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”शक्ति ही जीवन, कमजोरी मृत्यु”

बल्देव भाई शर्मा सत्तर के दशक में आयी कालजयी फिल्म ‘शोले’ का संवाद आज भी कई फिल्मों के गानों से भी ज्यादा लोकप्रिय है. उसी में एक दृश्य में डाकू गब्बर सिंह बोलता है ‘जो डर गया सो मर गया.’ आजकल टीवी पर एक शीतल पेय के विज्ञापन में एक स्लोगन बार-बार दिखाया जाता है […]

बल्देव भाई शर्मा

सत्तर के दशक में आयी कालजयी फिल्म ‘शोले’ का संवाद आज भी कई फिल्मों के गानों से भी ज्यादा लोकप्रिय है. उसी में एक दृश्य में डाकू गब्बर सिंह बोलता है ‘जो डर गया सो मर गया.’

आजकल टीवी पर एक शीतल पेय के विज्ञापन में एक स्लोगन बार-बार दिखाया जाता है ‘डर के आगे जीत है.’ आज भले ही बाजार अपने उत्पाद चाहे वह फिल्म हो या कोई उपभोक्ता वस्तु, बेचने के लिए इन वाक्यों का प्रयोग कर रहा हो, लेकिन यह दर्शन और जान जो ऊपर के दो संवादों में प्रकट हो रहा है, वह भारतीय शास्त्रों व हिंदू दर्शन में जगह-जगह उद्धृत हुआ है.

इसी जीवन दृष्टि को वेदांत के व्याख्याकार स्वामी विवेकानंद ने विश्व के सामने इन शब्द में रखा-‘स्ट्रेंथ इज लाइफ, वीकनेस इज डेथ.’ यानी शक्ति ही जीवन है और कमजोरी मृत्यु. यह उसी उद्घोष की प्रतिध्वनि है जो हमारे शास्त्रकारों ने हजारों वर्ष पहले किया, यानी डरो मत. प्रसिद्ध अंगरेजी नाटककार शेक्सपियर ने अपने एक प्रसिद्ध नाटक ‘जूलियस सीजर’ में एक बड़ा चर्चित संवाद दिखा है जो आज भी राजनीतिक विश्वासघात के प्रसंगों में अक्सर इस्तेमाल किया जाता है ‘द ब्रेव डाइज वंस एंड कावर्ड्स डाइ मेनी’ यानी बहादुर लोग सिर्फ एक बार मरते हैं लेकिन कायर और डरपोक कई बार अर्थात रोज-रोज मरते हैं.

जैन मत के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर के बचपन की एक कथा इस संदर्भ में बड़ी प्रेरक है. बालक वर्द्धमान अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था, वहीं एक पेड़ के नीचे बैठ कर वह ध्यान मुद्रा में आ गया कि तभी बच्चों ने देखा कि वहां एक सर्प आ गया. बच्चे डर गये और ध्यानमग्न वर्द्धमान को चेताने लगे, सांप आ गया, भागो. बालक उस सर्प-सर्प के शोर के बीच भी निर्भय होकर ध्यान में बैठा रहा, डरा, न भागा. उधर डर से भाग रहे बच्चों ने देखा कि वर्द्धमान तो निडर ध्यान में बैठा है, लेकिन सांप उसके पास से धीरे-धीरे वापस लौट रहा है.

ऐसी निर्भरता के कारण ही उनका नाम वर्द्धमान महावीर हो गया.

विजय बड़ा रोमांचक शब्द है. विजयी व्यक्ति की चहुंओर जय-जयकार होती है और पराजित को कोई पूछता नहीं. विजय वीरता की प्रतीक है. हमारे शास्त्रकारों ने कहा है ‘वीरभोग्या वसुंधरा.’ यह धरती कायरों के लिए नहीं है, वीर ही इस पर शासन करते हैं. पर वीरता और विजय का मार्ग क्या हिंसा से होकर ही गुजरता है ? कलिंग विजय के बाद सम्राट अशोक चारों ओर लाशें और खून की नदी देख उद्विग्न हो गया और शांति का पुजारी बन गया.

भारतीय चिंतन में बड़ी विविधता है, यह बहुआयामी है. हर प्रश्न का उत्तर इसमें खोजा जा सकता है यदि छिद्रान्वेषण का दुराग्रह और जिद न हो तो.

इस चिंतन में दुष्टों का संहार करने के भी उनके आख्यान हैं. राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा तो इसके प्रतीक हैं और निरंतर पूजे जाते हैं परंतु ये हिंसा के प्रतीक नहीं माने गये क्योंकि इन्होंने जन-मन को त्रास देने वाले और अधर्म, अन्याय, अनीति का अवलंबन करने वाले दुष्टों, राक्षसों का संहार किया और धर्म, न्याय व नीति की स्थापना की. हमारे शास्त्रकारों ने कहा भी है ‘शठे शाठ्यं समाचरेत.’ बार-बार समझाने पर भी न माने तो दुष्ट के साथ दुष्टता से ही पेश आयें. दूसरी और वीरत्व और विजय का एक और सूत्र हमारे मनीषियों ने दिया ‘आत्मजयी बनो.’

इस पर एक लोकोक्ति भी बन गयी ‘जिसने खुद को जीत लिया, उसने जग जीत लिया.’ लोकोक्तियां भारत की शास्त्रीय ज्ञान परंपरा की वाहक हैं. आज तथाकथित वैज्ञानिक व आधुनिक सोच इन्हें खारिज करके या पोंगापंथ कह कर मानव समुदाय का बड़ा अहित कर रही है. दरअसल यह सोच लोकोक्तियों की गहराई को समझ ही नहीं पाती, इसलिए जो उसकी समझ में नहीं आता वह पोंगापंथ है, बेकार है, त्याज्य है. एक प्रार्थना में आत्मजयी होने का बड़ा सुंदर निरूपण किया गया है-‘दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें.’ खुद को जय करना ही सच्ची वीरता है, इसी में से वैश्विक शांति और सद्भभाव का मार्ग निकलता है.

भारतीय चिंतन ही दुनिया को यह रास्ता दिखा सका, यह अलग बात है कि इस मार्ग पर चला नहीं जा रहा. परिणामत: पूरी दुनिया अशांति और टकराव के एटम बम पर खड़ी है, न जाने कब विस्फोट हो जाये. आश्चर्य तो यह है कि भारतवासी भी इस चिंतन को भूल कर दूसरों को, यहां तक कि अपने नजदीकियां यानी पड़ोसियों, साथियों व परिजनों तक को हराने में ही अपनी वीरता समझते हैं. वे भूल जाते हैं कि अपनों को हरा कर कोई विजयी नहीं हो सका. वह विजय का दंभ भले पाल ले, लेकिन ऐसा व्यक्ति सबसे हारा, हताश, अकेला रह जाता है.

सरल शब्दों में कहें तो अपनी बुराइयों पर विजय पाना ही आत्मजयी होना है. ये बुराइयां ही तो क्लेश की जड़ हैं जो हमारे द्वारा दूसरों को दुख देने का कारण बनती हैं, शायद उससे भी ज्यादा हमें दुखी रखने का. इन बुराइयों को वर्द्धमान ने जाना, इन पर विजय पायी और वह महावीर बन गये. विश्व को उन्होंने शांति, सौहार्द, दया, क्षमता का संदेश दिया. जैन धर्म का दशलक्षण पर्व जिसे पर्यूषण पर्व भी कहा जाता है, व्यक्ति के अंदर बैठी इन्हीं बुराइयों पर विजय पाने यानी आत्मज्य का पर्व है.

हनुमान जी भी महावीर कहलाते हैं क्यों वह जितेंद्रिय हैं. उन्होंने इंद्रियां को जीत लिया. श्रीरामचरित मानस के सुंदर कांड में तुलसी दास जी ने उनकी स्तुति में लिखा है-‘जितेंद्रियां बुद्धिमतां वरिष्ठम्.’ ये इंद्रियों की वासना ही तो हमें काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और ईष्या जैसी बुराइयों में फंसाती है. इन बुराइयों को जीत लेने पर सारा राग-द्वेष ही मिट जाता है, स्वार्थ भेद खत्म हो जाता है. ऐसे मनों में फिर परस्पर प्रेम, सेवा, अपनत्व के भाव ही उभरते हैं जो सबका दिल जीत लेते हैं. ऐसा व्यक्ति सर्वजयी, सबका दुलारा बन जाता है.

वास्तव में हार-जीत तो बुराई और अच्छाई के बीच की जंग है. मन में अच्छाई का, गुणों का, सदाचार का आवेश व संस्कार जग जाये तो फिर हार कहां, जीत ही जीत है. भले ही हम स्वार्थवश कितने ही भ्रमों में फंसे रहें लेकिन यही जीवन का सत्य है, इसीलिए कहा गया ‘सत्यमेव जयते.’

श्रीरामचरितमानस में राम-रावण युद्ध के समय का बड़ा मार्मिक प्रसंग है.’रावण रथी विरय रघुवीरा, देखि विभीषण भपड अधीरा.’ विभीषण घबरा रहे हैं कि रावण तो रथ पर सवार सैन्य सज्जित है, लेकिन राम के पास न तो रथ है, न पैरों में पादुकाएं. विजय कैसे होगी ? विभीषण की चिंता को राम समझ जाते हैं व कहते हैं यदि हम सब और दुनिया अपना ले तो सारा भेद, दुख, संघर्ष ही मिट जाये. मानस की छह चौपाइयों में राम विजय और वीरत्व का मर्म समझाते हुए कहते हैं-सौरज धीरज तेहि रथ चाका. सत्यशील द्ढ़ ध्वजा पताका.

बल विवेक दम परहित घोरे/क्षमा कृपा समता रजु जोरे.’ यानी शौर्य, धैर्य जिस रथ के पहिए हों, जिस पर सत्य व सदाचरण की पताका फहरा रही हो. जिस रथ में बल, विवेक, इंद्रियों पर नियंत्रण और परोपकार रूपी घोड़े जुड़े हों जिनकी बाग यानी रस्सियां, क्षमता, कृपा ओर क्षमता रूपी हों, ईश्वर भक्ति इस रथ की सारथी हो, इस पर संतोष रूपी तलवार और वैराग्य की ढाल रखी हो. जहां रखे शास्त्रों में दान रूपी फरसा, बुद्धि रूपी प्रचंड शक्ति, विज्ञान रूपी धनुष और पवित्र व स्थिर मन रूपी तरकश में मन का वश में होना, अहिंसा व शुचिता आदि यम-नियम जैसे वाण भरे हों तो इससे बड़ा विजय का दूसरा उपाय नहीं है.

श्रीराम अंत में कहते हैं सखा विभीषण ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास हो उसे बड़े से बड़ा शत्रु भी नहीं हरा सकता.’ महा अजय संसार रिपु जीति सकह सो वीर’ इन गुणों से युक्त वीर पुरुष जिसके पास ऐसा रथ हो वह अजेय संसार रूपी शत्रु को भी जीत लेगा. वास्तव में कामनाओं व वासनाओं से मुक्त सेना ही निर्भयता और वीरता है.

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