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कमाई फकीर की, पर खर्चे शहंशाह के

।। रविदत्त बाजपेयी ।। अर्थव्यवस्था की चुनौतियां : नये गरीबों की संख्या घटे भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती नव धनाढय़ों की संख्या बढ़ाने की नहीं, बल्किमौजूद गरीबों की संख्या घटाने और नये गरीबों की संख्या बढ़ने से रोकने की है. पढ़िए तीसरी कड़ी.भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती ऐसी दो समानांतर रेखाओं को मिलाना […]

।। रविदत्त बाजपेयी ।।

अर्थव्यवस्था की चुनौतियां : नये गरीबों की संख्या घटे

भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती नव धनाढय़ों की संख्या बढ़ाने की नहीं, बल्किमौजूद गरीबों की संख्या घटाने और नये गरीबों की संख्या बढ़ने से रोकने की है. पढ़िए तीसरी कड़ी.भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती ऐसी दो समानांतर रेखाओं को मिलाना है, जिनमें एक रेखा पर अतिशय धनाढय़ लोग हैं और दूसरी रेखा पर अत्यंत निर्धन लोग. वर्ष 1991 के गंभीर आर्थिक संकट ने भारत को अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों और इनके नियंत्रकों (पश्चिमी देशों) के सामने याचक के रूप में खड़ा कर दिया, विश्व बाजार में दिवालियेपन से बचने के लिए भारत ने उदारवादी, वैश्विक अर्थव्यवस्था के अनुरूप आर्थिक सुधारों का एक अभियान शुरू किया.

इन आर्थिक सुधारों के कारण ही स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार वर्ष 1991 के बाद अगले 17-18 सालों तक भारत के आर्थिक विकास की दर 7-16 फीसदी के बीच रही जो भारत की ऐतिहासिक रूप से सुस्त हिंदू विकास दर से तीन से छह गुना तक रही, इसी दौर में भारत को एक नयी वैश्विक आर्थिक महाशक्ति के रूप में भी प्रस्तुत किया गया.

इस तेज आर्थिक विकास के दो दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष भी रहे है. एक अत्यंत भयावह पक्ष जिसने प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन ने भारत की परंपरागत रूप से आत्मनिर्भर रही जनसंख्या को भी भुखमरी के स्तर पर ला दिया, एक अत्यंत स्याह पक्ष जिसने भारत में भ्रष्टाचार को अकल्पनीय स्तर तक पहुंचा दिया है. 17-18 सालों तक लगातार चली भारत की इस चमकीली विकास दर के बावूद केवल दो सालों की आर्थिक मंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था की आंतरिक विसंगतियों और संस्थागत समस्याओं को विकराल रूप में सामने लाया है.

भारत की अर्थव्यवस्था की मूलभूत समस्याओं को सुलझाने के दो पहलू हैं, पहला कठोर अनुशासन के साथ संस्थागत और नीतिगत परिवर्तन करना और दूसरा देश के राजनीतिक व प्रशासनिक नेतृत्व में इन कठोर निर्णयों को लागू करने की इच्छा शक्ति होना. इसके साथ ही यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों में भारत में कठिन आधारभूत व्यवस्था परिवर्तन के स्थान पर केवल पाबंदियों को हटाया था, जैसे विदेशी निवेश पर और औद्योगिक उत्पादन पर काबिज लाइसेंस-परिमट नियंत्रण को घटाना था, बंदिशें हटाना एक आसान विकल्प था जबकि कृषि-उद्योग-इंफ्रास्ट्रक्चर में ढांचागत सुधार लाना अपेक्षाकृत कठिन विकल्प था, आज भी यह विकल्प बेहद जटिल है.

भारत कृषि प्रधान देश अवश्य है लेकिन कृषि की प्रधानता लगातार घटती जा रही है, 1950-51 में कृषि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 52 फीसदी था जबकि वर्ष 2013 में यह केवल 14 फीसदी रह गया है लेकिन आज भी लगभग 50 फीसदी लोगों को कृषि क्षेत्र में ही रोजगार मिल रहा है. सारे प्रशासनिक उपायों के बाद भी भारत में कृषि की विकास दर 3-3.5 फीसदी ही रही है, पिछले दो दशकों में तो कृषि एक घाटे का व्यवसाय बन गया है.

ग्रामीण व कृषि क्षेत्र में निवेश के नए स्नेतों का निर्माण का ढिंढोरा पीटने के बाद आज भी निजी कर्ज पर कृषि में निवेश करना कृषकों के लिए मृत्य़ुदंड स्वीकारने के बराबर है. खाद पर सब्सिडी और सरकार द्वारा न्यूनतम मूल्य पर कृषि उत्पादों की खरीद को उदारवादी अर्थशास्त्री बहुमूल्य राष्ट्रीय आय का अपव्यय बताते है जबकि सच्चाई यह है कि भारत में यह सब्सिडी अन्य देशों से ज्यादा नहीं है और अपव्यय का मुख्य कारण प्रशासनिक भ्रष्टाचार है. कुछ समय पहले जब गन्ना उत्पादकों ने अपनी बकाया राशि और समुचित मूल्य की मांग रखी तो भारत सरकार ने चीनी मिलों को गन्ना खरीदने के लिए बैंकों से कर्ज देने का प्रावधान बनाया, गन्ना उत्पादकों को उनका बकाया सीधे देने के बजाय इसे चीनी मिलों के माध्यम से क्यों दिया गया?

भारत में 1991 के उदारीकरण के बाद औद्योगिक प्रगति के अनेक दावे किये गये, उत्पादन उद्योग के स्थान पर भारत का सेवा उद्योग जैसे सॉफ्टवेयर, बीपीओ, पश्चिमी देशों के दफ्तरों के रोजमर्रा के अलाभकारी काम की बहुत तेजी से वृद्धि हुई है. पिछले कुछ वर्षो में भारत के इस सेवा उद्योग को फिलीपींस, वियतनाम जैसे देशों से कड़ी चुनौती मिल रही है क्योंकि ये सेवा उद्यान अब और भी कम खर्च पर इन देशों से चलाये जा सकते है. भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे आवागमन के साधनों के पास जमीन, तेज व सुरिक्षत रेल, हवाई अड्डे, समुद्री बंदरगाह, बिजली की आपूर्ति की कमी, संदिग्ध औद्योगिक नियमों तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने नये उद्योग लगाने और विदेशी निवेश को भारत आने से रोका है. इसके साथ ही नये उद्योगों की स्थापना में भारत के अनेक भी एक बड़ी बाधा है.

औद्योगिक विकास के मार्ग में भारत के श्रम कानूनों को बहुत दोष दिया जाता है, वैश्वीकरण के इस दौर में श्रमिकों को न्यूनतम वेतन व सुविधाओं पर काम करने की बाध्यता है अन्यथा उद्योग अपने कल-कारखाने किसी भी अन्य देश में ले जाने को स्वतंत्र है. भारतीय श्रम कानून में सुधार की आवश्यकता अवश्य है लेकिन इसे श्रमिकों के लगातार घटते अधिकारों को और सीमित करने का माध्यम नहीं बनाया जा सकता भारत में किसी भी प्रशासनिक-राजनीतिक व्यवस्था के लिए श्रमिक अधिकारों के साथ औद्योगिक विकास हासिल करना बहुत पेचीदा मामला है. औद्योगिक विकास के अभाव ने न सिर्फ भारत की बड़ी आबादी को रोजगार के अवसरों से वंचित रखा है बल्किआर्थिक मंदी से निकलने में भारत के विकल्प बहुत सीमित कर दिये हैं.

भारतीय रु पये का अवमूल्यन, विदेशी निवेश का भारत से पलायन, चालू खाते का घाटा (कमाई फकीर की पर खर्चे शहंशाह के), भुगतान असंतुलन (विदेश को अल्पतम बेचना, पर विदेश से अधिकतम खरीदना) जैसे मुद्दों पर अल्पकालिक नुस्खे कारगर नहीं हो रहे हैं, इन समस्याओं को हल करने के लिए अब कुछ कड़े निर्णय लेने की आवश्यकता है. भारत में सामाजिक सुरक्षा से संबंधित कुछ योजनाओं जैसे मनरेगा, खाद्यान्न सुरक्षा आदि सरकारी संसाधनों के अपव्यय के नाम पर भारी निंदा की जाती है, लेकिन इन योजनाओं का उद्देश्य सही लाभार्थियों को तलाशना और उन तक पहुंचना है. इसके बाद भी इन योजनाओं से आम लोगों को स्वावलंबी बनाने के स्थान पर सरकारी आश्रित बनाने की आलोचना कुछ हद तक सही है लेकिन इसी वजह से इन योजनाओं को बंद करना भी अनुचित है. भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती नव धनाढय़ों की संख्या बढ़ाने की नहीं, बल्किमौजूद गरीबों की संख्या घटाने और नये गरीबों की संख्या बढ़ने से रोकने की है.

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