वर्ष 2014 का आम चुनाव एक ऐसी परिघटना का गवाह बनाने जा रहा है जो अब तक छिट-पुट और असंगठित था. कुछ सामाजिक कार्यकत्र्ता और जाने-माने चेहरे, आमतौर पर निर्दलीय और कभी-कभी किसी दल की तरफ से, लोकसभा और विधानसभा के हर चुनाव में किस्मत आजमाते हैं, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में इनकी भागीदारी पहली बार हो रही है.
आम आदमी पार्टी का उदय और देश के विभिन्न हिस्सों में उसकी बढ़ती लोकप्रियता ने इस परिघटना को तीव्रता दी है. राज्यस्तरीय पार्टियों ने पहले भी ऐसे उम्मीदवार खड़े किये हैं, लेकिन अलग-अलग पृष्ठभूमि के इतने सारे लोग, जिन्होंने अब तक राजनीतिक दलों के साथ-साथ राजनीतिक प्रक्रिया से भी खुद को दूर रखा था, पहली बार चुनावों में बड़ी दिलचस्पी दिखा रहे हैं.
आम आदमी पार्टी के अब तक घोषित उम्मीदवारों की सूची में सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर और सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल राज कादयान हैं, तो पूर्व बैंकर मीरा सान्याल और बौद्धिक योगेन्द्र यादव भी हैं. ऐसे लोगों का राजनीति में प्रवेश इसीलिए हो सका कि इस पार्टी ने विचारधारा के मामले में लचीला रुख अपनाया और अपना ध्यान भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्रित रखा. ऐसे लोगों का चुनाव मैदान में उतरना स्वागतयोग्य है, क्योंकि ये लोग स्थापित राजनीतिक दलों द्वारा उम्मीदवार चुनने के पारंपरिक गणित को तोड़ रहे हैं. यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि मुख्यधारा की पार्टियां जाति, क्षेत्र, जीतने की क्षमता, उम्मीदवार की आर्थिक हैसियत आदि के हिसाब से टिकट बांटती हैं. दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने इस ढांचे को तोड़ा, जो अब राष्ट्रीय स्तर पर भी किया जा रहा है.
हालांकि वोट बैंक, जातीय समीकरण और अन्य कारकों के प्रभावी रहने के माहौल में इन उम्मीदवारों के जीत को लेकर कई आशंकाएं हैं, लेकिन दिल्ली के मतदाताओं के रुख को देख कर यह उम्मीद बनती है कि देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसे कुछ उम्मीदवारों को जनसमर्थन मिलेगा. अगर ये नये उम्मीदवार ठेठ राजनीतिक उम्मीदवारों की राह मुश्किल कर दें, तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. यही अपने-आप में आनेवाले समय में देश की चुनावी राजनीति में बदलाव की ओर एक बड़ा कदम होगा.
गिरीश निकम
वरिष्ठ पत्रकार