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आधुनिक भारत के गढ़ने का आख्यान

महात्मा गांधी अक्सर कहते थे कि भारत की आत्मा उसके गांवों में निवास करती है. आजादी के समय भारत अधिकांशत: किसानों और मजदूरों का देश था. इसकी करीब तीन-चौथाई आबादी कृषि कार्य में लगी हुई थी और देश का साठ प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद भी इसी क्षेत्र से आता था. इसके साथ ही देश में […]

महात्मा गांधी अक्सर कहते थे कि भारत की आत्मा उसके गांवों में निवास करती है. आजादी के समय भारत अधिकांशत: किसानों और मजदूरों का देश था. इसकी करीब तीन-चौथाई आबादी कृषि कार्य में लगी हुई थी और देश का साठ प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद भी इसी क्षेत्र से आता था. इसके साथ ही देश में एक छोटा सा लेकिन विकासशील औद्योगिक क्षेत्र भी मौजूदा था जिसमें यहां की करीब 12 फीसदी श्रमशक्ति लगी हुई थी और जो देश के 25 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद में योगदान करता था.

सन् 1940 के एक सव्रेक्षण के मुताबिक देश के जनजीवन का चित्रण कुछ इस तरह किया गया था- जिंदगी में उसी तरह की सादगी है, मौसम की अनिश्चितता उनसे उसी तरह आंख मिचौली करती है (कुछ दुलारे इलाके को छोड़कर), खेल और गीतों के प्रति उसी तरह का प्यार है, लोग पड़ोसियों की मदद करने को उसी तरह से तत्पर रहते हैं और पूरे देश के लोग पहले की तरह ही कर्ज में डूबे रहते हैं.

जब सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई थी, लगभग तभी से भारतीय राष्ट्रवादी नेता अंग्रेजी सरकार पर किसानों के शोषण का आरोप लगाते आ रहे थे. उन्होंने तय किया कि सत्ता जब उनके हाथ में आयेगी तो वे कृषि सुधार को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखेंगे. इनमें से तीन कार्यक्रम सबसे अहम थे. पहला भू राजस्व व्यवस्था का खात्मा, दूसरा सिंचाई सुविधाओं में व्यापक बढ़ोतरी और तीसरा जमीन पर मालिकाना हक में सुधार.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंदर के समाजवादी तत्वों के संगठन पर दबाव डाला कि वो पूर्ण भूमिसुधार, बड़े जोतों की समाप्ति, रैयतों-किसानों के हक की सुरक्षा और अतिरिक्त जमीन के पुनर्वितरण पर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करें. उन्होंने किसानों को कर्ज देने की योजनाओं के विस्तार पर जोर लगा दिया ताकि ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर कर्ज में जी रहे लोगों को इससे निजात मिल सके.

लेकिन जैसा कि राष्ट्रवादी नेताओं ने भी महसूस किया कि कृषि सुधार के साथ-साथ देश में औद्योगिक विकास को भी बढ़ावा देना होगा. देश के ग्रामीण इलाकों के अतिरिक्त बेरोजगारों की फौज को रोजगार में खपाने के लिए ज्यादा से ज्यादा कल-कारखानों की जरूरत थी. इन कल-कारखानों की इसलिए भी जरूरत थी ताकि साबित किया जा सके कि देश आधुनिकता की राह पर है. दुनिया के विकसित और सभ्य देशों की कतार में बैठने के लिए हिंदुस्तान को साक्षरता, एकीकरण, विश्वदृष्टि और सबसे ज्यादा औद्योगीकरण की सख्त जरूरत थी.साम्राज्यवादी जमाने में अंग्रेजों द्वारा चलाये जा रहे कारखानों और भारतीय द्वारा चलाये जा रहे कारखानों में बहुत अंतर था. उदाहरण के लिए जूट उद्योग अधिकांशत: विदेशियों के हाथों में था जबकि सूती मिले ज्यादातर भारतीयों के हाथों में थीं. ब्रिटिश राज पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता था (जो ज्यादातर सही ही था) कि वह भारतीयों द्वारा चलाये जा रहे उद्योग-धंधों के साथ भेदभाव करता है.

लेकिन सवाल यह था कि अगर भारत को औद्योगीकरण की राह पर आगे बढ़ना है तो इसे कौन का मॉडल अपनाना चाहिए? राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के लिए ह्यसाम्राज्यवाद और ह्यपूंजीवाद दोनों ही एक गंदे शब्द थे. तो फिर विकल्प क्या था? कुछ राष्ट्रवादियों ने प्रशंसा भरे लहजे में सोवियत संघ के बारे में लिखा जिसने आधुनिक वैज्ञानिक प्रणालियों का असधारण उपयोग कर अपनी गरीबी और कई क्षेत्रों में अभाव की समस्या से निजात पायी थी और महज दो दशकों में अर्ध-पोषित किसानों वाले देश से एक खाते-पीते औद्योगिक श्रम वाले मुल्क में तब्दील हो गया था.

सन् 1938 में कांग्रेस ने एक नेशनल प्लानिंग कमेटी (राष्ट्रीय योजना समिति, एनपीसी) का गठन किया था जिसका काम आजादी के बाद देश के आर्थिक विकास की नीतियों का खाका खींचना था. आजादी नजदीक लग रही थी और इसकी संभावना तीव्र हो चुकी थी. इस कमेटी की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की थी और इसमें तेरह सदस्य थे. इनमें विज्ञान, उद्योग और राजनीति जगत से बराबर संख्या में सदस्य थे. इस कमेटी में कई उप समितियों का भी गठन किया गया जिन्हें अलग-अलग विषय मसलन कृषि, उद्योग, विद्युत शक्ति और ईंधन, वित्त, समाजसेवा और यहां तक की योजनागत अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका- तक सौंपे गये. कमेटी ने राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता और आम जनता के जीवनस्तर को दस सालों में दोगुना करने के लक्ष्य को अपने मुख्य लक्ष्य के तौर पर रेखांकित किया.

इस कमेटी ने जापान और रूस के विकास मॉडल से सबक लिया कि जिन राष्ट्रों ने देर से औद्योगीकरण की राह पर कदम रखा था वहां सरकार का हस्तक्षेप जरूरी माना गया. भारत में इसकी और भी आवश्यकता थी जिसकी अर्थव्यवस्था पिछले दो शताब्दियों के साम्राज्यवादी शासन के अधीन तोड़मरोड़ दी गयी थी. बंबई योजना को अब आमतौर पर भुला दिया गया है लेकिन यह योजना इस बात को गलत साबित करती है कि जवाहरलाल नेहरू ने अनिच्छुक पूंजीपतियों के वर्ग पर एक केंद्रीकृत योजना थोप दी थी. पता नहीं मुक्त अर्थव्यवस्था के पैरोकार अब इस पर क्या सोचते हैं. शायद वे इसे केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था का आख्यान कहेंगे जो पूंजीवाद और पूंजीपतियों के लिए उपयुक्त नहीं है. सच्चई तो यह है कि इसे तत्कालीन समय की भावनाओं का अभिव्यक्तिकरण समझा जाना चाहिए.

सन् 1951 की गर्मियों में योजना आयोग ने पहली पंचवर्षीय योजना का मसौदा जारी किया. इसमें कृषि विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया जो बंटवारे में सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था. खाद्य उत्पादनों को बढ़ावा देने के अलावा आयोग ने परिवहन और संचार के साधनों का विकास और अन्य सामाजिक सेवाओं पर ध्यान केंद्रित किया. इस योजना के प्रस्ताव को संसद में पेश करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने इसकी तारीफ की और कहा कि यह योजना अपने आपमें पहली तरह की योजना है जो पूरे भारत को कृषि, औद्योगिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से एक सोच के दायरे में लाने जा रही है. उन्होंेने कहा कि आयोग के कार्यो ने पूरे देश को योजना के बारे में जागरूक कर दिया है.

पहली योजना को शुरू करते हुए नेहरू ने कहा था कि ये मुङो स्पष्ट लग रहा है कि हमें भारत का औद्योगीकरण करना है और जितनी जल्दी ये हो सके उतना ही अच्छा है. उस उद्देश्य को दूसरी पंचवर्षीय योजना में अहम जगह दी गयी. इसका मसौदा प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने तैयार किया था जिन्होंने कैम्ब्रिज में भौतिकी और सांख्यिकी की पढ़ाई की थी. महालनोबिस संस्कृत दर्शन और बंगाली साहित्य में गहरे धंसे हुए थे. कुल मिलाकर वे एक ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के शानदार व्यक्ति थे जिन्हें नेहरू को पसंद आना ही आना था. इसके अलावा महालनोबिस ही वह व्यक्ति थे जो भारत में आधुनिक सांख्यिकी लेकर आये थे. सन् 1931 में उन्होंने कलकत्ता में भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आइएसआइ) की स्थापना की. एक दशक के भीतर ही उन्होंने आइएसआइ को विश्वस्तरीय प्रशिक्षण और शोध का केंद्र बना दिया. उन्होंेने अंतर-विषयक शोध के क्षेत्र में भी अग्रणी भूमिका निभायी और अपनी सांख्यिकी तकनीकों का मानवविज्ञान, कृषिविज्ञान और मौसम विज्ञान के क्षेत्र में बखूबी इस्तेमाल किया.

फरवरी 1949 में महालनोबिस को केंद्रीय मंत्रिमंडल का मानद सांख्यिकी सलाहकार नियुक्त किया गया. अगले साल उन्होंने नेशनल सैम्पल सव्रे (एनएसएस) की स्थापना में मदद दी और उसके अगले साल उन्होंने केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के गठन में अहम भूमिका निभायी. इन संस्थानों का गठन भारत में बदलती जीवन शैली पर मजदूरी, रोजगार, उपभोग और अन्य प्रवृतियों के विश्वसनीय आंकड़े जुटाने के लिए किया गया. एनएसएस और सीएसओ ही वो दो संस्थाएं हैं जिनकी वजह से भारत में पश्चिमी देशों के बाद सबसे ज्यादा विश्वसनीय सरकारी आंकड़े उपलब्ध हैं.

सन् 1954 में नेहरू ने अपनी पार्टी और देश से वादा किया कि वे एक समाजवादी व्यवस्था के तौर-तरीकों की तरफ बढ़ने की कोशिश करेंगे. उसी साल सरकार ने आइएसआइ से कहा कि वो बेरोजगारी की समस्या पर एक अध्ययन करे. महालनोबिस ने उस विषय पर एक नोट तैयार किया. ऐसा लगता है कि उस नोट ने नेहरू को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने दूसरी पंचवर्षीय योजना का मसौदा तैयार करने का काम आइएसआइ को ही सौंप दिया.

आजादी के वक्त भारत में दो ही इस्पात के कारखाने थे जो निजी क्षेत्र द्वारा संचालित थे और उनमें महज दस लाख टन से कुछ ही ज्यादा इस्पात का उत्पादन होता था. यह उत्पादन एक फैलती हुई अर्थव्यवस्था के लिए जिसने भारी उद्योगों के विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जतायी थी.निजी क्षेत्र को इस्पात उत्पादन के क्षेत्र में आने से मना कर दिया गया था. इसे कोयला, जहाज निर्माण, परमाणु ऊर्जा और हवाई जहाज के निर्माण की तरह ही मुनाफा कमाने लायक उद्योग नहीं समझा गया था. दूसरी योजना में 60 लाख टन इस्पात कके उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था. जब दूसरी योजना को अंतिम रूप दिया जा रहा था तो उसी वक्त भारत सरकार ने तीन अलग-अलग इस्पात के निर्माण का समझौता किया.

उड़ीसा के राउरकेला में जर्मनी के सहयोग से, मध्यप्रदेश के भिलाई में रूस के सहयोग से और पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में इंग्लैड के सहयोग से इस्पात कारखाना स्थापित किया जाना था. इस समझौते से अमेरिकियों को काफी निराशा हाथ लगी. खरुश्चेव ने भिलाई का दौरा किया और इसे भारत का मैग्नीटोगोरस्क बताया. प्राब्दा ने इस पर शानदार फोटो फीचर प्रकाशित किया और भिलाई को भारत-सोवियत सहयोग का प्रतीक बताया. भिलाई में भारतीय और रूसियों ने कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था. उन्होंने जमीन को साफ किया, सड़कें और मकान बनाये और इस्पात कारखाने को खड़ा किया. एक वरिष्ठ अधिकारी ने भारतीय इस्पात उद्योग को एक ही समय एक तकनीकी विद्यालय और दूसरे अन्य औद्योगिक गतिविधियों के लिए प्रेरक के रूप में परिभाषित किया. इस्पात संयत्र उस मान्यता को खारिज कर रहा था कि भारत के लोग अनुत्पादक और पूर्व वैज्ञानिक युग से ताल्लुक रखते हैं या यूं कहें कि वे पिछड़े हुए हैं.

भारत के आर्थिक आधुनिकीकरण के इतिहास में नदियों पर बने बड़े-बड़े बांधों की काफी महत्वपूर्ण भूमिका है. एक तरफ ये बांध मानूसन के चंगुल से कृषि को उबारने वाले थे, तो दूसरी तरफ वे उद्योगों के लिए बिजली मुहैया करानेवाले थे जिसे पंचवर्षीय योजना के तहत तवज्जो दी गयी थी. जवाहरलाल नेहरू इन बांधों को देखकर काफी अभिभूत थे जिसे उन्होंने आधुनिक भारत का मंदिर कहा था. सन् 50 के दशक के मध्य में राजनीति विज्ञानी हेनरी हार्ट ने नये भारत की नदियों के रूपांतरण का एक संगीतमय विवरण लिखा. हार्ट के मुताबिक ये परियोजनाएं नये भारत के लिए महान निर्माण कार्य थे. झुंड के झुंड तादाद में देश के लोग तीर्थयात्रियों की तरह इन परियोजनाओं के तहत बन रहे बिजली घरों, नहरों और बांधों को देखने के लिए आते.

भारत को औद्योगीकरण की राह पर तेजी से आगे बढ़ाने के लिए तकनीकी और तकनीकी विशेषज्ञों की अहम भूमिका होने वाली थी. कैम्ब्रिज में अपने छात्र जीवनकाल से ही जवाहरलाल नेहरू आधुनिक विज्ञान के चमत्कारों से अभिभूत थे. नेहरू चाहते थे कि जिस बात को वे वैज्ञानिक मिजाज कहते हैं उसे राजनीति सहित मानव गतिविधियों के हरके क्षेत्र की अभिवृद्धि करनी चाहिए.

नेहरू के सक्रिय निर्देशन में आधुनिक शोध प्रयोगशालाओं की एक श्रृंखला की स्थापना की गयी. एक भारतीय वैज्ञानिक जिसे नेहरू ने शुरू से ही लगातार संरक्षित और प्रोत्साहित किया था वे थे कैम्ब्रिज में पढ़े भौतिकशास्त्री होमी भाभा. भाभा ने दो महत्वपूर्ण वैज्ञानिक संस्थानों की स्थापना और उसका निर्देशन किया.

उस दरम्यान कई सारे नये इंजीनियरिंग कॉलेजों की भी स्थापना की गयी. इनमें इंजीनियरिंग के अग्रणी संस्थान आइआइटी शामिल थे, जिनमें से पांच की स्थापना तो 1954 से 64 के बीच ही हो गयी थी. नयी प्रयोगशालाओं की तरह ही नये कॉलेजों की स्थापना भी स्वदेशी तकनीकी क्षमता और आत्मनिर्भरता हासिल करने के उद्देश्य से की गयी.एक आधुनिक तकनीक जिस पर गांधीवादियों को कड़ी आपत्ति थी, वो थी बड़े बांधों का निर्माण. वे उन्हें खर्चीला और प्रकृति विनाशक मानते थे. उस पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान मुक्त बाजार, मानव संसाधन विकास और पर्यावरण संतुलन के पैरोकार आलोचक आज के संदर्भ में हमें अभिभूत कर देते हैं. लेकिन उस वक्त विरोध के ये स्वर बिखरे हुए थे और राजनीतिक रूप से कमजोर थे. उस समय भारी उद्योगों के आधार पर विकास और राज्य के नियंत्रण वाले विकास मॉडल पर भारी सहमति थी. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि जहां भी कहीं मैं इन महान इंजीनियरिंग के चमत्कारों को देखता हूं मैं उत्तेजित हो जाता हूं. वे नये भारत के निर्माण और हमारी जनता को जीवन और आधार देने के जीते-जागते सबूत हैं. ऐसा लगता है कि यह उत्तेजना और अभिभूत होने का अहसास अधिसंख्य भारतीयों द्वारा भी वैसे ही महसूस किया जा रहा था.

– भारत गांधी के बाद का संपादित अंश से साभार

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