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दमदार दीदी

अभी हाल में हमने खबरों के जरिये जाना था कि किस तरह ममता दीदी आइएएस अधिकारियों के तबादले के मसले पर चुनाव आयोग से भिड़ गयीं और उनका आदेश मानने से इनकार कर दिया. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के ये तेवर अब हमें हैरत में नहीं डालते. वे भारतीय राजनति की ऐसी चरित्र हैं […]

अभी हाल में हमने खबरों के जरिये जाना था कि किस तरह ममता दीदी आइएएस अधिकारियों के तबादले के मसले पर चुनाव आयोग से भिड़ गयीं और उनका आदेश मानने से इनकार कर दिया. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के ये तेवर अब हमें हैरत में नहीं डालते. वे भारतीय राजनति की ऐसी चरित्र हैं जो कब कौन सा कदम उठा लेंगी यह अनुमान लगाना आसान नहीं होता. इसी तरह पिछले दिनों राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उन्होंने मीडिया के सामने यह कह कर लोगों को चौका दिया था कि वे चाहती हैं मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति बनाया जाये. उसी तरह उन्होंने रेल भाड़ा बढ़ाये जाने के मसले पर उन्होंने यूपीए सरकार से नाता तोड़ लिया. इसके बावजूद ममता बनर्जी के हैसियत को भारतीय राजनीति में नकारा नहीं जा सकता. क्योंकि एक कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में राजनीति शुरू करने वाली इस महिला ने जिस तरह अपनी पार्टी बनाकर बंगाल से 34 साल पुरानी वाम सरकार को उखाड़ फेंका यह भारतीय राजनीति के इतिहास का कभी भुला न पाने वाला दृष्टांत है. वे आज मुख्यमंत्री जरूर हैं, मगर उनके तेवर में बदलाव नहीं आया है.

कोलकाता के निम्न मध्यम परिवार में 5 जनवरी 1955 को पैदा हुई ममता बनर्जी अपने स्कूली दिनों से ही राजनीति से जुड़ गयी थीं और बहुत जल्द वे कांग्रेस की बंगाल के महिला इकाई की महासचिव बन गयीं. 1976 से 1980 तक वे इस पद पर बनी रहीं. 1984 में महज 29 साल की उम्र में वे जादवपुर संसदीय क्षेत्र से जाने-माने वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी को पराजित कर सांसद बनी. उस वक्त वे तब तक की सबसे कम उम्र की सांसद थीं. फिर वे अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की महासचिव बन गयीं. 1989 में वे कांग्रेस विरोधी लहर में चुनाव हार गयीं मगर 1991 में उन्होंने दक्षिणी कोलकाता सीट पर जीत के साथ वापसी की. 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 के चुनाव में वे इसी सीट से जीत का परचम लहरा चुकी हैं. वाम सरकार के खिलाफ कांग्रेस के ढुल-मुल रवैये ने 1997 में उन्हें कांग्रेस से अलग होकर अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस के गठन पर मजबूर किया.

2011 में महज 14 साल पुरानी इस पार्टी ने बंगाल से 34 साल पुरानी वाम सरकार को पदस्थापित कर दिया और उनका बंगाल की मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा हुआ. हालांकि इस बीच वे बारी-बारी से केंद्र की एनडीए और यूपीए सरकारों में साझीदार रहीं और रेल मंत्रालय और कोयला मंत्रालय समेत कई जिम्मेदार मंत्रलयों का कार्यभार संभाला. इन राजनीतिक उपलब्धियों के बीच अगर उनके नंदीग्राम संघर्ष का उल्लेख न हो तो उनकी कहानी पूरी नहीं हो सकती. 2007 में बंगाल के इस इलाके में वहां की वाम सरकार 10 हजार एकड़ जमीन पर सेज तैयार करना और इस जमीन को इंडोनेशिया के सलीम समूह को देना चाह रही थी. इसके विरोध में गांव वाले प्रदर्शन कर रहे थे. गांव वालों के समर्थन में ममता बनर्जी ने जिस तरह मोरचा थाम लिया वह आज के राजनैतिक माहौल में एक दुर्लभ उदाहरण था. उनके वहां पहुंचने की वजह से ही मामला राष्ट्रीय स्तर का हो गया और हिंसक घटनाओं के बावजूद सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा. इसी वजह से नंदीग्राम देश भर में बहस का मुद्दा बन गया और वाम पंथी दलों की जन पक्षधरता सवालों के घेरे में आ गयी.

ममता के साथ विवादों का भी गहरा नाता रहा है. अपनी ही पार्टी के रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को रेल भाड़ा बढ़ाने का फैसला लेने पर उन्होंने जिस तरह हटाया और एक काटरूनिस्ट द्वारा उनके खिलाफ काटरून बनाने पर जिस तरह उसे रात भर हवालात में रखा गया ये उदाहरण ममता की छवि को न सिर्फ विवादास्पद बनाते हैं बल्कि उन्हें एक तानाशाह की छवि भी देते हैं.

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