही समाज और देश हम गढ़ रहे हैं? यह संशय की राजनीति, अनिर्णय की राजनीति, भारत के अस्तित्व को संकट में डाल देगी?
प्रधानमंत्री पद की क्या स्थिति हो गयी है? यह पद 110 करोड़ लोगों की ताकत, गरिमा और संवैधानिक सत्ता का प्रतीक है. इस पद पर बैठा व्यक्ति जो कहता है, करता है, वह देश या समाज और के लिए अनुकरणीय होता है. मनमोहन सिंह जी, ईमानदार और विद्वान इंसान हैं.
पर यूपीए घटक दलों ने उनकी क्या हालत बना दी? न्यूक्लीयर डील अच्छा है या बुरा है, यह अलग प्रसंग है. एक दिन अचानक प्रधानमंत्री कहते हैं कि वामपक्ष या कोई पक्ष, कुछ कहे, साथ रहे या जाये, इस मुद्दे पर सरकार स्टैंड ले चुकी है. एक महीने तक वाकयुद्ध होता है.
पुन: वही प्रधानमंत्री कहते हैं कि न्यूक्लीयर डील के अतिरिक्त अन्य प्राथमिकताएं भी हैं. शायद यह पहली बार हआ है कि एक मुद्दे पर भारत का कोई प्रधानमंत्री अचानक 180 डिग्री पलट गया हो. सार्वजनिक स्टैंड लेने के बाद. बेहतर होता कि प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर पहला बयान ही नहीं देते. आप साझा सरकार चला रहे हैं, तो सभी समर्थक घटकों से महत्वपूर्ण मुद्दों पर परामर्श कर ही स्टैंड लेना चाहिए था.
अगर स्टैंड ले लिया, तो फिर झुकने से क्या मैसेज निकला? यह महज न्यूक्लीयर डील का सवाल नहीं है. यह डील अच्छा है या बुरा? देश हित में है या देश विरोधी, यह तो विशेषज्ञ और शासक जानें? पर देश में क्या संदेश गया है? समाज के नायक और अगुआ ही समाज को गढ़ते हैं. महाभारत में कहा गया है कि जिस रास्ते बड़े लोग, रहनुमा जाते हैं, वही रास्ता श्रेष्ठ और अनुकरणीय है.
अब प्रधानमंत्री (जो लोकतंत्र का सबसे ताकतवर पद है) पद पर बैठा व्यक्ति, सुविधा और परिस्थितियों के अनुरूप पलटी मारे, तो समाज क्या ग्रहण करेगा? सामाजिक जीवन में रोज-रोज बात बदलने और पलटने की संस्कृति बढ़ेगी. सार्वजनिक वायदों, कमिटमेंट (प्रतिबद्धता) और वचन बद्धता के लिए जगह नहीं होगी. सार्वजनिक जीवन में झूठ, छल, प्रपंच की प्रतिष्ठा बढ़ेगी. रोज बयान पलटनेवाले, वायदों से मुकरनेवाले सम्मानित होंगे. क्या हम इसी संस्कृति-आदर्श का देश बनाना चाहते हैं?
सोनिया गांधी ने भी न्यूक्लीयर डील पर ऐसा ही किया. हरियाणा में उनके दिये गये बयान से लगा, वह वामपंथ को उनकी हैसियत बता रही हैं. फिर तुरत बाद पलट गयीं. उनकी यह राजनीतिक कलाबाजी एक सीमा तक क्षम्य है, क्योंकि वह प्रधानमंत्री पद पर नहीं हैं. अपनी बात से पलटनेवाले मुल्कों की दुनिया में क्या प्रतिष्ठा बनती है, और आज भारत के बारे में लोग क्या टिप्पणियां करते हैं, यह जानना रोचक होगा.
आतंकवाद के सामने भी यही स्थिति है. असहाय और लाचार है मुल्क. 1994 से 2005 तक 47,371 निर्दोष लोग आतंकवादियों के हाथों मारे गये हैं. नक्सली हत्याएं इसमें शरीक नहीं हैं.
आतंकवाद से दुनिया में सबसे अधिक प्रभावित देश है, भारत. इराक के बाद. जनवरी 2004 से मार्च 2007 तक (39 महीनों में) 3674 लोगों को आतंकवादियों ने मारा है. हाल में उत्तरप्रदेश में हुए ‘सीरियल ब्लास्ट’ वगैरह इसमें शामिल नहीं हैं. याद करिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बंगलूर में आतंकवादियों का हमला, बनारस के मंदिरों में बम विस्फोट, मुंबई ट्रेनों में बम विस्फोट, हैदराबाद में विस्फोट …. पर इन घटनाओं में आज तक एक भी अपराधी पकड़ा गया? एक को भी सजा हुई ? जब भी बड़ी घटना होती है, सरकार दहाड़ती है.
अभी दो दिनों पहले गृह मंत्री उत्तरप्रदेशमेंहुए विस्फोटों के संदर्भ में संसद में आइएसआइ और पाकिस्तान को चेतावनी दे रहे थे. बिल्कुल धमकी भरे ओजपूर्ण स्वरों में. पर ये शब्दवीर, लेकिन कर्मशून्य लोग, कहां पहुं चा चुके हैं, मुल्क को?
दुनिया के दूसरे मुल्कों में भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं. पर वे मुल्क आतंकवाद की समस्या से कैसे निबट रहे हैं? जर्मनी ने तुरंत कानून बनाया, ‘एंटीटेरर लॉ’ . दोषी हुए , तो फांसी तक की सजा. जांच और इंटेलीजेंस की संस्थाओं को चुस्त किया. ऐसे ही सख्त कानून (30 वर्ष की सजा) फ्रांस में बने. न्यूजीलैंड ने भी यही कदम उठाया. दोषी को फांसी की सजा.
ब्रिटेन, जापान और ऑस्ट्रेलिया में तत्काल सख्त कानून बनाये गये. आतंकवादियों को फांसी. ऐसे मामलों की तत्वरित जांच, कार्रवाई व सजा का प्रावधान. क्या निदाष को मारनेवालों के प्रतिशासकीय कठोरता, गलत है? भारत में न तो आज तक एक सख्त कानून बना और न जांच एजेंसियों को चुस्त किया गया. हमारी जांच एजेंसियों या खुफिया एजेंसियों की कार्यसंस्कृति के बारे में, एक रिटायर्ड फौजी अफसर ने हाल में पुस्तक लिखी. इन प्रीमियर जांच संस्थाओं के पतन, भ्रष्टाचार, एकाउंटिबिलिटी का न होना, कार्यसंस्कृति का अभाव, सब कुछ उसमें दर्ज है.
दूसरा मुल्क होता, तो इन सूचनाओं के आधार पर अपनी प्रीमियर खुफिया व जांच संस्थाओं को सक्षम, चुस्त और रिसपांसिबुल बनाता. पर यहां सच लिखनेवाले अफसर के खिलाफ ही छापे मारे गये. ईमानदार को सजा और दोषियों को संरक्षण! यह नजरिया हमें कहा ले जायेगा? क्या ऐसे सवालों पर पूरे भारतीय फलक-संदर्भ में आज कोई सोचता या बोलता है? संसद गौर करती है? किसी नेता की अंतरात्मा को ऐसे सवाल भेदते हैं?
यही अनिर्णय, नक्सली मुद्दे को लेकर है. एक तरफ प्रधानमंत्री कहते हैं, आजादी के बाद देश की सबसे गंभीर चुनौती है, यह. हर बड़े वारदात या हिंसा के बाद केंद्र या राज्य सरकारों में सवाच्च पदों पर बैठे लोग धमकी देते हैं. ठीक कर देंगे. नक्सली धमकी नहीं देते, अपने वारदातों या कामों से जवाब देते हैं. वे एक जिले के एक क्षेत्र से निकल कर 180 जिलों में दस्तक दे रहे हैं. उधर ठेका, दलालीवाली अकर्मण्य राजनीति उन्हें सबक सिखाने के महज नारे लगा रही है.
नक्सलवाद एक गंभीर समस्या है. इसका समाधान, कैसे हो, क्या हम एक भी राष्ट्रीय आवाज या बहस इस विषय पर आज सुनते हैं? मुख्य राजनीति में कोई कहनेवाला है कि यह समस्या क्यों है? कौन इनके समर्थक हैं और क्यों हैं? इसका समाधान क्या है? कैसे पहल हो, कौन पहल करे, कैसे संवाद हों, ये मुद्दे किसी राजनीतिक दल-विचार के एजेंडे में हैं? महज ‘साइनिंग इंडिया’ की चिंता करनेवाली राजनीति इस चुनौती को कैसे समझ पायेगी?
भारत के शासक एक गंभीर खतरे से अनजान हैं. भारत के पड़ोसी देश, अशांत और अशासित स्थिति में हैं. पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, बर्मा, श्रीलंका में आज क्या स्थिति है? ये विफल देश (फेल्ड स्टेट) माने जाते हैं. इनमें से कुछेक में चीन की नजर और दखल है. बर्मा, जो पहले भारत का अंग था, आज चीन के साथ है. बर्मा की लकड़ियां-तेल, चीन इस्तेमाल कर रहा है.
खुलेआम. और हम? बर्मा की लोकतांत्रिक लड़ाई में नैतिक रूप से हम ऐसी शक्तियों के साथ नहीं हैं, बर्मा के तानाशाह शासकों के पक्ष से बयान दे रहे हैं, पर बर्मा के सारे लाभ चीन ले रहा है. अभी एक सप्ताह भी नहीं हुए , चीन ने हमें ‘आसियान’ का सदस्य नहीं बनने दिया.
खुलेआम विरोध किया. यह वही चीन है, जो खुद तो न्यूक्लीयर क्लब में अमेरिका के साथ है, पर अपरोक्ष रूप से भारत को इस स्टेट्स या क्लब में पहुं चने का विरोध कर रहा है. इसी चीन की बदौलत पाकिस्तान न्यूक्लीयर संपन्न देश बना है. और चीन की शह पर ही पाक, भारत के लिए रोज नये सिरदर्द पैदा करता रहता है.
चीन समझ रहा है कि भारत के उभार को रोकना जरूरी है. वह अकेले दुनिया की नयी महाशक्ति के रूप में अवतरित होना चाहता है. क्या भारतीय राजनेता यह सब नहीं समझते ? याद कीजिए, 2000 वषा बाद जिस सरदार पटेल ने भारत को एकरूप दिया, उन्होंने 1950 के आसपास पंडित नेहरू को चेताया था, सावधान रहिएगा, चीन तिब्बत लेगा और भारत पर हमला करेगा. यानी चीनी हमले के 12 वर्ष पहले सरदार पटेल ने चीन को भांप लिया था. आज चीन की हर चाल देख कर भी भारत के नेता आंख बंद किये हुए हैं, क्‍यों ?
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने साझा सरकारों और क्षेत्रीय दलों को लेकर सार्वजनिक क्षोभ प्रकट किया. क्या यह अंधक्षेत्रीयता, भारत के लिए नयी चुनौती है या कुछ और ? क्षेत्रीयता से अधिक विचारहीन राजनीति, मूल्यहीन राजनीति, चरित्रहीन राजनीति, अज्ञानी राजनीति, आत्मकेंद्रित राजनीति, भ्रष्ट राजनीति, भारत की तबाही के अध्याय लिख रही है.
कभी अहमदनगर जेल में रह कर आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ (भारत की खोज) लिखी थी. आज खुली हवा में भारत के राजनेता ‘डेथ ऑफ इंडिया’ (भारत की मौत) के सूत्र रच रहे हैं.
दिनांक : 28-11-07

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