उड़ीसा के मुख्यमंत्री व बीजद नेता नवीन पटनायक की तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी भाजपा से नाता तोड़ने का मन बना लिया है. हालांकि नवीन व नीतीश के राजनीतिक व सामाजिक समीकरणों में काफी फर्क है. नीतीश अपनी जाति के अलावा महादलित, अति पिछड़ा व मुसलमानों का अपना वोट बैंक मान रहे हैं. लेकिन जमीनी हकीकत महराजगंज के उपचुनाव के बाद साफ हो गया है.
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख बनाये जाने के बाद से ही नाराज नीतीश के करीबियों ने कहा है कि गठबंधन टूट चुका है. हालांकि दोनों दलों के वरिष्ठ नेता इसपर साफ तौर पर कुछ कहने से बच रहे हैं. लेकिन माना जा रहा है कि नीतीश अपनी तथाकथित राजनीतिक मजबूरियों के कारण भाजपा से रिश्ता तोड़ सकते हैं.
अब सवाल उठता है कि इस रिश्ते के टूटने से किसे घाटा होगा. बिहार के सामाजिक समीकरणों के हिसाब से देंखे तो सवर्णों की संख्या लगभग 14 फीसदी है. माना जा रहा है कि इसका अधिकांश वोट वर्तमान में भाजपा के साथ है. साथ ही लगभग 8 फीसदी बनियों का वोट भी बीजेपी के खाते में ही जाता है. अगर भाजपा से जदयू अलग होती है तो यह वोट बैंक खिसक सकता है. इसके अलावा हिन्दुवादी वोट भी जदयू से नाराज हो सकता है.
वहीं जदयू कुर्मी, अतिपिछड़ा, महादलित व मुसलमानों को अपना वोट मान रही है. जबकि पिछले चुनावों के वोट को देखें तो यह वोट जदयू के हिस्से में नहीं गया है. यह वोट बैंक उम्मीदवारों के हिसाब से बदलता रहा है. मात्र कुर्मी जाति का वोट ही जदयू के खाते में गया है. हालांकि उम्मीदवारों के जाति के हिसाब से भी हर जाति का वोट जदयू को मिला है. पिछले विधानसभा चुनाव में जदयू को 22.6 फीसदी वोट हासिल हुआ था. जबकि बीजेपी 16.46 फीसदी मत हासिल हुआ था.
भाजपा-जदयू में अलगाव होता है, तो इसका सबसे अधिक फायाद राजद को होने की संभावना है. अगर राजद के पिछले विधानसभा चुनाव के वोट को देंखे तो उसे 16.8 फीसदी वोट मिला था. जबकि पिछले चुनाव में राजग की लहर थी. हालांकि इस बार माना जा रहा है कि यादवों व मुसलमानों का सिर्फ वोट मिलता है तो लगभग 30 फीसदी वोट होगा. अगर नीतीश सरकार के कार्यकलाप से 5 से 7 फीसदी जनता का वोट हासिल होता है तो राजद दुबारा सत्ता पर काबिज हो सकता है.
!!इंटरनेट डेस्क!!