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विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस : लोकतंत्र के लिए घातक है, प्रेस की आजादी पर खतरा

बिना स्वतंत्र मीडिया के स्वस्थ लोकतंत्र को सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है. लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोकतांत्रिक देशों में प्रेस के लिए बिना अड़चन और रोक के काम कर पाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में मीडिया की आजादी का सिमटना खतरनाक स्तर […]

बिना स्वतंत्र मीडिया के स्वस्थ लोकतंत्र को सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है. लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोकतांत्रिक देशों में प्रेस के लिए बिना अड़चन और रोक के काम कर पाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में मीडिया की आजादी का सिमटना खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. इंडेक्स के 180 देशों में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करनेवाला भारत पिछले साल के 133वें स्थान से 136वें स्थान पर आ गया है. रिपोर्ट ने देश में बढ़ते दक्षिणपंथ के दबाव और सुरक्षा की कमी को इस हालत के लिए जिम्मेवार बताया है. प्रेस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की रिपोर्ट के संदर्भ में देश-विदेश में मीडिया की आजादी पर विश्लेषण पर आधारित यह विशेष प्रस्तुति…
प्रेस के लिए यह आत्मचिंतन का समय
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
भारत में प्रेस की आजादी को लेकर जो भी रैंकिंग आयी है, उसके बारे में मैं कुछ नहीं कहूंगा. लेकिन, इतना जरूर है कि यह बहुत शर्मनाक बात है कि हमारे जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की आजादी की स्थिति पर कोई खतरा मंडराये. इस स्थिति के लिए किसी एक व्यक्ति या एक संस्था को जिम्मेवार मानना बहुत गलत होगा. लेकिन, इसके साथ ही यह भी सत्य है कि यह हमारे लिए आत्मचिंतन का समय है. यह आत्मचिंतन सरकारों को करनी है, नेताओं को करनी है, पत्रकार बंधुओं को करनी है, रिपोर्टरों को करनी है और खास तौर पर पत्रकारिता संस्थानों के मालिकों को करनी है, कि हम किस तरह की पत्रकारिता चाहते हैं.
आज यह आत्मचिंतन का विषय है कि हम क्यों पत्रकार बने या आनेवाली पीढ़ियों में कोई क्यों पत्रकार बने. आज ये सवाल हमें अपने आप से पूछने हैं. साथ ही, किसी रैंकिंग आदि को देख कर यह समझना भी गलत है कि हम (प्रेस) बिल्कुल भी आजाद नहीं है. लेकिन, इतना सच जरूर है कि मीडिया में- खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में- आजकल खबरें कम, एजेंडा ज्यादा चलाया जा रहा है. यहीं अाकर सबसे ज्यादा गलतियां होती हैं, क्योंकि खबरों को इकट्ठा करनेवालों पर संस्थान मालिकों का दबाव होता है. ज्यादातर तो मालिक ही संपादक होते हैं, जो एजेंडा चलाये जाने के जाल में फंस जाते हैं. दरअसल, एजेंडा चलाना आज के दौर में मीडिया का बिजनेस मॉडल है और यह मॉडल जब तक रहेगा, तब तक तो प्रेस पर सवाल उठते रहेंगे कि आखिर वह कितना आजाद है और उस पूंजी कितनी हावी है.
यहां पर एक बात बड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है. वह यह कि मौजूदा दौर की वेब पत्रकारिता यानी डिजिटल मीडया इस बिजनेस मॉडल से थोड़ी अप्रभावित है, क्योंकि इसे चलाने में कम खर्च होने के चलते इस पर दबाव कम रहता है. फिर भी, मैं इस बात को नहीं मानता कि आज का मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट) पूरी तरह से पूंजी के दबाव में है या सारे पत्रकार बिक गये हैं. बल्कि, मैं समझता हूं कि आज भी ज्यादातर पत्रकार बहुत ही ईमानदारी से काम करते हैं. हालांकि, कुछ लोग हैं, जो सारे पत्रकारों को एक ही श्रेणी में रखने की गलती कर रहे हैं.
लेकिन, इस स्थिति के लिए मीडिया संस्थान मालिक और उसके संपादक ज्यादा जिम्मेवार हैं, बजाय इसके कि कोई रिपोर्टर. प्रेस की आजादी को लेकर जाे भी सवाल उठाये जा रहे हैं, इसका जवाब हमें खुद तलाशना होगा और हमें अपने आप को ही आईने में देखना होगा कि हम कहां गलत हैं. हम इस बात के लिए किसी दूसरे पर निर्भर नहीं कर सकते कि वह हमें हमारी गलतियां बताये. यहीं आकर ही हमें एक बार फिर यह सोचना पड़ेगा कि हम पत्रकार क्यों बने. हम पर अक्सर आरोप लगाये जाते हैं कि मीडिया बिक गया है या फिर सरकार के दबाव में काम कर रहा है, तो मैं समझता हूं कि इसका हल भी हमारे ही पास है.
और वह यह है कि हम इस बात को गहराई से समझें कि सरकारें आती-जाती रहती हैं, उन्हें पांच-दस साल ही रहना है, लेकिन मीडिया को तो हमेशा रहना है, चाहे जिस किसी की भी सरकार हो. इसलिए हमें ही यह तय करना है कि हमें अपना काम किस तरीके से करना है. किस दबाव को नकारना है और किस सरोकार को लोगों के सामने ले आना है. किसके आगे चलना है और किस चीज की तह में जाना है.
हमारा देश एक बड़ा और लोकतांत्रिक देश है, इसलिए यहां प्रेस की आजादी, उसके वजूद और इसकी अहमियत का हमेशा सम्मान होना चाहिए, क्योंकि प्रेस ही लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने का काम करता है. इसलिए यह लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है, जब मीडिया सरकारों के सामने झुकने लग जाये. मीडिया का दायित्व है कि वह सरोकारों को जिंदा रखे और लोगों को सच ही दिखाये-पढ़ाये. तभी मुमकिन है कि हम किसी रैंकिंग से परे जाकर प्रेस को एक सार्थक और सच्चा आयाम दे सकते हैं.
क्या है वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स
विश्वभर में कार्यरत पत्रकारों की स्वतंत्र संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स 2002 से निरंतर हर साल वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स को प्रकाशित कर रही है. विभिन्न देशों में मीडिया के कामकाज के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इस इंडेक्स को तैयार किया जाता है. पत्रकारों और पत्रकारिता की बेहतरी में इसका महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि सरकारें भी इस रिपोर्ट का संज्ञान लेती हैं.
इस इंडेक्स को 180 देशों में पत्रकारों की स्वतंत्रता के आकलन पर तैयार किया जाता है और देशों को उसके अनुरूप रैंकिंग दी जाती है. इसमें विविधता, आजादी, वैधानिक व्यवस्था और पत्रकारों की सुरक्षा जैसे कारकों का अध्ययन किया जाता है. हालांकि सरकारों के रवैये का इंडेक्स पर असर जरूर होता है, पर यह सार्वजनिक नीतियों का सूचीकरण नहीं है और न ही यह पत्रकारिता की गुणवत्ता का मूल्यांकन है.
इंडेक्स के साथ रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स वैश्विक और क्षेत्रीय सूचकांक भी तैयार करता है जिनमें मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में देशों का पूर्ण आकलन होता है. इससे तुलनात्मक रैंकिंग को समुचित रूप से समझने में मदद मिलती है.
इस पूरे रिपोर्ट को तैयार करने में 180 देशों के विशेषज्ञों के एक समूह से एक प्रश्न-तालिका के आधार पर पत्रकारों की स्वतंत्रता की स्थिति के बारे में जानकारी जुटायी जाती है.
इसे पत्रकारों के विरुद्ध हिंसा और उत्पीड़न के आंकड़ों के साथ रख कर विश्लेषित किया जाता है. प्रश्न-तालिका को विविधता, स्वतंत्रता, माहौल, सेल्फ-सेंसरशिप, कानूनी प्रणाली, पारदर्शिता तथा समाचार जुटाने और प्रकाशित करने के लिए उपलब्ध इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे बिंदुओं पर बनाया जाता है. इस प्रश्न-तालिका को 20 भाषाओं में अनुदित कर 180 देशों के पत्रकारों, मीडिया वकीलों, स्कॉलरों और अन्य मीडिया विशेषज्ञों को भेजा जाता है जिन्हें संगठित द्वारा चयनित किया जाता है.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स में कार्यरत जानकार पत्रकारों और मीडिया संस्थाओं के खिलाफ हुई हिंसा और उत्पीड़न की घटनाओं का विस्तृत ब्यौरा तैयार करते हैं. इस काम में 130 देशों में काम कर रहे संवाददाता भी उनकी मदद करते हैं. प्रश्न-तालिका के उत्तरों के साथ रख कर इन सूचनाओं का अध्ययन किया जाता है. विश्लेषण के आधार पर देशों को पांच श्रेणियों- अच्छा, ठीक-ठाक, समस्याग्रस्त, खराब और बहुत खराब- में रखा जाता है.
तालिका में सबसे ऊपर 10 देश- नॉर्वे, स्वीडेन, फिनलैंड, डेनमार्क, नीदरलैंड, कोस्टारिका, स्विट्जरलैंड, जमैका, बेल्जियम और आइसलैंड
तालिका में सबसे नीचे 10 देश- उत्तर कोरिया, इरीट्रिया, तुर्कमेनिस्तान, सीरिया, चीन, वियतनाम, सूडान, क्यूबा, दिज्बूती और इक्वेटोरियल गिनी.
दक्षिण एशिया की स्थिति- बांग्लादेश (146), श्रीलंका (141), पाकिस्तान (139), भारत (136), अफगानिस्तान (120), मालद्वीप (117), नेपाल (100) और भूटान (84)
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस
हर वर्ष तीन मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है. इस अवसर को विश्व प्रेस दिवस की संज्ञा भी दी जाती है. प्रेस की स्वतंत्रता की महत्ता के बारे में जागरूकता फैलाने और सरकारों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करने के उद्देश्य को लेकर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने तीन मई को इस दिवस को मनाने की घोषणा की थी.
तीन मई को विंडहोक घोषणा, जो कि प्रेस की स्वतंत्रता से संबंधित सिद्धांतों का ब्यौरा है, की वर्षगांठ के तौर पर भी मनाया जाता है. वर्ष 1991 में इसी दिन अफ्रीका के पत्रकारों ने इस घोषणा पत्र को अंतिम रूप दिया था. इस तिथि को प्रेस की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए चुनौतियों का सामना करते हुए बेहतरीन काम करने वाले पत्रकारों या संगठनों को यूनेस्को गुलेरमो कानो प्रेस फ्रीडम पुरस्कार भी यूनेस्को द्वारा प्रदान किया जाता है. यह पुरस्कार 1997 से प्रदान किया जा रहा है.
इस पुरस्कार को देने का निर्णय समाचार जगत से जुडे 14 पेशेवरों की सिफारिश के आधार पर किया जाता है. प्रेस की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन और यूनेस्को के सदस्य देश इसके लिए पत्रकारों या संगठनों के नाम सुझाते हैं.यह पुरस्कार कोलंबिया के पत्रकार गुलेरमो कोना इसाजा के सम्मान में दिया जाता है. अवैध तरीके से नशे का कारोबार करने वालों के खिलाफ लिखने के कारण 17 दिसंबर, 1986 को बगोटा में गुलेरमो की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी.
इस दिन यूनेस्को मीडिया पेशेवरों, प्रेस फ्रीडम ऑर्गनाइजेशन और यूएन एजेंसीज के साथ मिलकर विश्व भर में प्रेस की स्वतंत्रता के समक्ष आने वाली चुनौतियों को लेकर परिचर्चा भी करता है. इसके लिए हर वर्ष एक विषय का चुनाव किया जाता है और उसी के आधार पर चर्चा की जाती है
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रिपोर्ट की खास बातें
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने चेतावनी दी है कि ‘उत्तर-सत्य, शक्तिशाली नेताओं और प्रचार तथा दमन’ के इस युग में प्रेस की आजादी पर संकट बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है. ऐसी स्थिति इससे पहले कभी नहीं आयी थी.
छह सालों से खूनी गृह युद्ध से जूझ रहा सीरिया पत्रकारों के लिए सबसे भयावह जगह बन चुका है.तुर्की में पिछले साल तख्ता-पलट की असफल कोशिश के बाद राष्ट्रपति एर्दोआन 81 पत्रकारों को जेल में डाल चुके हैं. इसी तरह मिस्र में राष्ट्रपति अल-सिसी ने भी अनेक पत्रकारों को हिरासत में रखा हुआ है. ये दोनों देश पत्रकारों के लिए दुनिया की सबसे बड़ी जेल बन गये हैं.
अमेरिका और ब्रिटेन (जो इंडेक्स में पिछले साल की तुलना में दो पायदान नीचे खिसक गये हैं) जैसे लोकतांत्रिक देशों में प्रेस की आजादी क्षीण होने से रोकने के उपाय नहीं किये जा रहे हैं. निगरानी को लेकर अजीब उन्माद और सूत्रों की गोपनीयता के अधिकार के उल्लंघन से यह गिरावट आ रही है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव अभियान और ब्रिटेन के ब्रेक्जिट जनमत-संग्रह के समय जिस तरह से मीडिया के खिलाफ प्रचार चलाया गया, उसे इस रिपोर्ट में बेहद चिंताजनक माना गया है. इसके अनुसार, इस रवैये ने दुनिया को ‘पोस्ट-ट्रुथ, गलत सूचनाओं और झूठी खबरों के एक नये युग’ में धकेल दिया है.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के महासचिव क्रिस्टोफ डेलॉयर का कहना है कि जिस तरह लोकतांत्रिक देशों में मीडिया की आजादी सीमित होती जा रही है, वह उन सभी के लिए चिंताजनक है जो समझते हैं कि अगर मीडिया की स्वतंत्रता को सुरक्षित नहीं रखा गया, तो अन्य स्वतंत्रताओं के बचे रहने की उम्मीद करना भी मुश्किल है. वे पूछते हैं कि यह गिरावट हमें कहां तक लेकर जायेगी.
एक साल के भीतर करीब दो-तिहाई देशों में स्थिति खराब हुई है, जबकि अनेक ऐसे देशों में जहां मीडिया की आजादी की स्थिति अच्छी या ठीक-ठाक थी, वहां दो फीसदी से अधिक की गिरावट आयी है.
जहां ताकतवर नेताओं का दबदबा बढ़ा है, वहां मीडिया की आजादी में कमी आयी है. तुर्की इसका बड़ा उदाहरण है. तुर्की से सात पायदान ऊपर खड़ा व्लादिमीर पुतिन का रूस निचले श्रेणी के देशों में 148वें स्थान पर है.
72 देशों में आजादी बेहद गंभीर मुकाम पर है. ऐसे देशों में रूस, चीन और भारत शामिल हैं.
इंडेक्स में सबसे नीचे खड़े उत्तर कोरिया में आबादी को अज्ञान और आतंक में रखने का सिलसिला जारी है.
भारत में प्रेस सबसे आजाद है
चंदन मित्रा
वरिष्ठ पत्रकार
भारत में प्रेस की आजादी के बारे में जो भी रैंकिंग की गयी है और जिस संस्था ने भी यह रैंकिंग की है कि भारत में प्रेस की आजादी की हालत ठीक नहीं है, तो मैं इस रैंकिंग को नहीं मानता. ऐसी रिपोर्ट्स और रैंकिंग पर मुझे कोई भरोसा नहीं है. ये रिपोर्ट्स और रैंकिंग क्यों बनाये जाते हैं और किस इरादे से बनाये जाते हैं, इसकी पहले जांच होनी चाहिए.
आखिर कौन यह संस्था जो यह रैंकिंग करती है, मैंने इसका कभी नाम ही नहीं सुना. मुझे समझ में नहीं आता कि ये लोग हर साल भारत के ही पीछे क्यों पड़े रहते हैं? भारत में मीडिया और प्रेस की जितनी आजादी है, उतनी अमेरिका और इंग्लैंड में भी नहीं है. मैं दुनियाभर के मीडिया का अध्ययन कर चुका हूं और विदेशों में रहा भी हूं, लेकिन भारत में प्रेस की आजादी जैसी आजादी कहीं और देखने को नहीं मिलती. यहां लोग सरकार के खिलाफ क्या-क्या नहीं बोलते. इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट, किसी भी जगह कोई पाबंदी नहीं किसी को सरकार के खिलाफ कुछ भी कहने के लिए.
इसलिए यह कहना कि भारत में प्रेस की आजादी का सूचकांक 136 है, यह पूरी तरह से बकवास है. मैं इस बात को सिरे से खारिज करता हूं. भारत ही ऐसा देश है, जहां प्रेस पर सरकार का कोई भी हस्तक्षेप नहीं है. कोई इस बात का सबूत देकर बताये कि भारत के मीडिया पर सरकार का दखल है. तमाम राज्यों में क्या हो रहा है, यह तो मैं नहीं बता सकता, लेकिन प्रेस की आजादी पर खतरा माननेवाले लोग यह सबूत दे कि केंद्र सरकार ने क्या कभी प्रेस की आजादी में हस्तक्षेप किया. मेरी जानकारी में भारत के मीडिया पर कोई बाहरी दबाव नहीं है, वह पूरी तरह से आजाद है.
इमरजेंसी के दौरान प्रेस की आजादी पर खतरा था, लेकिन उसके बाद से ऐसा कभी नहीं रहा कि यहां प्रेस की आजादी खतरे में पड़ी हो. कोई कुछ भी बोले, तो हमें क्या उसे मान लेना चाहिए? लेकिन मैं नहीं मानता. मेरा यह विश्वास है कि प्रेस को लेकर भारत में जितनी आजादी है, दुनिया के बाकी देशों में ऐसी आजादी बिल्कुल नहीं है. इसलिए इस रैंकिंग को मैं सिरे से खारिज करता हूं और बकवास मानता हूं.
हमारे पत्रकार िबना िकसी हस्तक्षेप के निडर िरपोर्टिंग नहीं कर पा रहे
सिद्धार्थ वरदराजन
वरिष्ठ पत्रकार
अगर संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो कहीं से भी यह नहीं लगता कि हमारे मीडिया पर किसी तरह का कोई नियंत्रण-दबाव है या प्रेस आजाद नहीं है. लेकिन, जिस तरह से पत्रकारों को कई तरह के दबाव झेलने पड़ते हैं और मीडिया मालिकान खुद ही प्रेस की आजादी के दुश्मन हो गये हैं, इस ऐतबार से हम देखते हैं, तो मीडिया को मिली संवैधानिक ताकत और आजादी के बावजूद हमारे पत्रकार बिना किसी हस्तक्षेप के निडर होकर रिपोर्टिंग नहीं कर पा रहे हैं.
अलग-अलग महत्वपूर्ण खबरों के लिए, सार्थक बहसों के लिए और बेबाक सवाल पूछने के लिए मौजूदा मीडिया में जो जगह होनी चाहिए, ऐसी तस्वीर अब कम ही देखने को मिलती है. ऐसा इसलिए, क्योंकि पत्रकारों पर अलग-अलग तरह के राजनीतिक, सांस्थानिक और आर्थिक दबाव है और इसके लिए सबसे बड़े जिम्मेवार मैं मीडिया मालिकान को ठहराता हूं. आज के ज्यादातर मीडिया मालिकान यह नहीं चाहते कि प्रेस आजाद रहे. आजाद प्रेस के सवाल औद्योगिक घराने वाले या खुद मीडिया मालिकान को भी पसंद नहीं आयेंगे.
आज भारतीय मीडिया का बड़ा सच यह है रिपोर्टिंग की अहमियत खत्म होती जा रही है. आप जब भी टीवी खोलते हैं, तो पाते हैं कि कोई न कोई पैकेजिंग चल रही होती है. शाम को होनेवाली बहसों में जरूरी और सरोकार से जुड़े मुद्दे गायब होते हैं और उसमें सत्तापक्षा और प्रतिपक्ष के नुमाइंदे बैठ कर तूतू-मैंमैं करते रहते हैं. अगर किसी अहम मुद्दे पर बहस होती भी है, तो एंकर ही उसकी दिशा को बरगला देता है और पूरी बहस बेमतलब बन जाती है. यह पूंजीवाद का थोड़ा असर तो है, लेकिन अगर मिसाल देखें, तो अमेरिका खुद में एक पूंजीवादी देश है, पर वहां मीडिया के सारे इदारे खुद में स्वतंत्र हैं और सारे इदारे प्राइवेट कंपनियों के हैं. इसलिए प्रेस पर नियंत्रण के खतरे के लिए मार्केट या पूंजीवाद को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि दोष इस बात का है कि भारतीय मीडिया ने सरोकार और फर्ज निभानेवाली गहरी जड़ों को अभी नहीं पकड़ा है.
वेब मीडिया ने अपने तईं एक रास्ता खोल दिया है, जहां से चल कर कम संसाधनों में एक मजबूत पत्रकारिता की मंजिल तय की जा सकती है. न्यूज वेबसाइट पूंजी या मार्केट से एक हद तक दबावमुक्त रहती है और इसकी पहुंच भी दूर तक होती है. तकनीकी तौर पर बेबाक पत्रकारिता को वेबसाइट बढ़ावा तो देती है, लेकिन इसके साथ एक नकारात्मक पक्ष भी जुड़ा हुआ है कि इस पर बहुत ज्यादा शोर मचता है. सच के साथ खड़ा होकर भी भारतीय मीडिया और अंतरराष्ट्रीय मीडिया का भविष्य वेब पत्रकारिता तो है ही, लेकिन इसका दुरुपयोग भी आसानी से किया जा सकता है. लोकतंत्र के दुश्मन इसका इस्तेमाल कर सकते हैं और कर भी रहे हैं.
यह स्थिति सच्ची पत्रकारिता के लिए एक मुश्किल खड़ी करती है. इस तरह प्रेस की आजादी भी एक संदेह के दायरे में अा खड़ा होती है और सवाल उठने लगते हैं कि आखिर कोई किस पर यकीन करे. फेक न्यूज के चलन से लोग असली को नकली और नकली को असली समझने लगते हैं, जिससे प्रेस की विश्वसनीयता पर संकट खड़ा होने लगता है. यह सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है.
पिछले एक दशक में जिस तरह से बोलने और लिखने पर दबाव बढ़ा है, किसी फिल्म के किसी कंटेंट को लेकर उस पर हमले बढ़े हैं, नाटककारों, चित्रकारों और रचनाकारों की अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे बढ़े हैं, सोशल मीडिया पर किसी के कुछ लिखने पर उसे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाने लगा है, इन सब चीजों से यही लगता है कि न सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है, बल्कि हमारे जैसे एक बड़े जम्हूरी मुल्क पर भी हमला है. (वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
रिसायक्लिंग पत्रकारिता का दौर
विनीत कुमार
मीडिया विश्लेषक
करीब 1300 अरब के कारोबारी मीडिया में मानवीय सरोकार और लोकतंत्र के हर हाल में बचे रहने की संभावना की तलाश यूटोपिया, जोर- आजमाईश का बौद्धिक विमर्श या फिर नॉस्टैल्जिया का हिस्सा जान पड़ता है. सवाल बहुत साफ है कि एक ही संस्थान एक तरफ रियल एस्टेट से लेकर जीवन बीमा, ठेकेदारी से लेकर शिक्षा के कारोबार में लगा हुआ हो और यह सब करते हुए जिसका एक कारोबार मीडिया भी हो, उनसे किस हद तक सामाजिक सरोकार से जुड़ी खबरों की उम्मीद की जा सकती है? ये पत्रकारिता के वो ठिकाने हैं जहां से लोगों की जिंदगी, अधिकार, सुरक्षा और हितों के सवाल सीधे-सीधे जुड़े हैं. ऐसे में जब ये ठिकाने ही मीडिया संस्थानों के व्यावसायिक अड्डों में तब्दील होते जा रहे हों तो सरोकार के सवाल के साथ मीडिया के नाक-नक्शे का विश्लेषण आसान कहां रह जाता है?
इससे ठीक उलट किसी के लिए भी अब यह कहीं ज्यादा आसान काम है कि वह मीडिया को किसी भी दूसरे व्यवसाय की तरह ही देखे, उसका विश्लेषण करे और इतमिनान से इस निष्कर्ष तक पहुंच जाये कि मीडिया दरअसल पूंजी और कॉर्पोरेट की जुगलबंदी है. इन सबके बावजूद यदि कोई अपनी आदिम वृत्तियों के कारण इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानने से अपने को रोक नहीं पा रहा हो, तो इसमें उसी हद तक सरोकार के पक्ष की तलाश करे जितना कि ग्राहक/उपभोक्ता के अधिकारों के अंतर्गत दूसरी वस्तु या सेवा के साथ करते आये हैं. इतना करते रहने पर भी मीडिया से उसका ‘लोकतंत्र का चौथा स्तंभ’ रूपक फिलहाल कोई छिनने नहीं जा रहा है.
इससे व्यापक स्तर पर लाभ यह होगा कि हिंदुस्तान समेत दुनिया की बड़ी आबादी अभी भी बेहतर भविष्य की परिकल्पना बिना मीडिया की भागीदारी के कर नहीं पाती, उस पर लगाम लगेगा. लेकिन अपनी रिपोर्ट और कवरेज के नाम पर लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर हथौड़े की तरह चोट करता मीडिया जब वैलिडिटी पीरियड के साथ सरोकारी स्वर में सक्रिय होने लग जाता है, ऐसे में सरोकार और पूंजीवादी शक्ल की सपाट समझ के बीच एक तीसरी स्थिति बनती चली जाती है जो कि अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा जटिल, बहुस्तरीय और फार्मूलाबद्ध परिभाषाओं के दायरे से बाहर है. तब मीडिया उस 360 डिग्री चक्र का एक घटक नजर आने लग जाता है जिसमें अल्पमत के विचार, हाशिये के लोग और अंतिम पायदान पर जूझ रहे लोगों की आवाज की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती.
भारतीय मीडिया के संदर्भ में देखा जाये (हालांकि मौजूदा दौर पर इस भौगोलिक स्तर के विभाजन के साथ मीडिया चर्चा लगभग अप्रासंगिक है तो भी) तो ऐसा नहीं है कि इस पर पूंजी और सत्ता का दवाब नहीं रहा है.
मिशन की पत्रकारिता के तहत हम जिस स्वर्णिम दौर को याद कर होते हैं, वो उतना ही जूट उद्योग का हिस्सा रहा है, जितना कि आज का मीडिया मोबाइल नेटवर्क, रियल एस्टेट के कारोबारियों का. उस वक्त भी सत्ताधारी सरकार के साथ अधिकांश मीडिया संस्थानों ने अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की थी. सत्ता और पूंजी के गंठजोड़ से मीडिया का सरोकारी चेहरा गढ़ने का काम हुआ.

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