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पढ़ें उन्हें, जिन्होंने साझी विरासत के मायने गढ़े
आजादी की जंग में न जाने कितने ही वीरों ने अपनी शहादत दी है. मुल्क को आजाद कराने के लिए हंसते – हंसते फांसी पर चढ़ने वाले बलिदानी सूपतों की गाथा इतिहास में दर्ज है. 19 दिसंबर 1927 को स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां और ठाकुर रोशन सिंह को अलग जेलों में […]
आजादी की जंग में न जाने कितने ही वीरों ने अपनी शहादत दी है. मुल्क को आजाद कराने के लिए हंसते – हंसते फांसी पर चढ़ने वाले बलिदानी सूपतों की गाथा इतिहास में दर्ज है. 19 दिसंबर 1927 को स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां और ठाकुर रोशन सिंह को अलग जेलों में फांसी दी गयी थी. इन महान शहीदों की याद में इस दिन को शहीद दिवस के तौर पर मनाया जाता है.
ये वीर अच्छे साहित्यकार भी थे. अशफाक उल्लाह खां और राम प्रसाद बिस्मिल की उर्दू में लिखी नज्में हमें बताती हैं कि आजादी और मुल्क में हिंदू – मुस्लिम भाईचारे की कितनी चाहत इनमें थी. इन दोनों की दोस्ती तो जग जाहिर है. यह दोस्ती तब थी जब राम प्रसाद बिस्मिल पंडित थे और अशफाक उल्लाह खां पांचों वक्त के नमाजी. इनकी दोस्ती तोड़ने के लिए अंग्रेजों ने कई बार हिंदू – मुस्लिम कार्ड खेले लेकिन हर बार इनकी दोस्ती जीती. साहित्य-संस्कृति के इस अंक में हम लेकर आये हैं इनकी लिखी कुछ रचनाएं और इनके जीवन से जुड़ी कुछ रोचक जानकारी.
जब बिस्मिल और अशफाक बने दोस्त
अशफाक का जन्म 22 अक्तूबर 1890 को आज उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में हुआ था. किशोर उम्र से ही वह एक शायर के तौर पर जाने जाते थे. हसरत उपनाम से शायरी करते थे. शुरुआती जिंदगी में वह गांधी जी से प्रभावित थे लेकिन बाद के दिनों में राम प्रसाद बिस्मिल के साथ हो लिये. उनके इस जुड़ाव के पीछे किस्सा यह है कि उनके बड़े भाई अक्सर अपने साथ पढ़ने वाले और शायर दोस्त राम प्रसाद बिस्मिल का जिक्र करते थे.
इसी बीच बिस्मिल का नाम अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़ी साजिश में आया. अशफाक भी अंग्रेजों से मुल्क को आजाद कराने का सपना देखते थे. इसके बाद तो अशफाक ने बिस्मिल से मिलने का ठान लिया. संयोग से शाहजहांपुर में एक कार्यक्रम में बिस्मिल भाषण देने आये थे. अशफाक को जैसे ही इसका पता चला वे वहां चले गये और अपना परिचय दिया. अशफाक की बातों और शायरी ने बिस्मिल को प्रभावित किया. जल्द ही दोनों अच्छे दोस्त बन गये और इनके लिए जिंदगी का मकसद देश को आजाद कराना हो गया.
अंग्रेज अफसर को फांसी के वक्त दिया करारा जवाब
अशफाक को फांसी की सजा हो चुकी थी, वह जेल में भी पांचों वक्त नमाज अदा करते थे और हर नमाज में अपने मुल्क की आजादी की दुआ मांगते थे. वक्त मिलने पर रोज डायरी भी लिखा करते थे.
एक बार जब वह नमाज पढ़ रहे थे तो एक अंग्रेज अफसर उनके पास आया और उनका मजाक उड़ाते हुए उसने अपने साथी से कहा कि देखते हैं इस चूहे को कितना विश्वास अपने खुदा पर रहेगा जब इसे टांगा जायेगा.
उस वक्त अशफाक खामोश रहें. लेकिन 19 दिसंबर 1927 को जिस दिन अशफाक को फांसी होनी थी उस दिन उस अंग्रेज को अशफाक ने करारा जवाब दिया. उन्होंने अपनी जंजीरें खुलते ही बढ़कर सबसे पहले फांसी का फंदा चूम लिया और बोले, मेरे हाथ लोगों की हत्याओं से जम हुए नहीं हैं. मेरे खिलाफ जो भी आरोप लगाये गये हैं, झूठे हैं.
अल्लाह ही अब मेरा फैसला करेगा. यह कहने के बाद उन्होंने फांसी का फंदा अपने गले में डाल लिया. जिंदगी भर दोस्ती निभाने वाले महान बलिदानी अशफाक और बिस्मिल दोनों को ही अलग-अलग जगह पर फांसी दी गयी. अशफाक को जहां फैजाबाद में वहीं बिस्मिल को गोरखपुर में फांसी दी गयी पर दोनों साथ ही इस दुनिया से गये और यह तारीख थी 19 दिसंबर, 1927.
गांधी की अहिंसा से प्रभावित होकर अशफाक ने लिखी थी यह नज्म
कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे,
आजाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे
हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे
बेशस्त्र नहीं है हम, बल है हमें चर्खे का
चर्खे से जमीं को हम, ता चर्ख गुंजा देंगे
परवा नहीं कुछ दम की, गम की नहीं, मातम की
है जान हथेली पर, एक दम में गवां देंगे
उफ तक भी जुबां से हम हरगिज न निकालेंगे
तलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगे…
सुनायें गम की किसे कहानी
सुनाएं गम की किसे कहानी हमें तो अपने सता रहे हैं
हमेशा सबुहो – शाम दिल पर सितम के खंजर चला रहे हैं
न कोई इंग्लिश न कोई जर्मन न कोई रशियन न कोई टर्की
मिटाने वाले हैं अपने हिंदी जो आज हमको मिटा रहे हैं
कहां गया कोहिनूर हीरा किधर गयी हाय मेरी दौलत
वो सबका सब लूट करके उलटा हमीं को डाकू बता रहे हैं
जिसे फना वो समझ रहे हैं वफा का है राज इसी में मुजरिम
नहीं मिटाये से मिट सकेंगे वो लाख हमको मिटा रहे हैं
जो हुकूमत वो मुद्ददई है जो अपने भाई हैं हैं वो दुश्मन
गजब में जान अपनी आ गयी है कजा के पहलू में जा रहे हैं
चलो – चलो यारो रिंग थिएटर दिखाएं तुमको वहां पे लिबरल
जो चंद टुकड़ों पे सीमोजर के नया तमाशा दिखा रहे हैं
खामोश हसरत अगर है जज्बा वतन का दिल में
सजा को पहुंचेंगे अपनी बेशक, जो आज हमको फंसा रहे हैं
जेल में लिखी अशफाक की डायरी में मिले शेर
किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाए
ये बातें तब की हैं आजाद थे और था शबाब अपना
मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं
जबां तुम हो लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना.
राम प्रसाद बिस्मिल की रचनाएं
बिस्मिल की उर्दू गजल
चर्चा अपने कत्ल का अब दुश्मनों के दिल में है
देखना है ये तमाशा कौन सी मंजिल में है
कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो
जिंदगी का राजे -मुज्मिर खंजरे- कातिल में है
साहिले-मकसूद पर ले चल खुदारा नाखुदा
आज हिंदुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है
दूर हो अब हिंद से तारीकि-ए-बुग्जो-हसद
अब यही हसरत यही अरमा हमारे दिल में है
बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फना
‘बिस्मिल’ अब इतनी हविश बाकी हमारे दिल में है
बिस्मिल की अंतिम रचना
मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या
दिल की बर्बादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या
मिट गयी जब सब उम्मीदें मिट गये जब सब ख्याल
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या
ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या
काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते
यूं सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या
आखिरी शब दीद के काबिल थी ‘बिस्मिल’ की तड़प
सुबह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या
गुलामी मिटा दो
दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा
एक बार जमाने को आजाद बना दूंगा
बेचारे गरीबों से नफरत है जिन्हें, एक दिन
मैं उनकी अमीरी को मिट्टी में मिला दूंगा
यह फजले-इलाही से आया है जमाना वह
दुनिया की दगाबाजी दुनिया से उठा दूंगा
ऐ प्यारे गरीबों
घबराओ नहीं दिल में
हक तुमको तुम्हारे, मैं दो दिन में दिला दूंगा
बंदे हैं खुदा के सब, हम सब ही बराबर हैं,
जर और मुफलिसी का झगड़ा ही मिटा दूंगा
जो लोग गरीबों पर करते हैं सितम नाहक
गर दम है मेरा कायम, गिन-गिन के सजा दूंगा
हिम्मत को जरा बांधो, डरते हो गरीबों क्यों
शैतानी किले में अब मैं आग लगा दूंगा
ऐ ‘सरयू’ यकीं रखना, है मेरा सुखन सच्चा
कहता हूं, जुबां से जो, अब करके दिखा दूंगा
आजादी
इलाही खैर! वो हरदम नयी बेदाद करते हैं
हमें तोहमत लगाते हैं, जो हम फरियाद करते हैं
कभी आजाद करते हैं, कभी बेदाद करते हैं
मगर इस पर भी हम सौ जी से उनको याद करते हैं
असीराने – कफस से काश, यह सैयाद कह देता
रहो आजाद होकर, हम तुम्हें आजाद करते हैं
रहा करता है अहले-गम को क्या-क्या इंतजार इसका
कि देखें वो दिले-नाशाद को कब शाद करते हैं
यह कह-कहकर बसर की, उम्र हमने कैदे उल्फत में
वो अब आजाद करते हैं, वो अब आजाद करते हैं
सितम ऐसा नहीं देखा, जफा ऐसी नहीं देखी
वो चुप रहने को कहते हैं, जो हम फरियाद करते हैं
यह बात अच्छी नहीं होती, यह बात अच्छी नहीं करते
हमें बेकस समझकर आप क्यों बर्बाद करते हैं
कोई बिस्मिल बनाता है, जो मकतल में हमें ‘बिस्मिल’
तो हम डरकर दबी आवाज से फरियाद करते हैं
हैफ जिस पे कि हम तैयार थे मर जाने को
हैफ जिस पे कि हम तैयार थे मर जाने को
यकायक हमसे छुड़ाया उसी काशाने को
आसमां क्या यहां बाकी था ग़जब ढाने को
क्या कोई और बहाना न था तरसाने को
फिर न गुलशन में हमें लायेगा सैयाद कभी
क्यों सुनेगा तू हमारी कोई फरियाद कभी
याद आयेगा किसे ये दिले-नाशाद कभी
हम कि इस बाग में थे, कैद से आजाद कभी
अब तो काहे को मिलेगी ये हवा खाने को
दिल फिदा करते हैं, कुर्बान जिगर करते हैं
पास जो कुछ है,वो माता की नजर करते हैं
खाना वीरान कहां, देखिए घर करते हैं
अब रहा अहले-वतन, हम तो सफर करते हैं
जा के आबाद करेंगे किसी विराने को
देखिए कब यह असीराने मुसीबत छूटें
मादरे-हिंद के अब भाग खुलें या फूटें
देश-सेवक सभी अब जेल में मूंजे कूटें
आप यहां ऐश से दिन-रात बहारें लूटें
क्यों न तरजीह दें, इस जीने से मर जाने को
कोई माता की उम्मीदों पे न डाले पानी
जिंदगी भर को हमें भेज दे काले पानी,
मुंह में जल्लाद, हुए जाते हैं छाले पानी
आबे-खंजर को पिला करके दुआ ले पानी
भर न क्यों पाये हम, इस उम्र के पैमाने को
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर
हमको भी पाला था मां-बाप ने दुख सह-सहकर,
वक्ते-रुखसत उन्हें इतना ही न आए कहकर
गोद में आंसू कभी टपके जो रुख से बहकर
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को
देश-सेवा ही का बहता है लहू नस-नस में
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें
सरफरोशी की, अदा होती हैं यो ही रस्में
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में,
बहने तैयार चिताओं में हैं जल जाने को
नौजवानो, जो तबीयत में तुम्हारी खटके
याद कर लेना कभी हमको भी भूले-भटके…
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