अन्ना हजारे के साथ रहते हुए वीके सिंह लगातार राजनीति और राजनेताओं से परहेज की बात कहते रहे, लेकिन अब उनका मामला भी ‘मन तो कर रहा है, लेकिन शरीर शिथिल है’ जैसा है. वे उन उच्च नैतिक मानदंडों पर खरे नहीं उतर पाये, जिनकी दुहाई देते रहे थे..
चुनावी मौसम में कई नौकरशाह और सैन्य अधिकारी अपना कैरियर बदल कर राजनीति में आते हैं, लेकिन इसे सीधे-सीधे कैरियर बदलने की संज्ञा देना ठीक नहीं होगा, क्योंकि उनमें से ज्यादातर बिना किसी विशेष उपलब्धि के बहुत दिनों की सेवा के बाद राजनीति में आते हैं. इसे देश की सेवा की संज्ञा देना भी पूरा सही नहीं होगा, क्योंकि इनमें से बहुतों का आधिकारिक कैरियर अपनी नौकरियों में ही बीता है. ऐसा शायद ही होता है जब कोई अधिकारी अपने सिद्धांतों के कारण बड़ी नौकरी से इस्तीफा दे दे. अरविंद केजरीवाल ऐसा ही एक उदाहरण हैं. भाजपा में केजे अलफोंस हैं, जो आइएएस से इस्तीफा देकर केरल में माकपा के समर्थन से निर्दलीय विधायक बने. इन दिनों अल्फोंस भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं.
कई अधिकारियों ने तो अपने खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच शुरू होने से पहले राजनीति का दामन थाम लिया, यह सोच कर कि विरोधी दल के साथ होने से सरकार के आरोपों का सामना करना आसान हो जायेगा. यह उस कहावत को चरितार्थ करने जैसा है, जिसमें कहा जाता है कि राजनीति दुष्टों का अंतिम शरण्य है. कई बार ऐसे अधिकारी अच्छा भी कर जाते हैं और उच्च पदों तक पहुंचते हैं, लेकिन अपनी पुरानी आदतें नहीं छोड़ पाते और उन आदतों को इस नये कैरियर में भी ले आते हैं.
बहुत से नौकरशाह सेवानिवृत्ति से थोड़ा पहले या बाद में राजनीति से जुड़ते हैं. उदाहरण के लिए एनके सिंह को लीजिए जो हाल तक राज्यसभा के सदस्य थे और दोबारा सदन में नहीं भेजे जाने के कारण आजकल नाराज चल रहे हैं. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री कार्यालय से नीतीश कुमार के दरबार तक पहुंचनेवाले एनके सिंह जैसे नौकरशाह कुछ महत्वपूर्ण किये बिना ही सिर्फ सत्ता के करीब रहना चाहते हैं. सांसद के रूप में अंतिम दिन सदन में भावनात्मक भाषण देते हुए उन्होंने बिहार के लिए विशेष राज्य के दरजे की मांग की. मैंने यह भाषण सुना था. यह बहुत अच्छा भाषण था. लेकिन सवाल यह भी है कि उन्होंने पूरे छह साल इस मुद्दे पर क्या किया? उनके हश्र पर मुङो कबीर का एक दोहा याद आ रहा है- ‘दु:ख में सुमिरन सब करे, सुख में करे ना कोय / जो सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे को होये?’
बिहार के प्रसिद्ध धरतीपुत्र हैं लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा, जिन्हें राजनीति में एक नया पेशा नजर आया था. मैं हमेशा सोचता हूं कि क्या श्रीमती इंदिरा गांधी के ‘संवेदनशील एंटीना’ ने तब जनरल सिन्हा के मन में बैठी राजनीतिक तरंगों को पढ़ लिया था, जब उन्होंने इनको सेनाध्यक्ष नहीं बनाने का निर्णय लिया था! लेकिन अब लगता है कि वे सही थीं. सार्वजनिक जीवन में उनका कामकाज तब तक तो ठीक चल रहा था, जब तक उन्हें भगवान शिव सपने में दर्शन नहीं देने लगे और उन्हें बर्फ बनने की मौसमी प्रक्रिया देखने के लिए अमरनाथ तीर्थ के विस्तार का संदेश नहीं देने लगे. उनको देख कर मुङो भद्राचलम मंदिर के प्रसिद्ध भक्त रामदासु की कथा याद आती है. उस क्षेत्र के तहसीलदार कंचरला गोपन्ना को एक बार भगवान राम सपने में आये और भद्राचलम में भव्य मंदिर निर्माण का आदेश दिया. गोपन्ना ने सुलतान के राजस्व के खर्च से मंदिर का काम शुरू कर दिया. इस पर सुलतान ने उन्हें तहखाने में कैद करा दिया, जहां उन्होंने प्रसिद्ध गीतों की रचना की, जिनके कारण वे अमर हो गये.
भाजपा में सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों को शामिल करने की परंपरा रही है. इसी कड़ी में एक और नाम जुड़ गया है. दो जन्मदिन वाले पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने कई महीनों तक पूर्व लांस नायक किशनराव हजारे उर्फ अन्ना हजारे का शिष्य रहने के बाद अब भाजपा का दामन थामा है. अन्ना हजारे के साथ रहते हुए वीके सिंह लगातार राजनीति और राजनेताओं से परहेज की बात कहते रहे, लेकिन अब उनका मामला भी ‘मन तो कर रहा है, लेकिन शरीर शिथिल है’ जैसा है. वे उन उच्च नैतिक मानदंडों पर खरे नहीं उतर पाये, जिनकी दुहाई देते रहे थे.
हालांकि सरकारी अधिकारियों द्वारा अपना कैरियर बीच में ही छोड़ कर राजनीति के मैदान में कूदने के भी कई उदाहरण हैं. ऐसा एक बड़ा उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का है, जिन्होंने महात्मा गांधीजी के आह्वान पर डिप्टी कलेक्टरी की नौकरी छोड़ दी थी. पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक बनने से पहले हेड कांस्टेबल थे.
देश के गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे पर जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वाइ बी चव्हाण की नजर पड़ी, तब वे सब-इंस्पेक्टर थे. पता नहीं, चव्हाण को शिंदे में एक बेहतर मंत्री नजर आया या फिर एक बेहतर सब-इंस्पेक्टर! हालांकि ऐसे बहुत लोगों का काम निराशाजनक रहा है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एमएस गिल कांग्रेस की ओर से राज्यसभा पहुंचे और खेल मंत्रलय में राज्यमंत्री भी बने. तब एक और कांग्रेसी सांसद सुरेश कलमाडी उनके चक्कर लगाते हुए कॉमनवेल्थ खेलों में माल बना रहे थे.
मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी विजय मर्चेट ने एक बार कहा था, ‘उस समय रिटायर हो जाना बेहतर है जब लोग पूछें कि ऐसा क्यों, बनिस्पत उस समय रिटायर होने के जब लोग कहें कि क्यों नहीं?’ यह बात हमारे नौकरशाहों और सैन्य अधिकारियों पर भी लागू होती है.
मोहन गुरुस्वामी
वरिष्ठ अर्थशास्त्री