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बदल रहे है खाड़ी के शेख

-वाशिंगटन डीसी से हरिवंश- फ्रैंकफर्ट-वाशिंगटन उड़ान में विदेशी लोगों की भरमार है. दिल्ली फ्रैंकफर्ट उड़ान में अच्छी संख्या में भारतीय थे. खासतौर से सिख और भारतीय. फ्रैंकफर्ट तक विमान में अंग्रेरजी के साथ-साथ हिंदी में भी सूचना दी जाती थी. फ्रैंकफर्ट में जर्मन-अंगरेजी है. हिंदी पिछड़ रही है. यह एहसास हिंदीवालों को नहीं है. एक […]

-वाशिंगटन डीसी से हरिवंश-

फ्रैंकफर्ट-वाशिंगटन उड़ान में विदेशी लोगों की भरमार है. दिल्ली फ्रैंकफर्ट उड़ान में अच्छी संख्या में भारतीय थे. खासतौर से सिख और भारतीय. फ्रैंकफर्ट तक विमान में अंग्रेरजी के साथ-साथ हिंदी में भी सूचना दी जाती थी. फ्रैंकफर्ट में जर्मन-अंगरेजी है. हिंदी पिछड़ रही है. यह एहसास हिंदीवालों को नहीं है. एक मित्र चिंतित थे कि यही स्थिति रही तो 100 वर्षों में इस भाषा को पुन: किसी भारतेंदु हरिचंद की जरूरत पड़ेगी. खुलती दुनिया को देख कर यही लगता है. व्यवसाय-रोजगार का बोलबाला है. नयी दुनिया बन रही है.

पुरानी छीज रही है. यह नयी दुनिया है, नयी कारोबारी संस्कृति की. पर नयी हिंदी का फैलाव रोजगार-कारोबार में नहीं हो रहा. खाड़ी के देश आगे दौड़ा रहे है. तेल के पैसे का शेख अब समझदारी से इस्तेमाल कर रहे है. अपने बाल-बच्चों को पश्चिमी देशों में पढ़ा रहे है. दुनिया के जो चुनिंदे 25-30 बिजनेस स्कूल है, उनमें शेखों के लड़कों की बहुतायत है. यह पीढ़ी जब पूरी तरह कारोबार में उतरेगी, तो खाड़ी के देश तिजारत में भी (सिर्फ तेल से नहीं) अपनी जगह बनायेंगे. भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान को इस भविष्य को समझना होगा.

इस नयी दुनिया में मुझे बिहार की स्मृति बार-बार झकझोती है. उसकी क्या जगह होगी ?अटलांटिक महासागर के ऊपर से विमान उड़ता है. आसमान जितना गहरा नीला दिखता है, उतना ही नीचे का महासागर, विराट ब्रह्मांड की झलक, मनुष्य ने अपने सृजन से कितना कुछ नया है. दुनिया को ढूंढ़ने में कोलंबस-वास्कोडिगामा को कितने वर्ष लगे ? कितनी कठिनाइयां झेली. इन दोनों के पूर्व न जाने कितने लोग खत्म हो गये होंगे, पर आज उस कुरबानी पर ही तो दुनिया में ‘ग्लोबलाइजेशन’ का सपना देखा जा रहा है. दुनिया गांव बन रही है.पश्चिमी हवाई जहाज में बूढ़े लोगों का आदर है. बच्चों-महिलाओं से भी पहले उन्हें चढ़ाते हैं. फिर दूसरों को न्योतते हैं.

24 सितंबर : रात के एक बजे हैं. नींद उचटती है. 24 को सुबह 2.40 बजे (23 सितंबर की रात) चल कर तकनीकी रूप से उसी दिन शाम हम अमेरिका पहुंचे. शाम 4.10 पर यह समय का मायाजाल है. भारत से चल कर अमेरिका-वाशिंगटन (डीसी) पहुंचने में कुल चौबीस घंटे लगते हैं. बीच में चार घंटे फ्रैंकफर्ट हवाई अड्डे पर विमान की प्रतीक्षा में लगभग 20 घंटे की इस विमान यात्रा ने थका दिया है, सो शाम होटल आते ही नींद आती है.
35000 फीट की ऊंचाई पर महासागरों के ऊपर विमान के लगातार उड़ने के बावजूद विमान यात्रा में कोई घबड़ाहट नहीं है. सुरक्षा सूचना कॉर्ड पर दर्ज है और घोषणा में भी उल्लेख किया जाता है कि सुरक्षा के उपाय पढ़ लें, हालांकि इनके उपयोग की जरूरत नहीं पड़ेगी. यानी विमान यात्रा पूर्ण सुरक्षित है. पश्चिम का यह आत्मविश्वास उल्लेखनीय है. भारत की हवाई यात्रा का जिन्हें अनुभव है, वे इस तथ्य को समझ सकते हैं. वाशिंगटन का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, डलेस 1970 में बना. वजीनिया स्टेट में है. वहां से 40 मील, वाशिंगटन डीसी है. हवाई अड्डे पर उतरते-उतरते हम यात्रा से पस्त हो गये है.
अमेरिकी कस्टम अधिकारी बहुत तेज गति से काम करते हैं. विमान में ही परिचारिका अमेरिका में प्रवेश संबंधी अनुमति फार्म देती है. दोनों फार्म भरकर तैयार रखने हैं. पासपोर्ट के साथ उन्हें अधिकारी को देना पड़ता है. काउंटर पर भीड़ नहीं है. दूर पीली रेखा है.
यह लक्ष्मण रेखा है. इससे आगे एक-एक व्यक्ति ही जा सकता है.
बाहर आते ही स्वागत में हर्बर्ट स्मिथ मिलते हैं. अगवानी में आये हैं. काले हैं. हंसमुख और खुले. वाशिंगटन डेलेस, हवाई अड्डा दुनिया के आधुनिक हवाई अड्डों में से एक है. विमान से यात्रियों को उतारने से लेकर हवाई अड्डे तक लाने में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल है. तीसरी दुनिया में जब तक ये तकनीक पहुंचेगी, तब तक इनके यहां कुछ दूसरी नयी, तकनीक कार्यरत होगी. यात्रियों को कम से कम परेशानी हो, इसका प्रबंध है. यात्री भी हौसलाअफजाई करते हैं. वाशिंगटन एयरपोर्ट पर अतिसुविधापूर्ण तरीके से विमान उतारने पर विमान चालकों (क्रु) का यात्री ताली बजाकर स्वागत करते हैं.
हवाई अड्डे से वाशिंगटन राजधानी 40 मील है. हर्बर्ट स्मिथ बताते हैं. पहले यहां (25-30 वर्षों पूर्व) जंगल था, वाशिंगटन, दलदल पर बसाया गया शहर है. काफी चौड़ी सड़कें है. कई लेन हैं. दोनों बाजू बड़े और सुंदर भवन हैं. दूर-दूर पर पता चलता है कि कंप्यूटर कंपनियों के बोर्ड दिखते हैं. विशालकाय और सुंदर भवनों पर नाम खुदे है. सड़कें बिल्कुल साफ-सुथरी हैं. सड़कों के आसपास की जमीनों पर सुंदर हरी घास उगी हैं. दोनों तरफ बड़े और छतनार घने पेड़ हैं. टपकती हरियाली. कुछ दूर ट्रेन की पटरियां भी साथ चलती हैं.

तार के बाड़े से घिरी हुई. आजू-बाजू घास का सुंदर मैदान भारत में ट्रेन की पटारियों के अगल-बगल (खासतौर से महानगरों में) गंदगी भरी है. लोगों के घर हैं. दुर्गंध है. बीमारी है. अमेरिका या यूरोपीय देशों की इस सफाई-समृद्धि के पीछे एक मूल वजह है. कम जनसंख्या. अमेरिकी वीसा पाना टेढ़ी खीर है. लोगों की भीड़ न बढ़े, इसलिए अमेरिकी विदेश विभाग पुलिस और कस्टम अधिकारियों की चौकसी देखी जा सकती है. दुनिया के दूसरे देशों में लोगों को यहां आने से ये हतोत्साहित करते हैं. प्रतिभाओं को बुलाते हैं. रखते है नागरिकता और हरसंभव सुविधाएं देते है.

दूसरी ओर भारत में बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका से आनेवाली भीड़ है. राजसत्ता के नुमाइंदों को घूस देकर वाशिंगटन सुंदर है. बड़े-बड़े भवन शानदार और खूबसूरत. विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की बड़ी इमारतें हैं. आमने-सामने बगल में ही हमारा होटल है, ‘इबैंसी एस्क्कायर शूट्स’ 2000 एन स्ट्रीट. होटल यूरोपीय कला का भव्य नमूना है. नीचे काउंटर पर सिर्फ दस्तख्त करना पड़ता है. कमरे में सामान पहुंचाते हैं. टिप्स देना अनिवार्य है. होटल-रेस्टूरेंट में कुल बिल का 15 फीसदी तक. कमरे अत्यंत साफ-सुथरे आरामदेह किचेन है.

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