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क्यों दुनियाभर में आंदोलनरत हैं छात्र, जानें

भारत समेत कई देशों में सरकारों को छात्रों व युवाओं के रोषपूर्ण आंदोलनों का सामना करना पड़ रहा है. इन आंदोलनों के खड़े होने के तात्कालिक कारण भले भिन्न हों, पर विरोधों के निशाने पर सरकारों की वह नीतियां हैं, जिनकी वजह से समाज में आर्थिक व सामाजिक विषमता बढ़ रही है, बेरोजगारी में बढ़ोतरी […]

भारत समेत कई देशों में सरकारों को छात्रों व युवाओं के रोषपूर्ण आंदोलनों का सामना करना पड़ रहा है. इन आंदोलनों के खड़े होने के तात्कालिक कारण भले भिन्न हों, पर विरोधों के निशाने पर सरकारों की वह नीतियां हैं, जिनकी वजह से समाज में आर्थिक व सामाजिक विषमता बढ़ रही है, बेरोजगारी में बढ़ोतरी हो रही है तथा कम आमदनी में गुजारा करना मुश्किल हो रहा है. युवाओं की नाराजगी भ्रष्टाचार और दमन को लेकर भी है. इस वर्ष जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को लेकर स्कूली छात्रों के दो बड़े वैश्विक प्रदर्शन हो चुके हैं.

यदि सरकारों ने समस्याओं के समाधान पर ध्यान नहीं दिया, तो ऐसे विरोध न केवल सघन होंगे, बल्कि कई अन्य देशों में भी फैलते जायेंगे. दो दशक पहले 1999 में 30 नवंबर को अमेरिकी शहर सिएटल में विश्व व्यापार संगठन की बैठक के बाहर हजारों युवाओं व छात्रों ने भविष्य की आशंकाओं को लेकर विरोध किया था. उसकी परछाईं वर्तमान आंदोलनों में देखी जा सकती है.

बढ़ता जा रहा है छात्रों-युवाओ‍ं में आक्रोश

पिछले कुछ दिनों से दुनियाभर में छात्रों द्वारा आंदोलन और प्रदर्शन से जुड़ी खबरें चर्चा में रही हैं. छात्रों में अशांति का यह दौर हमारे देश में भी चल रहा है. देश की राजधानी दिल्ली में स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र फीस बढ़ोतरी समेत विभिन्न मांगों को लेकर बीते कई दिनों से प्रदर्शन कर रहे हैं. छात्रों की आक्रोशित भीड़ को रोकने के लिए भारी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात करना पड़ा. हिंसक झड़पों में कई छात्रों को चोटें भी आयीं.

क्या है छात्रों की आपत्ति

विश्वविद्यालय द्वारा फीस बढ़ोतरी, सिक्योरिटी, ड्रेस कोड समेत कई नियमों में परिवर्तन किया गया है, जिस पर छात्रों ने कड़ी नाराजगी जाहिर की है.

विश्वविद्यालय द्वारा तमाम शुल्कों में 14 साल बाद परिवर्तन किया गया है. डबल सीटर कमरे के किराये को 10 रुपये से बढ़ाकर 300 रुपये और सिंगल सीटर कमरे के किराये को 20 रुपये से बढ़ाकर 600 रुपये कर दिया गया है. छात्रों ने मेस सिक्योरिटी फीस को 5500 रुपये से बढ़ाकर 12000 रुपये करने पर नाराजगी जाहिर की है.

कैंपस में आने-जाने के समय से संबंधित पाबंदी और डायनिंग हॉल में ड्रेस निर्धारित करने पर छात्र असहमत हैं. छात्रसंघ विश्वविद्यालय से उक्त निर्णय को वापस लेने की मांग कर रहा है.

छात्रों की चिंता कितनी जायज

नाराज छात्रों का एकमत में कहना है कि निजी संस्थानों में पढ़ाई कर पाना आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों से आनेवाले छात्रों के लिए कतई आसान नहीं है.

दूसरी ओर, सरकारी संस्थानों में सीटें सीमित हैं और सबको जेएनयू में प्रवेश मिले, यह संभव नहीं है. गरीब घरों से आनेवाले छात्र जेएनयू से पढ़ाई पूरी कर समाज के उच्च वर्ग में प्रतिष्ठित मुकाम हासिल करते रहे हैं. यहां से निकले छात्रों ने नौकरशाही, राजनीति, पत्रकारिता, कानून समेत हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनायी है. कठिन प्रतियोगी परीक्षा पास कर जेएनयू में बड़े सपने के साथ पहुंचे छात्रों को लगता है कि नये नियम उनके लिए सबसे बड़ी रुकावट हैं. खर्चों में होनेवाली बढ़ोतरी उनकी चिंता बढ़ा रही है, जिससे छात्र आक्रोशित होकर प्रदर्शन कर रहे हैं.

चिली में भारी प्रदर्शन

दक्षिण अमेरिकी देश चिली में लगभग छह सप्ताह पहले शुरू हुआ माध्यमिक छात्रों का आंदोलन अब राष्ट्रव्यापी विरोध बन चुका है. सार्वजनिक यातायात के सबसे सस्ते व सुलभ साधन सबवे (मेट्रो रेल) के भाड़े में बढ़ोतरी के विरुद्ध 18 अक्तूबर को स्कूली छात्रों ने चिली की राजधानी सांटियागो में कई सबवे स्टेशनों और दुकानों में तोड़फोड़ की थी.

जल्दी ही यह विरोध व्यापक शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में बदल गया, लेकिन हाल के दिनों में नकाबपोश प्रदर्शनकारियों के अनेक गुटों ने भारी तोड़फोड़, लूट और आगजनी भी की है. माना जाता है कि चिली के हर शहर में ऐसे डेढ़-दो हजार नकाबपोश हैं, जिन्हें काबू में करना पुलिस के लिए मुश्किल हो रहा है. इन प्रदर्शनों में दो दर्जन से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. सबसे जोरदार प्रदर्शन 25 अक्टूबर को सांटियागो में हुआ, जब शहर के केंद्रीय हिस्से में 12 लाख से अधिक लोग जुटे थे.

प्लाजा इटालिया नाम से जाना जानेवाला यह क्षेत्र आंदोलन का मुख्य केंद्र बना हुआ है. प्रदर्शनों को शांत करने के प्रयास में राष्ट्रपति सेबेस्टियन पिनेरा ने सामाजिक विकास के लिए अनेक घोषणाएं की हैं. उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि सुरक्षाबलों ने प्रदर्शकारियों के विरुद्ध अधिक बल प्रयोग किया है. पुलिस ने पैलेट गन का प्रयोग बंद कर दिया है. ऐसे बंदूकों के इस्तेमाल से लगभग दो सौ प्रदर्शनकारियों की आंखों को नुकसान पहुंचा है. प्रदर्शनों के शुरू होने के चार दिन बाद ही राष्ट्रपति पिनेरा गरीब तबके मिलनेवाले पेंशन में 20 फीसदी और न्यूनतम मासिक मजदूरी में 16 फीसदी की वृद्धि करने तथा बिजली दरों में 9.2 फीसदी की बढ़त के निर्णय को बदलने और दवाओं की कीमत घटाने की घोषणा की थी.

उन्होंने जन-प्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों में कटौती करने और अधिक आमदनी के लोगों पर कर बढ़ाने का प्रस्ताव भी रखा है. इन प्रस्तावों पर अंतिम निर्णय वहां की कांग्रेस (संसद) को लेना है. इसके साथ ही गरीब बुजुर्गों एवं कर्ज लेकर विश्वविद्यालय की पढ़ाई करनेवाले छात्रों के लिए यातायात शुल्क में कमी का निर्णय भी लिया गया है. लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां नया संविधान बनाने पर भी सहमत हो गयी हैं. लेकिन विरोधियों का कहना है कि नया संविधान नेताओं द्वारा नहीं, चुने हुए वरिष्ठ नागरिकों द्वारा बनाया जाना चाहिए. प्रदर्शनकारी गरीबों के अधिक पेंशन, सामाजिक आवास और न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की मांग पर अड़े हुए हैं.

चिली में 30 साल से कम उम्र के युवा 1990 में तानाशाह आगस्तो पिनोशे के 17 साल के शासन की समाप्ति के बाद पैदा हुए हैं. वे पिनोशे के समय बने संविधान और प्रशासनिक संरचना को मानने के लिए तैयार नहीं है. वर्ष 2006 में ‘पेंग्विन रिवोल्यूशन’ की शुरुआत भी माध्यमिक छात्रों ने की थी. तब शिक्षा में सुधार मुख्य मुद्दा था. वर्ष 2009 में सुधार प्रस्ताव पारित भी हुए थे, पर उन्हें आज तक ठीक से लागू नहीं किया जा सका है.

वर्ष 2011 में एक बार फिर स्कूली और यूनिवर्सिटी के छात्रों ने बड़े प्रदर्शन किये थी. उसके बाद से छिटपुट विरोध लगातार जारी है. इस बार के विरोध की विशेषता यह है कि सबवे के किराये कम करने की छात्रों की मांग तुरंत ही समाज के हर तबके की मांगों को समाहित कर एक बड़े आंदोलन में बदल गयी है. आइआइटी समेत कई अन्य संस्थानों में प्रदर्शन

विभिन्न मांगों को लेकर जेएनयू ही नहीं, बल्कि देश के कई अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र हाल के दिनों में सड़कों पर उतरे. मुख्य मीडिया की बजाय छात्रों का यह प्रदर्शन सोशल मीडिया पर अधिक चर्चा में रहा.

फीस बढ़ोतरी को लेकर आईआईटी बॉम्बे के छात्रों में भी आक्रोश दिखा. सितंबर महीने में आईआईटी में ट्यूशन फीस में 300 प्रतिशत तक वृद्धि किये जाने से नाराज एमटेक और पीएचडी के छात्रों ने प्रदर्शन किया. 26 सिबंतर को ट्यूशन फीस को 30,000-50,000 रुपये से बढ़ाकर दो से तीन लाख रुपये तक कर दिया गया है.

इसके अलावा एमटेक छात्रों को मिलनेवाला 12,400 रुपये का मासिक स्टाइपेंड भी रोक दिया गया. फीस बढ़ोतरी और स्टाइपेंड रोके जाने से नाराज आईआईटी-बीएचयू के छात्रों ने भी प्रदर्शन किया. इसी नाराजगी की वजह से कई छात्रों नेे मानव संसाधन विकास मंत्री के हाथों से डिग्री लेने से इनकार कर दिया.

यूपी में भी आक्रोशित हैं छात्र

जेएनयू के बाद उत्तर प्रदेश में कृषि विश्वविद्यालयों की फीस कम करने की मांग को लेकर चंद्र शेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय के छात्रों ने प्रदर्शन किया.

अन्य राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालयों में ज्यादा फीस वसूले जाने का हवाला देकर छात्रों ने विरोध मार्च निकाला. छात्रों का कहना है कि फीस बढ़ोतरी के कारण मेधावी छात्र प्रवेश परीक्षा में अच्छी रैंक लाने के बावजूद भी प्रवेश नहीं ले पाते.

फीस बढ़ोतरी को लेकर उतराखंड में आक्रोश

उत्तराखंड के निजी आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों की फीस में 170 प्रतिशत फीस बढ़ोतरी पर छात्र आंदोलित हैं. यह आंदोलन बीते दो महीनों से चल रहा है. राजधानी देहरादून में छात्रों ने उग्र प्रदर्शन किया. इस दौरान पुलिस से झड़प में कई छात्र घायल हुए. बढ़ी फीस को वापस करने की मांग को लेकर छात्रों ने भूख हड़ताल भी की. निजी कॉलेजों में बीएएमएस की फीस 80,000 रुपये से बढ़ाकर 2,15,000 रुपये प्रतिवर्ष कर दी गयी है.

प्रदर्शनकारी छात्रों को आश्वासन देते हुए मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा है कि उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेशानुसार बढ़ायी गयी फीस को लौटाया जायेगा. छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे एक छात्र की भूख हड़ताल की वजह से बीमार पड़ने के बाद सरकार ने आपात बैठक बुलायी. इसके बाद इस आशय का फैसला किया गया.

छात्रों को सोशल मीडिया पर व्यापक समर्थन

आईआईटी मद्रास की छात्रा फातिमा लतीफ ने इस महीने की शुरुआत में हॉस्टल रूम में आत्महत्या कर ली थी. परिजनों ने धार्मिक आधार पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया था. इस वाकये के बाद आईआईटी कैंपस में छात्रों ने धरना शुरू कर दिया. छात्रों ने मामले की निष्पक्ष जांच की मांग करते हुए दो दिन की भूख हड़ताल भी की. लोगों ने कैंपस में छात्रों के साथ के होनेवाले भेद-भाव पर सोशल मीडिया पर भी आक्रोश जाहिर किया.

जाधवपुर और हैदराबाद विश्वविद्यालयों के बाद अब जेएनयू के समर्थन में हैशटैग लगाकर लोगों ने छात्रों को समर्थन दिया. कोलकाता के जाधवपुर विश्वविद्यालय कैंपस में एक महिला के साथ कथित उत्पीड़न को दबाने की कोशिश की गयी, जिससे हजारों छात्र प्रशासन के विरोध में खड़े हो गये. इससे पहले हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला द्वारा आत्महत्या किये जाने के बाद दूसरे विश्वविद्यालयों के भी छात्र सड़कों पर उतरे थे.

पाकिस्तान में भी स्टूडेंट सॉलिडैरिटी मार्च

जेएनयू के छात्रों की तरह पाकिस्तान की सड़कों पर भी आक्रोशित छात्रों की भीड़ देखी जा सकती है. इनके प्रदर्शन और नारेबाजी का अंदाज भी बिल्कुल जेएनयू के छात्रों की तरह है. छात्रों के साथ हजारों की तादाद में परिजन, शिक्षक, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे और छात्रों की मांग का समर्थन किया.

छात्र स्टूडेंट यूनियन से बैन हटाने, फीस कम करने, शैक्षणिक संस्थानों के कैंपस में सुविधाएं और सुरक्षा बढ़ाने की मांग कर रहे हैं. खास बात है कि ये रैलियां पाकिस्तान के सभी प्रमुख शहरों, कराची, लाहौर, इस्लामाबाद, हैदराबाद, क्वेटा और पेशावर आदि शहरों में हुईं. हालांकि, प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से आयोजित किये गये.

दक्षिण अमेरिकी देशों में विरोध

इन दिनों दुनिया के अनेक देशों की तरह दक्षिण अमेरिका के चिली, बोलिविया, हैती, कोलंबिया और इक्वाडोर में लगातार प्रदर्शनों का दौर जारी है. इन सभी आंदोलनों में छात्र और युवा अगुवाई कर रहे हैं. विरोध प्रदर्शनों के मुख्य मुद्दे शिक्षा, रोजगार और आर्थिक व सामाजिक न्याय से जुड़े हैं.

बोलिविया में कुछ समय पहले निर्वाचित राष्ट्रपति इवो मोरालेस को विपक्ष और सेना ने अपदस्थ कर दिया है और उन्हें मेक्सिको में शरण लेना पड़ा है. चुनाव के दौरान और बाद में विपक्ष उनकी नीतियों और चुनाव में धांधली के मुद्दे पर आंदोलनरत था, लेकिन अब वहां मोरालेस के समर्थकों, जिनमें अधिकतर मूलनिवासी तबकों से हैं, और अस्थायी सरकार के बीच संघर्ष चल रहा है तथा सरकार के विरोधियों को भयावह दमन का शिकार होना पड़ रहा है.

कोलंबिया में प्रदर्शनों के बाद आम हड़ताल का दौर शुरू हो गया है. छात्रों और मजदूर संगठनों का विरोध सरकार की आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार और पुलिस दमन को लेकर है. नव-उदारवादी नीतियों के तहत हाल के दिनों में पेंशन उम्र बढ़ायी गयी है और युवाओं के न्यूनतम मजदूरी में कटौती की गयी है.

अन्य कई देशों की तरह कोलंबिया में भी एक तरफ आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ बीते सालों में सैकड़ों मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या से भी लोग क्षुब्ध हैं. हालांकि, आम तौर पर प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहे हैं, पर अनेक जगहों पर यातायात स्टेशनों पर तोड़फोड़ होने और काली व बगोटा में कर्फ्यू लगाने की घटनाएं भी हुई हैं.

अब तक पुलिस कार्रवाई में तीन लोग मारे जा चुके हैं. राष्ट्रपति इवान डक ने सरकार की नीतियों से असहमति जताकर प्रदर्शनकारियों को शांत करने की कोशिश की है, पर प्रदर्शनकारी संगठनों व सरकार के बीच बातचीत फिलहाल रुकी हुई है. राष्ट्रपति ने कोलंबिया के सबसे गरीब 20 फीसदी आबादी के लिए कर राजस्व में से 930 मिलियन डॉलर देने तथा स्वास्थ्य सेवा में न्यूनतम मजदूरी पेंशनरों से बहुत कम योगदान लेने जैसी घोषणाएं की हैं. प्रदर्शनकारियों का कहना है कि राष्ट्रपति बिना उद्योगपतियों, कारोबारियों या किसी अन्य समूह के प्रतिनिधियों के बिना उनसे बातचीत करें, तभी सुलह का रास्ता निकल सकता है.

हैती दक्षिण अमेरिकी महादेश का सबसे गरीब देश है. पिछले दो महीने के विरोध प्रदर्शनों ने स्कूलों, कारोबार और सहायता संगठनों के कामकाज को ठप कर दिया है. हालांकि अब स्थिति सामान्य हो रही है, पर छिटपुट विरोधों के जारी रहने से आशंका है कि कभी भी यह विरोध फिर उग्र रूप धारण कर सकता है. विरोधों का तात्कालिक कारण तेल व गैस की कीमतों में वृद्धि थी, पर अनेक मुद्दों के जुड़ते जाने से प्रदर्शन का स्तर बढ़ता गया था. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, भ्रष्टाचार के मामले में 180 देशों में हैती का स्थान 161वां है. विपक्ष राष्ट्रपति जोवेनेल मॉयस के इस्तीफे की मांग पर अड़ा हुआ है. प्रदर्शनों में अब तक करीब 20 लोग मारे गये हैं और घायलों की संख्या 200 के आसपास है.

इक्वाडोर के लिए भी अक्टूबर का महीना प्रदर्शनों से भरपूर रहा था. अब भी छोटे-बड़े विरोधों का दौर चल रहा है. राष्ट्रपति लेनिन मोरेनो की सरकार द्वारा तेल व गैस से अनुदान हटाने के साथ सरकारी अनुदानों व खर्च में कमी के फैसले के विरोध में ये प्रदर्शन हुए थे. इन फैसलों को वापस लेने के बाद ही संगठित विरोध थमे हैं. युवाओं की अगुवाई में हुए इन प्रदर्शनों की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आठ अक्टूबर को क्विटो में अस्थिरता इस हद तक बढ़ गयी कि राष्ट्रपति और सरकार को एक अन्य शहर में स्थानांतरित करना पड़ गया था.

हालांकि इन प्रदर्शनों ने लातिनी अमेरिकी राजनीति व समाज को झकझोर दिया है, लेकिन जानकारों का मानना है कि ये आंदोलन किसी ठोस बदलाव की ओर अपने देशों व सरकारों को नहीं ले जा पायेंगे. परंतु इसके साथ यह भी आशंका बहुत अधिक है कि इन देशों के अलावा अन्य दक्षिण अमेरिकी देशों में भी आनेवाले समय में प्रदर्शनों व विरोध का सिलसिला जारी रहेगा क्योंकि बेरोजगारी, महंगाई, विषमता, भ्रष्टाचार और सरकारी दमन रोकने को लेकर सरकारें व राजनीतिक दलों की गंभीरता भरोसेमंद नहीं है.

हांगकांग में प्रदर्शन

हांगकांग में पिछले कई महीनों से विभिन्न मांगों को लेकर उग्र प्रदर्शन जारी है. इन प्रदर्शनों में छात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. प्रदर्शन की शुरुआत एक विवादित प्रत्यर्पण कानून के खिलाफ शुरू हुई थी. जून में हिंसक प्रदर्शन के बाद दुनियाभर में इन प्रदर्शनों की चर्चा हुई.

आखिरकार विधेयक को वापस लेना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला अभी थम नहीं रहा है. हांगकांग के नागरिकों का मानना है कि चीन के बढ़ते राजनीतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेप की वजह से उनकी विशिष्ट पहचान को खतरा है. चीन और हांगकांग के स्थानीय प्रशासन द्वारा इस प्रदर्शनों पर काबू करने की कोशिश की गयी, लेकिन वे प्रदर्शन को रोक पाने में असफल रहे हैं.

रोजगार मांग रहे इराकियों के साथ बर्बरता

रोजगार, भ्रष्टाचार उन्मूलन और सार्वजनिक सेवाओं को बेहतर बनाने की मांग को लेकर अक्तूबर महीने से बड़ी संख्या में इराकी नागरिक सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं. सरकार विरोधी प्रदर्शन में अक्तूबर से अब 400 से अधिक प्रदर्शनकारियों की हत्या हो चुकी है.

बीते हफ्ते 40 लोगों की हत्या से भड़के आक्रोश के बाद इराकी प्रधानमंत्री अदेल अब्दुल महदी ने अपना इस्तीफा दे दिया है. प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सेना को उतारने पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटरेस ने नाराजगी जाहिर की है.

लेबनॉन : व्हॉट्सएप टैक्स ने सरकार को मुसीबत में डाला

अक्टूबर की 17 तारीख को लेबनॉन सरकार ने व्हॉट्सएप कॉल सहित तेल, गैस, तंबाकू आदि पर कर लगाने पर विचार किया था. इस खबर के फैलते ही सड़कों पर बड़ी संख्या में छात्र व युवा उतर आये.

देखते-देखते यह विरोध सरकार की नीतियों और देश के प्रभावशाली तबके के खिलाफ आंदोलन में बदल गया. बल प्रयोग समेत सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद जब युवाओं ने विरोध को वापस नहीं लिया, तो 29 अक्टूबर को प्रधानमंत्री साद हरीरी ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी, जिसमें उन्होंने प्रदर्शनकारियों की मांगों के साथ सहानुभूति भी जतायी थी. इससे पहले कर बढ़ाने के प्रस्ताव भी वापस ले लिये गये थे. लेकिन जैसा कि हांगकांग में हुआ था, जहां प्रत्यर्पण कानून के मसौदे को खारिज करने के बाद भी प्रदर्शन अब तक जारी हैं, उसी तरह से लेबनॉन में भी विरोधी अब अड़े हुए हैं तथा वे राष्ट्रपति के साथ तमाम पदों से लोगों के हटने की मांग कर रहे हैं.

असल में इन प्रदर्शनों के तात्कालिक कारण जो भी हैं, पर इसके पीछे लेबनॉन की राजनीतिक और नीतिगत गतिविधियों की पृष्ठभूमि है. कर लगाने के फैसले से पहले डॉलर का संकट आया था और पेट्रोल स्टेशनों पर हड़ताल हुई थी. वर्ष 1975 से 1990 के बीच हिंसक गृहयुद्ध के नुकसान से अभी यह देश निकल नहीं सका है तथा आज भी राजनीति सांप्रदायिक तनाव व खींचतान से ग्रस्त है. ऐसे में व्यवस्थित ढंग से शासन चलाना और युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा कर पाना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है. इस स्थिति से क्षुब्ध होकर ही युवा सड़कों पर आये हैं. टैक्स विरोध से शुरू हुए आंदोलन की मुख्य मांगें अब भ्रष्ट्राचार व बेरोजगारी हटाना है.

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