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जयललिता प्रकरण : राजनीति के स्वच्छता काल का आगाज!

राहुल सिंह दो दिन पूर्व ही अम्मा के नाम से मशहूर जयललिता ने तमिलनाडु में अम्मा सीमेंट लांच किया. आम जनता को रियायती दर पर सीमेंट उपलब्ध कराने के दावे के साथ शुरू की गयी इस योजना के माध्यम से वे अपनी राजनीतिक इमारत को और बुलंद करना चाहती थीं. हालांकि 2011 के विधानसभा चुनाव […]

राहुल सिंह
दो दिन पूर्व ही अम्मा के नाम से मशहूर जयललिता ने तमिलनाडु में अम्मा सीमेंट लांच किया. आम जनता को रियायती दर पर सीमेंट उपलब्ध कराने के दावे के साथ शुरू की गयी इस योजना के माध्यम से वे अपनी राजनीतिक इमारत को और बुलंद करना चाहती थीं. हालांकि 2011 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा में अम्मा अपने सबसे ताकतवर रूप में सामने आ चुकी थीं और भारतीय राजनीति के संशय काल (स्पष्ट बहुमत का अभाव) में वे हमेशा अपने को प्रधानमंत्री पद से महज एक कदम ही दूर मानती रहीं. राजनीतिक विेषकों का भी ऐसा ही मत हुआ करता था. लेकिन कानून के एक तेज झोंके ने अम्मा सीमेंट लांच करने के महज दो दिन बाद उनकी राजनीतिक इमारत को धराशायी कर दिया.
ध्यान रहे कि जयललिता सरीखी राजनेताओं का भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा योगदान यही है कि उन्होंने लोकतंत्र व वोटतंत्र को गिफ्टतंत्र में बदल दिया. तमिलनाडु में ही वोट के बदले टीवी व साड़ी देने जैसे प्रचलन की शुरुआत हुई और यह चीज धीरे-धीरे दूसरे राज्यों को भी घर करने लगी. उत्तर भारतीय राज्यों ने भी इसे अपनाया.
पुरातवी तलाईवी यानी क्रांतिकारी नेता के दूसरे उपनाम से पहचानी जाने वाली जयललिता को अपनी यह राजनीतिक इमारत फिर से खड़ी करनी होगी, लेकिन इसकी संभावना अत्यंत क्षीण है कि वह पहले वाले स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगी. जयललिता अपने तीन दशक से अधिक के राजनीतिक कैरियर में पिछले तीन सालों से सबसे ऊंचे शिखर पर थीं. जब उनके पास राज्य विधानसभा में सबसे ज्यादा सीटें हैं और लोकसभा में उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक के पास भाजपा व कांग्रेस के बाद तीसरी नंबर पर सबसे अधिक सीटें हैं. यहां तक कि अपने राजनीतिक विरोधी द्रमुक का उन्होंने लोकसभा में खाता भी नहीं खुलने दिया था. अब राजनीति का यह शीर्ष पाना अब असंभव-सा है. इतिहास भी इसकी पुष्टि करता है. मसलन 1990 के दशक की लालू प्रसाद की कभी पुनर्वापसी नहीं हो सकी या फिर 2000 के दशक में बसपा सुप्रीमो मायावती को जो राजनीतिक उभार मिला, भविष्य में उसके संकेत अब नहीं दिखते.
कुशलता से राजनीतिक विरासत पर किया कब्जा
1982 में जयललिता ने अभिनय से राजनीति की ओर कदम तब बढ़ाया, जब तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन ने उन्हें अन्नाद्रमुक में शामिल किया. अगले ही साल जयललिता पार्टी की प्रचार सचिव बना दी गयीं. अंगरेजी भाषा पर अच्छी पकड़ के कारण साल भर बाद वे राज्यसभा सदस्य बन गयीं. पर, अपने जीवन के अंतिम वर्षो में कुछ कारणों से रामचंद्रन जयललिता से बहुत प्रसन्न नहीं थे, बावजूद इसके 1987 में उनकी मृत्यु के बाद उन्होंने अन्नाद्रमुक पर बड़ी कुशलता से कब्जा कर लिया. उन्होंने रामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन के नेतृत्व वाले अन्नाद्रमुक के धड़े के महत्व को खारिज कर दिया और खुद को ही रामचंद्रन का राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. जयललिता को इसका लाभ मिला और 1989 के चुनाव में विपक्ष की नेता बन बैठीं और फिर राजीव गांधी की हत्या से उत्पन्न हुई पृष्ठभूमि में 1991 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव जीत गयीं और राज्य की मुख्यमंत्री बन बैठीं. महज नौ वर्ष में वे राज्य की राजनीति के शीर्ष पर पहुंच चुकी थीं, लेकिन तेज उपलब्धि में उनके पतन के संकेत भी छिपे थे. मसलन, लोकतंत्र में शाही शौक पालना. लोकसेवक व जनप्रतिनिधि होते हुए दत्तक पुत्र की शादी में 100 करोड़ रुपये खर्च करना, हजारों साड़ियां, चप्पलें व किलो के हिसाब से जेवर रखना. उस पर इन खर्चो का कोई ज्ञात स्नेत नहीं होना.
स्वामी की भूमिका
जयललिता को भ्रष्टाचार के जिस मामले में सजा हुई है, उसके संबंध में प्राथमिकी उनके मित्र सुब्रयम स्वामी ने ही दर्ज करायी थी. स्वामी ने 18 साल पहले उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का केस दर्ज कराया था और विरोधी पार्टी द्रमुक जब-जब सत्ता में रही उसने इस संबंध में सबूतों को एकत्र कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी. द्रमुक के प्रयासों से यह मामला तमिलनाडु के बजाय कर्नाटक में चला. इसके पीछे तर्क यह था कि वे सीएम रहते तमिलनाडु में इस केस को प्रभावित कर सकती हैं. जयललिता ने स्वामी के उकसावे में आकर एक बार वाजपेयी सरकार को बड़े गैर जिम्मेदाराना ढंग से गिरा दिया था, अब वही स्वामी आज उनके सक्रिय राजनीतिक जीवन पर पूर्ण विराम लगाते नजर आ रहे हैं.
राजनीति के स्वच्छता काल की शुरुआत के संकेत
भारतीय राजनीति तेजी से बदल रही है. अधिनायकवादी, भ्रष्ट, भोगवादी, निरंकुश और गैरजिम्मेवार राजनीतिक सत्ता पर तेजी से रोक लगाने का जन मानस तो बन ही रहा है, अदालत का भी डंडा उन पर पड़ रहा है. गिफ्ट की राजनीति से अब जनता परहेज करने लगी है. जयललिता इसकी ताजा उदाहरण हैं. लालू प्रसाद, ओमप्रकाश चौटाला जैसे अपने-अपने राज्यों के कद्दावर नेताओं के मामले से यह तथ्य व सत्य को प्रमाणित कर चुका है. इनके अलावा और भी कई छोटे-बड़े नेता इस कड़ी में हैं. इन नेताओं के राजनीतिक औचित्य पर सवाल उठना व सीधे तौर पर राजनीतिक सत्ता का स्वाद भोगने पर रोक लगना तो एक शुरुआत भर है, मौजूदा स्थितियां संकेत कर रही हैं कि आनेवाले दिनों में कई राजनेताओं का राजनीतिक कैरियर पर पूर्ण विराम लगेगा. जयललिता इस मायने में खास हैं कि जब उन्हें सजा हुई तब उनके पास मजबूत सरकार है और सांसदों की संख्या बल का रसूख भी केंद्रीय राजनीति में है, जिनकी जरूरत स्पष्ट बहुमत वाली सरकारों को भी कई मौकों पर पड़ती है.
दूसरे राजनेताओं के लिए संदेश भी
जनता से प्राप्त राजनीतिक सत्ता का दुरुपयोग करने के बाद उस किये की सजा भुगतने के इन उदाहरणों से एक सीख तो दूसरे राजनेताओं को मिलती ही है कि वे सत्ता को निजी संपत्ति न मानें, जनता के राजकोष को अपनी निजी कोष नहीं मानें, पद व शक्ति के अहंकार में जनता के प्रति ही अपनी जिम्मेवारी को न भूल जायें और यह मान कर चलें कि वे सिर्फ केयर टेकर की भूमिका में हैं, असली मालिक तो जनता ही है. राजनीति के इस स्वच्छता काल का आम भारतीयों को तो स्वागत करना ही चाहिए.

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