
बिहार के सहकारिता मंत्री आलोक मेहता प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की घोषणा करते हुए.
‘भारत जैसे संघीय राज्य में केंद्र और सूबों के बीच जिस तरह के संबंध हैं, भारत में ‘को-ऑपरेटिव फ़ेडरेलिज़्म’ की जैसी भावना है, उसका सम्मान करते हुए बिहार ने प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना लागू करने का निर्णय लिया है.’’
लंबे खींच-तान के बाद इन शब्दों के सहारे बिहार सरकार ने सहकारिता मंत्री आलोक मेहता ने बुधवार को सूबे में प्रायोगिक तौर पर प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना यानी पीएमएफबीवाई लागू करने की घोषणा की.
अब तक प्रीमियम राशि के हिस्सेदारी की शर्त, प्रीमियम दर, योजना के नाम जैसे मुद्दों पर आपत्ति जताते हुए बिहार ख़ुद को पीएमएफबीवाई लागू करने में असमर्थ बता रहा था.
इन सब में बिहार की सबसे रोचक आपत्ति इस योजना के नाम को लेकर थी. पीएमएफबीवाई के प्रीमियम राशि में अभी केंद्र और राज्य को बराबर की हिस्सेदारी देनी होती है. इसका एक छोटा सा हिस्सा किसान भी देते हैं.

इस व्यवस्था पर बिहार के दो तर्क थे. पहला, चूंकि यह केंद्र सरकार की योजना है तो प्रीमियम का बड़ा भार वह वहन करे. दूसरा, अगर केंद्र ऐसा नहीं करती तो योजना का नाम बदल कर प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री-किसान फसल बीमा योजना हो क्योंकि इसका भार केंद्र, राज्य और किसान सब मिल कर उठा रहे हैं.
पीएमएफबीवाई कोई नई योजना नहीं है लेकिन जानकारों के मुताबिक़ इसमें हाल-फ़िलहाल कुछ बदलाव किए गए हैं. ऐसे में सवाल यह कि क्या बिहार सरकार की चिंताएं महज़ राजनितिक वजहों से हैं? बिहार में विपक्ष की भूमिका निभा रही भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा का मानना कुछ ऐसा ही है.
पार्टी के प्रदेश इकाई के प्रधान प्रवक्ता और पार्षद विनोद नारायण झा आरोप लगाते हैं, ‘‘ये राजनीति बयानबाज़ी है. बिहार सरकार की नीयत नहीं है कि बिहार के किसानों की परेशानी कम हो. असल में नीतीश सरकार में बिहार दिवालिएपन के कगार पर है. इनके पास बीमा प्रीमियम भरने को पैसे नहीं हैं.’’
विनोद नारायण झा के मुताबिक़ नीतीश कुमार शराबबंदी को लेकर अपनी ब्रांडिंग में लगे हैं. बिहार के किसानों और सूबे के विकास पर अब उनका ध्यान नहीं है.

क्या बिहार जैसे ग़रीब राज्य को ऐसी योजनाओं में छूट नहीं मिलनी चाहिए? इस सवाल के जवाब में विनोद कहते हैं, ‘‘भारत के ग़रीब-से-ग़रीब राज्य ने पचास-पचास फ़ीसदी की हिस्सेदारी की शर्त पर यह योजना लागू की है. बिहार क्या पश्चिम बंगाल और उड़ीसा से भी ग़रीब है.’’
अर्थशास्त्री और एएनसिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर भी यह मानते हैं कि जब केंद्र और राज्य में विरोधी दल या गठबंधन की सरकारें होती है तो ऐसे मसलों पर राजनीति होती है. पहले ऐसी रस्साकसी कम होती थी, अब ज़्यादा हो रही है.
वे उदाहरण देते हैं, ‘‘राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान को ध्यान में रखते हुए इस योजना का प्रीमियम दर तय किया जा रहा है. उत्तरप्रदेश में चुनाव होने वाले हैं तो वहां प्रीमियम दर कम है, बिहार में चुनाव हो चुके तो यहां यह दर ज़्यादा है.’’
हालांकि दिवाकर का यह भी मानना है कि बिहार की मांगे जायज़ हैं. वे कहते हैं, “बिहार जैसे ग़रीब राज्य को चौदहवें वित्त आयोग की अनुशंसाओं से नुक़सान हुआ है. ऐसे में इस योजना में केंद्रांश बढ़ाना और भी ज़रुरी हो गया है. ऐसा भारत के संघीय ढांचे के मुताबिक़ भी किया जाना चाहिए.’’

दिवाकर ग़रीब राज्यों में प्रीमियम दर कम करने और योजना का नाम बदलने की मांग को भी सही मानते हैं. वहीं जनता दल युनाइटेड के नेता और राज्य सभा सांसद अली अनवर इससे इंकार करते हैं कि बिहार सरकार की मांगें राजनीति से प्ररित हैं.
वे सवाल करते हैं, ‘‘जिस योजना में राज्य की आधी हिस्सेदारी हो उसका नाम केवल प्रधानमंत्री के नाम पर क्यों रहेगा? यूपी के बलिया और बिहार के बक्सर की भौगोलिक बनावट एक जैसी है तो दोनों जिले के प्रीमियम दरों में इतना अंतर क्यों है.’’
अनवर साथ ही इस पर भी चिंता जताते हैं कि ऐसी योजनाओं को लागू करने में केंद्र राज्यों से मशवरा नहीं करता है. अनवर का दावा है कि बिहार सिर्फ़ अपने लिए नहीं बल्कि सभी राज्यों के लिए एक सैंद्धांतिक मांग कर रहा है.
बिहार राज्य में किसानों की कुल संख्या लगभग 1.62 करोड़ है. सरकार के मुताबिक़ राज्य के कुल किसानों में से लगभग 10 प्रतिशत किसान ही इस योजना के दायरे में आ पायेंगे.
योजना की अंतिम तिथि पंद्रह अगस्त है. इस समय सीमा में करीब 16 लाख किसानों को इस योजना के तहत सुरक्षा प्रदान करना लगभग नामुमकिन बताया जा रहा है.

ऐसे में बड़ा सवाल यह कि अगर योजना की अंतिम तिथि नहीं बढ़ी तो लाखों किसान इस योजना का लाभ कैसे उठा पाएंगे?
इसे देखते हुए बिहार सरकार ने योजना की अंतिम तिथि को बढा़कर 31 अगस्त करने की मांग की है. देखना दिलचस्प होगा कि क्या इस मांग पर भी खींच-तान होती है?
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