Shardiya Navratri 2022: देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न तरीकों से नवरात्रि पर देवी दुर्गा की आराधाना की जाती है. बिहार की बात करें तो यहां आमतौर पर नवरात्रि के पहले दिन घटस्थापना की जाती है. जबकि देश के अलग-अलग इलाके में कुछ लोग पूरी रात गरबा और आरती कर नवरात्रि मनाते हैं, तो वहीं कुछ लोग व्रत और उपवास रख मां दुर्गा और उनके नौ स्वरूपों की पूजा करते हैं. बिहार के भागलपुर में भी अनोखे अंदाज में देवी की आराधाना की जाती है.
भागलपुर के नाथनगर में भी एक ऐसा देवी मंदिर है. जहां अकबर के शासनकाल से पूजा होती आ रही है. हम बात कर रहे हैं मशहूर देवी महाशय डयोढ़ी दुर्गा मंदिर की. इस मंदिर में पूजा का अंदाज लगभग देशभर के सभी देवी मंदिरों से अलग है. यहां नवरात्रा शुरू होने से एक सप्ताह पहले से इस मंदिर मे सबसे पहले बोधन घट भरने और कलश स्थापित कर मां दुर्गा का आवाहन किया जाता है. स्थानीय जानकार बताते हैं कि महाशय ड्योढ़ी स्थित दुर्गा मंदिर में मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल से देवी महिषासुरमर्दिनी की धूमधाम से पूजा होती आ रही है. इसलिए एक मशहूर कहावत भी प्रचलित है ‘काली मां कलकत्ते की और दुर्गा मां महाशय डयोढ़ी की. कहा जाता है कि यहां सच्चे मन से पूजा करने वाले भक्त मां के दर से कभी खाली हाथ नहीं लौटते हैं.
स्थानीय जानकार बताते हैं कि नाथनगर के महाशय ड्योढ़ी निवासी श्रीराम घोष अकबर के शासनकाल में कानून गो थे. उन्होंने ही यहां देवी की पूजा की शुरुआत की थी. तब से आयोजन अनवरत जारी है. पहले यहां सुबह-शाम शहनाई वादन होता था, जो अब अतीत के पन्नों में सिमट गया है. इस समय श्रीराम घोष की 22वीं पीढ़ी पूजा पूजा व्यवस्था संभाल रही है. स्थानीय लोगों ने बताया कि यहां मां दुर्गा देवी की पूजा आज भी पौराणिक रीति से ही देवी की पूजा होती है. दुर्गा मंदिर परिसर में बाबा भैरव नाथ, बाबा बासुकीनाथ के साथ देवी दुर्गा की ख्याति इतनी है कि दूर-दूर से लोग मन्नतें मांगने पहुंचते हैं.
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बता दें कि श्रीराम घोष बंगाली समुदाय से आते थे. इस वजह से महाशय ड्योढ़ी के प्रांगण स्थित दुर्गा मंदिर में बंगाली विधि विधान से मां दुर्गा की पूजा की जाती है. नवरात्रा शुरू होने से एक सप्ताह पहले से इस मंदिर मे सबसे पहले बोधन घट भरने और कलश स्थापित कर मां दुर्गा का आवाहन किया जाता है. परिवार के वंशज महाशय अरविंद घोष की मानें तो जब धरती पर अशांति फैल गई थी, तब इंद्र भगवान ने मां दुर्गा को अशांति को शांति में लाने के लिए धरती पर आने के लिए आवाहन किया था. तबसे नवरात्र के सात दिन पहले बोधन घट भरने ओर कलश पूजा करने की विधि है.
इस मंदिर में सात दिन पहले बोधन कलश की स्थापना होती है. चार एवं सात पूजा को कौड़ी उछाला जाता है. इस दिन मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है. जो भक्त यहां कोड़ी पाते हैं, वे अपने को धन्य समझते हैं. यहां कंधे पर मां दुर्गा की प्रतिमा विसर्जन की परंपरा आज भी जीवंत बनी हुई है. महाशय ड्योढ़ी के मैदान में यहां एक माह तक मेला लगता है. लकड़ी सहित अन्य धातुओं से बनी चीजों की खूब बिक्री होती है.
स्थानीय लोगों ने बताया कि श्रीराम घोष के बाद उनके परिवार मां दुर्गा की विधि-विधान से आराधना करते आ रहे हैं. महाशय महेश नाथ के कार्यकाल में दुर्गा पूजा की ख्याति इतनी बढ़ी की लोग कहने लगे कलकत्ते की काली और महाशय डयोढ़ी की दुर्गा मां बहुत शक्तिशाली हैं. यहां बांग्ला विधि-विधान से पूजा अर्चना की जाती है. महाशय महेश नाथ के समय में वे चौकी पर शहनाई वादन कराते थे. वर्तमान दौर में अब यह इतिहास बनता जा रहा है. किंवदंतियों के मुताबिक महाशय द्वारका नाथ घोष की पत्नी कृष्णा सुंदरी देवी दुर्गा के साथ साक्षात बातचीत किया करती थीं. धर्म के प्रति लगाव के कराण उन्होंने अपनी सुख-वैभव की जीवन शैली को त्याग दिया था.
पूजा के बाद मां दुर्गा को पौराणिक परंपराओं के साथ विदा किया जाता है, यहां कंधे पर प्रतिमा विसर्जन की परंपरा आज भी जीवंत है. मंदिर से नदी घाट पर विसर्जन की अनूठी परंपरा है. देवी दुर्गा की प्रतिमा को नाव पर रखा जाता है. इसके बाद नाव से प्रतिमा को तीन फेरा घुमाने के बाद उसे नदी में विसर्जित किया जाता है. 50 हजार से अधिक लोग नदी तट पर जुटते हैं. विसर्जन के बाद महिलाएं यहां सिंदुर खेला करती हैं.
सन 1603 में थाक दत्ता जो भागलपुर के निवासी थे, वे राजा अकबर के लिए कार्य किया करते थे. थाक दत्ता ने अपनी पुत्री की शादी महाशय परिवार के श्रीराम घोष के साथ कर दी. इसके बाद दत्ता अपने साथ श्रीराम घोष को दिल्ली लेकर चले गए थे. यहां उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर मुगल शासक ने उन्हें कानून गो-ए-सदर बना दिया गया. इसके बाद से टीएमबीयू स्थित टिल्हा कोठी में रहना शुरू कर दिया. महाशय का क्षेत्र सुल्तानगंज से कहलगांव, रजौन, जगदीशपुर से डुमरामांतक क्षेत्र तक था.