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प्रगतिशील आंदोलन की जरूरत आज के समय में ज्यादा

कविता, आलोचना व व्यंग्य, साहित्य की इन तीन विधाओं में मालिनी, गोड्डा (झारखंड) में जनमे प्रगतिशील साहित्यकार खगेंद्र ठाकुर की खास पहचान है. इन्होंने व्यंग्य के जरिये रूढ़ियों की पहचान करायी, ताकि समाज में प्रगतिशील मूल्य िवस्तार पा सकें. व्यंग्य रचना ‘ईश्वर से भेंटवार्ता’ में काल्पनिक ईश्वर से संवाद का बड़ा रोचक प्रसंग है. इन्होंने […]

कविता, आलोचना व व्यंग्य, साहित्य की इन तीन विधाओं में मालिनी, गोड्डा (झारखंड) में जनमे प्रगतिशील साहित्यकार खगेंद्र ठाकुर की खास पहचान है. इन्होंने व्यंग्य के जरिये रूढ़ियों की पहचान करायी, ताकि समाज में प्रगतिशील मूल्य िवस्तार पा सकें.
व्यंग्य रचना ‘ईश्वर से भेंटवार्ता’ में काल्पनिक ईश्वर से संवाद का बड़ा रोचक प्रसंग है. इन्होंने अपने कविता संग्रह ‘धार एक व्याकुल’, ‘रक्त कमल परती पर’ और ‘आजादी का परचम’ में लोकभाषा का प्रयोग कर इन्हें ज्यादा संदेशपरक बनाया है. 81 वर्ष के पार खगेंद्र ठाकुर फिलहाल पटना के राजीव नगर में रह कर साहित्य साधना कर रह रहे हैं. पिछले दिनों हमने उनसे बातचीत की. पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश…
Qआजादी के बाद साहित्य की कौन-सी विधा सबसे अधिक मजबूत हुई? प्रगतिशील आंदोलन को आज के परिप्रेक्ष्य में आप कितना जरूरी समझते हैं?
कथा साहित्य आजादी के बाद सबसे अधिक मजबूत हुई. देश के कई साहित्यकारों ने गरीबों व किसानों की समस्याओं को केंद्रित करते हुए कथाएं लिखीं.
प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में भारतीय जीवन को केंद्र में रख कर उनकी समस्याओं को दिखाया. 1952 में नागार्जुन के सबसे चर्चित उपन्यास बलचनमा का प्रकाशन हुआ. इसमें सामंतों के खिलाफ किसानों व मजदूरों के संघर्ष को दिखाया गया है. कविता के माध्यम से भी नागार्जुन ने किसानों के संघर्ष को सामने लाया था़ इसी तरह आप देखेंगे कि भारत विभाजन पर यशपाल लिखित ‘झूठा सच’ उपन्यास का प्रकाशन हुआ. वहीं, फणीश्वरनाथ रेणु के आंचलिक उपन्यासों में मैला आंचल व परती परिकथा चर्चित हुए.
मैला आंचल में ‘जाति समाज’ और ‘वर्ग चेतना’ के बीच विरोधाभास की कथा को दरसाया गया है़ रेणु की ‘तीसरी कसम’ पर फिल्म भी बनायी गयी़ रही बात आज के परिप्रेक्ष्य में प्रगतिशील आंदोलन की, तो देखिए, प्रगतिशील आंदोलन का उद्भव 1936 में हुआ. प्रेमचंद तो 1930 के बाद ही यह सोचने लगे थे कि लेखकों का संगठन बनना चाहिए, जो आजादी की लड़ाई के अलावा साहित्य व संस्कृति के बचाव के लिए काम करे. मैं मानता हूं कि इसकी जरूरत फिलवक्त ज्यादा है़
सत्ताधारी समेत अन्य पार्टियों के नेताओं के एजेंडों में किसानों, मजदूरों की समस्याएं शामिल नहीं हैं. अगर हैं भी, तो कागजी हैं. सत्ता के साथ-साथ समाज में जगह-जगह रूढ़िवादी संस्कृति हावी है. इस लिहाज से, प्रगतिशील आंदोलन आज के समय की मांग है.
Qव्यंग्य एक ऐसी विधा है, जिसके माध्यम से कई संदेश समाज में दिये जा सकते हैं. ‘देह धरे को दंड’ और ‘ईश्वर से भेंटवार्ता’, आपकी ये व्यंग्य रचनाएं काफी चर्चित हुई. इसके माध्यम से आपने क्या संदेश दिया है?
आपने सही ही कहा कि व्यंग्य ऐसी विधा है, जिसके माध्यम से व्यंग्यकार काफी कुछ संदेश दे जाता है. ‘ईश्वर से भेंटवार्ता’ मैंने समाज के रूढ़िवादी विचारों पर प्रहार किया है. ईश्वर की कल्पना व लोगों की आशक्ति पर मैंने इसमें लिखा है. इसमें ईश्वर से बात करते हुए यह कहा गया है कि आपने गीता के माध्यम से यह कहा कि जब-जब पृथ्वी पर दुष्टों की संख्या बढ़ती है, मैं अवतरित हो उनका नाश और सज्जनों की रक्षा करता हूं, तो क्या ऐसा है कि इस पृथ्वी पर केवल सज्जन हैं और दुष्ट नहीं हैं?
‘ईश्वर से भेंटवार्ता’ में ही ईश्वर कहते हैं आज के समय में सबसे बड़ा मेरा प्रताप यह है कि हत्यारा और जिनकी हत्या की जा रही है, दोनों मेरी पूजा कर रहे हैं. इसी तरह व्यंग्य के माध्यम से ईश्वर से कहा जाता है कि आपने सृष्टि का सृजन किया है, लेकिन, यह कल्पनाशील है. साहित्कार तो असली सृजनकर्ता होता है. मेरे कहने का अर्थ है एक व्यंग्य के माध्यम से आप समाज को जागरूक और रूढ़िवादी विचारों को बदल सकते हैं.
Qकुछ लोग कहते हैं कि मार्क्सवादियों ने वर्ण दृष्टिकोण विदेशों से लिया है. ‘आज का वैचारिक संघर्ष और मार्क्सवाद’ आलोचना में आपने क्या दरसाया है?
देखिए,चूंकि समाज गतिशील होता है और उसकी वैचारिक जरूरतें भी बदलती रहती हैं. हमारे यहां प्राचीन काल से वैचारिक संघर्ष की परंपरा रही है. सबसे पहले महात्मा बुद्ध हुए, जिन्होंने वर्ण दृष्टिकोण अपनाया. उन्होंने ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ कहा. सर्वजन को छोड़ दिया. विदेशों से मार्क्सवादियों का वर्ण दृष्टिकोण लेने की बात से मैं असहमत हूं. यह हमारे देश की परंपरा है. बुद्ध काल से लेकर गुप्त काल की आठवीं-नौवीं सदी तक बुद्धि और भावना का संघर्ष चलता रहा. इसके बाद बुद्धि पराजित हो गयी और भावना विजयी हो गयी.
Qऐसा कहा जाता है कि लोकभाषा व साहित्य में जो शक्ति होती है, वह अन्य भाषाओं में नहीं. आपने अपनी कविताओं में लोकभाषा का कितना प्रयोग किया है?
लोकभाषा हमारी बोलचाल की भाषा है. मेरा भी संबंध गांव से ही है, गांव में ही पला और पढ़ा. बाद के दिनों में शहर आया. इसलिए गांव के संस्कार तो मेरे अंदर हैं ही. मैंने अपनी कविताओं में जनजीवन के बारे में लिखा है. 1971 में एक छोटी-सी पुस्तिका ‘आजादी का परचम’ निकली. इसमें हमने सात कविताएं लिखीं. इसी तरह कविताओं का संग्रह ‘धार एक व्याकुल’ और ‘रक्त कमल परती पर’ में भी लोकभाषा का पुट समाहित किया है.
Qकालांतर के साथ साहित्य का स्वरूप कितनाबदला है? युवा साहित्यकारों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?
समय के साथ साहित्य का स्वरूप बदलता रहा है. साठ के दशक के बाद के दौर में उदय प्रकाश और अखिलेश ने बहुत ही अच्छी कहानियां लिखी हैं. बिहार के संदर्भ में देखें, तो रामधारी सिंह दिवाकर, अभय शंकर नर्मदेश्वर व संतोष दीक्षित अच्छे कहानीकार हैं. देखिए, युवा साहित्यकारों और लेखकों को संदेश देना मुश्किल काम है.
लेकिन, इन्हें जीवन के संपर्क में होना चाहिए, जीवन की सच्चाइयों को शब्दों में पिरोने की कला होनी चाहिए. जैनेंद्र कुमार, जो दार्शनिक, मनोविज्ञान व मध्यवर्ग के लेखक कहे जाते हैं, ने कहा है कि कहानी एक ऐसी कला है, जिसमें हमारे जीवन की बात हमारी ही भाषा में सामने रख दी जाती है. आजकल ऐसा साहित्य लिखे जाने की जरूरत है, जो युवा पीढ़ी को आकृष्ट करे. लोगों को जीवन के यथार्थ के नजदीक ले जाना लेखकों का महत्वपूर्ण काम है.
-बातचीत : पवन प्रत्यय

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