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सरकारें बदलीं, नरेश चंद्रा का जलवा कायम रहा

।। रेहान फजल ।। भारतीय अफसरशाही-9 : तालमेल बिठाने में माहिर नौकरशाह बहुत कम आइएएस अधिकारी ऐसे हैं, जिन्हें भारत के सर्वोच्च पदों के साथ साथ कूटनीति में भी शीर्ष स्तर पर काम करने का मौका मिला है. राजस्थान कैडर के 1956 बैच के नरेश चंद्रा की गिनती इन्हीं लोगों में की जा सकती है. […]

।। रेहान फजल ।।

भारतीय अफसरशाही-9 : तालमेल बिठाने में माहिर नौकरशाह

बहुत कम आइएएस अधिकारी ऐसे हैं, जिन्हें भारत के सर्वोच्च पदों के साथ साथ कूटनीति में भी शीर्ष स्तर पर काम करने का मौका मिला है. राजस्थान कैडर के 1956 बैच के नरेश चंद्रा की गिनती इन्हीं लोगों में की जा सकती है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से गणित में एमएससी करने के बाद आइएएस में आने से पहले कुछ समय नरेश चंद्रा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी.वह अपने पूरे प्रशासनिक कैरियर का सर्वश्रेष्ठ समय झुंझनू, भरतपुर और जोधपुर में बिताये गये दिनों को मानते हैं.

महज 26 साल की उम्र में वो जिले के कलक्टर बन गये थे. बहुत ही बहुआयामी ड्यूटी थी वह. नरेश चंद्रा को अब भी याद है, ‘कई बार गांव जाता था. देखता था कि वहां आग लग गयी है और सारे घर जल गये हैं. जून का महीना. भीषण गर्मी. न आपके पास बजट है, न कोई ट्रक है, न वाटर टैंकर. तब सेल फोन का तो कोई सवाल ही नहीं था. एक दो दिन लगता था रिलीफ ऑर्गनाइज कराने में. जिला मुख्यालय आ कर सेठों को हाथ-पैर जोड़ कर रिलीफ भिजवाते थे.’ नरेश चंद्रा की राय है कि किसी भी आइएएस के लिए सबसे अच्छी पोस्टिंग तब होती है, जब वह जिले का कलक्टर होता है. लेकिन उनके शब्दों में, ‘आपके दफ्तर का दरवाजा खुला होना चाहिए. ये नहीं कि फूंफा है, परदा लगा है, चपरासी खड़ा है. डायरी है और एक-एक कर के लोग आ रहे हैं.

ये बिल्कुल गलत है. मेरे यहां तो बेंच पड़ी रहती थी. जो चाहता था आकर बैठ जाता था. मैं ख़ुद देख लेता था कि कौन पहले आया.’ नरेश चंद्रा को राजस्थान के कई मुख्यमंत्रियों के साथ काम करने का मौका मिला. मोहनलाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी और शिवचरण माथुर के साथ उन्होंने काम किया. बरकुतुल्लाह खां जब मुख्यमंत्री थे, तब चंद्रा उद्योग मंत्रलय में सचिव हुआ करते थे.

गलती पर माफी

नरेश बताते हैं कि उनके जमाने में अफसरों को किसी भी मुख्यमंत्री के तंग करने का सवाल ही नहीं था. गलती भी करते थे, तो माफ कर देते थे. मैंने नरेश चंद्रा से पूछा कि केंद्र में आपने अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया है. राजीव गांधी के जमाने में आपको महत्वपूर्ण पद दिया गया. वीपी सिंह के जमाने में आप गृह सचिव थे.

चंद्रशेखर ने आपको कैबिनेट सचिव बनाया. नरसिंह राव ने भी आपको अपना सलाहकार बनाया. आपने ये सब कैसे मैनेज किया? उनका जवाब था, ‘कुछ किस्मत की भी बात होती है. मुझसे एक भी प्रधानमंत्री ने कभी भी कुछ गलत काम करने के लिए नहीं कहा. सिर्फ एक बार एक मंत्रीजी के साथ साल-छह महीने सामंजस्य बैठाने में समय लगा. जब उनको लग गया कि ये कुछ करने वाला नहीं है, तो उनको लग गया कि इसको छेड़ने से कोई फायदा नहीं है.’

गौर से पढ़ने वाले पीएम

नरेश याद करते हैं कि राजीव गांधी फाइलें बहुत गौर से पढ़ते थे और उनकी ड्राफ्टिंग सिविल सर्वेंट से भी बेहतर थी. उनमें बॉर्न लीडरशिप क्वालिटी थी. वीपी सिंह के समय हमेशा कुछ न कुछ मुसीबत थी. बाबरी मसजिद का मामला चल रहा था, मंडल कमीशन का मुद्दा था और कश्मीर में दिक्कत चल रही थी. चंद्रशेखर नेचुरल लीडर थे. गरीबों के प्रति उन्हें सहानुभूति थी. उनमें बड़ी जबरदस्त लीडरशिप क्वालिटी थी. संसद में अगर उन्हें सपोर्ट मिलता, तो वो देश चला सकते थे. अटल जी भी निश्चित रूप से एक नेचुरल लीडर थे. हर चीज को सिन्थेसाइज करना उनकी खासियत थी. वैसे चंद्रा को सबसे ज्यादा समय तक नरसिंह राव के साथ काम करने का मौका मिला.

उनके साथ अपने काम के अनुभव के बारे में नरेश चंद्रा ने कहा,‘सबसे लंबे समय तक मैंने उनके साथ काम किया. वो भी गहरी सोच के इंसान थे लेकिन कई बार वो जानबूझ कर फैसले लेने में देर करते थे.’

1996 में नरेश चंद्रा को अमेरिका में भारत का राजदूत बनाया गया. उनके लिए ये बिल्कुल नयी दुनिया थी. वैसे कई बार वह भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर चुके थे. लेकिन दूतावास में काम करने का उनका ये पहला अनुभव था.

दुनिया भर में रखा पक्ष

उस समय उनको खासी चुनौती का सामना करना पड़ा जब भारत ने अपना परमाणु परीक्षण किया और उन्हें उसे पूरी दुनिया में भारत का बचाव करना पड़ा. नरेश चंद्रा कहते हैं, ‘अमेरिका में मीडिया से भागने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. मुङो जिसने भी बुलाया चाहे सीएनएन हो, बीबीसी हो, फॉक्स न्यूज हो, जिम लैरर शो हो, मैं गया. मुङो सुबह छह बजे से रात बारह बजे तक बुलाया जाता था और मैं जाता था.’ ये चुनौती कितनी मुश्किल भरी थी, इसके जवाब में नरेश चंद्रा ने आगे बताया, ‘अमेरिका की प्रेस थोड़ा तो साथ देती है स्टेट का, लेकिन पूरा नहीं. वो हमारी बात भी सुन कर छापते थे.

मेरा तर्क यह होता था कि हिंदुस्तान में दुनिया की एक बटा छह जनसंख्या रहती है. वहां की सरकार उनकी सुरक्षा के लिए उदासीन नहीं रह सकती. जब चीन और पाकिस्तान के पास टेस्टेड न्यूक्लियर डिवाइस पड़ा है, तो आप भारत को मना नहीं कर सकते. हमने आपसे न्यूक्लियर अंब्रेला की गारंटी मांगी थी, तो आपने मना कर दिया था. बहरहाल हिंदुस्तान के खिलाफ हवा बदली, लेकिन इस काम में मेहनत बहुत करनी पड़ी.’

रुतबे पर असर नहीं

एक सरकार के जाने के बाद अक्सर उसके प्रमुख अधिकारियों को भी महत्वहीन महकमों में भेज दिया जाता है, लेकिन नरेश चंद्रा का अनुभव इससे थोड़ा अलग रहा है. जब वो अमेरिका में भारत के राजदूत थे, तब कांग्रेस चुनाव हार गयी. अटल बिहारी वाजपेयी ने उनका त्यागपत्र खारिज कर दिया. जब देवेगौड़ा आये तो नरेश चंद्रा ने उनसे भी पूछा कि क्या आप मेरी जगह अपना आदमी भेजना चाहेंगे तो उन्होंने भी मना कर दिया. अटल वापस आये तब भी उन्होंने नरेश से यही कहा कि आप अपना काम जारी रखिए. ऐसी तमाम मिसालें हैं जब सरकार बदलने के बावजूद अफसरों को नहीं छेड़ा जाता था. लेकिन कई बार अफसर भी गलती करते हैं और राजनीतिक सत्ता का फायदा उठाते हैं. ऐसे में उनको खमियाजा भी भुगतना पड़ता है.

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