नरेंद्र मोदी के दिल्ली जाने के बाद गुजरात में मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल से चीज़ें संभल नहीं रही हैं, गुजरात में ये ढंकी-छिपी बात नहीं है.
आरएसएस के एक नज़दीकी विश्लेषक के मुताबिक़, "जब बड़ा कोई वटवृक्ष जाता है तो बाद में ऐसी घटनाएं होती हैं. उसके बाद का व्यक्ति बातों को संभाल नहीं पाता."
पाटीदार आंदोलन, दलितों पर हमले, गौरक्षकों का आतंक, दलित आंदोलन, प्रदेश सरकार का दलित आंदोलन पर देर से जागना, ख़ुद के परिवार पर आरोप. आनंदीबेन पटेल के लिए चुनौतियां ढेर सारी हैं.
गुजरात में भाजपा नेताओं से बात करें तो उनकी बेचैनी साफ़ झलकती है.
एक भाजपा नेता ने कहा, "विधायकों के बीच आनंदीबेन पटेल के लिए समर्थन शून्य के बराबर है. लेकिन नरेंद्र मोदी का हाथ उनके सिर पर होने के कारण वो सत्ता में रहेंगी. यहां गौरक्षा के नाम पर लूटखसोट संगठित अपराध हो गया है. लेकिन प्रशासन कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है."
याद रहे अगर आप अहमदाबाद में आम हिंदुओं से बात करें तो कई लोग भाजपा को संगठित अपराध खत्म करने का श्रेय देते हैं. करीब 30 साल से अहमदाबाद में रह रहे राजस्थान के मेरे ड्राइवर के मुताबिक़ भाजपा सरकार आने से पहले सड़कों पर चलना फिरना दूभर था. लेकिन अब लोगों में सुरक्षा की भावना है.
गुजरात के राजनीतिक विश्लेषकों, गुजरात भाजपा नेताओं के बीच आनंदीबेन पटेल के भविष्य को लेकर कई तरह की चर्चाएं हैं.
एक चर्चा ये है कि नवंबर में आनंदीबेन पटेल 75 साल की हो जाएंगी और तब वो इस्तीफ़ा दे देंगीं. उनके बाद स्वास्थ्य मंत्री नितिन पटेल, शिक्षा मंत्री भूपेंद्र सिंह चूड़ासमा, वित्त मंत्री सौरभ पटेल और राज्य बीजेपी अध्यक्ष और जल संसाधन और ट्रांसपोर्ट मंत्री विजय रूपाणी के बीच अगले मुख्यमंत्री पद को लेकर टक्कर होगी.
दूसरी चर्चा ये कि आनंदी बेन पटेल के इस्तीफ़े के बाद उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल बनाया जा सकता है.
तीसरा ये कि ऐसा कुछ नहीं होगा और वो अगले चुनाव तक मुख्यमंत्री पद पर बनी रहेंगीं. इसकी संभावना ज़्यादा जताई जा रही है. कारण ये कि नरेंद्र मोदी लोगों को चौंका देने में यकीन रखते हैं. वो ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिसकी चर्चा मीडिया में हो या फिर जिससे ये संदेश जाए कि यह कदम किसी दबाव में उठाया गया है.
बीच में ख़बर आई कि अमित शाह को गांधीनगर लाया जा सकता है.लेकिन अमित शाह के नज़दीकी सूत्र ऐसी संभावना से इनकार करते हैं. हालांकि जानकारों की मानें तो अमित शाह गुजरात आना चाहते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी अमित शाह को दिल्ली में साथ रखना चाहते हैं.
आगे क्या होगा, इस बारे में कोई भी कुछ विश्वास से नहीं कह सकता.
इसका कारण शायद ये है कि यहां गुजरात में भाजपा नेताओं को विश्वास है कि सात फ़ीसद दलित राजनीतिक तौर पर कुछ नहीं कर सकते.
जैसा कि एक नेता ने कहा, भाजपा को दलित और मुसलमान वोटों की परवाह नहीं है क्योंकि वो तो पहले से ही भाजपा को वोट नहीं देते. उन्हें ये भी भरोसा है कि पटेलों में गुस्सा है लेकिन उनका वोट घूम-फिरकर भाजपा के पास ही आएगा.
अमित शाह से जुड़े सूत्रों को भरोसा है कि वो नाराज़ पटेलों को मना लेंगे.
अस्सी के दशक में कांग्रेस ने गुजरात में राज करने के लिए खाम यानि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान गठजोड़ बनाया था. इसे टक्कर देने के लिए पटेल समुदाय ने भाजपा का हाथ थामा था.
एक भाजपा नेता ने कहा, 40 की उम्र से ज़्यादा के पटेल जिन्होंने कांग्रेस का राज देखा है, वो हमें ही वोट देंगे. युवा पटेल ज़रूर हमारे लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं. लेकिन उससे भी चिंता की बात नहीं क्योंकि ज़्यादातर पटेल हिंदुत्व की सोच रखते हैं.
आरएसएस की सोच से जुड़े राजनीतिक विश्लेषक विष्णु पांड्या भी मानते हैं कि गुजरात में दलितों पर अत्याचार कोई नई बात नहीं है. इन आंदोलनों से भाजपा को कोई नुकसान नहीं होगा क्योंकि गुजरात में तो आंदोलन होते ही रहते हैं.
वो कहते हैं, "1960 से अब तक गुजरात में हर 10-15 साल में किसी न किसी तरह का आंदोलन होता रहा है. 1956 में महागुजरात आंदोलन हुआ, 1974 में छात्रों का नवनिर्माण आंदोलन हुआ, 1975 में इमरजेंसी का हुआ, 1981 में आरक्षण के विरोध या समर्थन में हुआ, फिर 1985 में भी आरक्षण का हुआ. गुजरात में लोगों की प्रकृति है आंदोलन की. बहुत सालों तक कुछ न कुछ बहता रहा है और कुछ विस्फ़ोट होता है."
उधर, अहमदाबाद में कई उच्च जाति के लोगों के लिए दलितों पर अत्याचार एक नई ख़बर जैसी है.
एक स्थानीय व्यक्ति के मुताबिक़, "शायद ये पहली बार हो रहा है जब अहमदाबाद का संपन्न, उच्च जाति वर्ग दलितों पर अत्याचार के बारे में बात भी कर रहा है. उन्हें पता ही नहीं कि गुजरात के गांवों में आज भी छुआछूत का प्रचलन है."
गुजरात में अमित शाह और आनंदीबेन पटेल के गुटों के बीच भी तनाव को लेकर चर्चाएं फिर ज़ोरों पर हैं. जानकार बताते हैं कि अमित शाह और आनंदीबेन दोनों नेताओं के संबंधों में तनाव की शुरुआत सरखेज से हुई, जो अमित शाह का गढ़ है.
भाजपा के लिए सुरक्षित सीट होने के कारण आनंदीबेन यहां से लड़ना चाहती थीं. लेकिन अमित शाह ने ऐसा नहीं होने दिया.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजीव शाह कहते हैं, "आनंदीबेन पटेल और अमित शाह कभी संबंधों को बेहतर नहीं बना पाए. नौकरशाहों में आनंदीबेन को लेकर छवि है कि वो अहंकारी हैं. आनंदीबेन पटेल अच्छी आर्गनाइजर नहीं रहीं. वो चुनाव कभी दो तीन हज़ार वोटों से ज्यादा से नहीं जीतीं. कभी-कभी ये लगता था कि वो हार जाएंगी फिर नरेंद्र मोदी मदद करते थे और वो जीत जाती थीं. इसी कारण वो हमेशा अपनी सीट बदलती रही हैं. पाटन से वो अहमदाबाद आईं. इससे पहले वो मांडल में थीं."
अपनी वेबसाइट पर आनंदीबेन पटेल नहीं बतातीं कि वो राजनीति में कैसे आईं.लेकिन जानकार इसका श्रेय नरेंद्र मोदी को देते हैं. मेहसाणा ज़िले में पैदा हुईं आनंदीबेन शिक्षक और प्रधानाचार्य थीं. मेहनत से काम करने के लिए जानी जाती थीं. वो लंबे समय से आरएसएस से जुड़ी रही हैं.
एक भाजपा नेता ने बताया, वो शुरुआत से मेहनती थीं. उनके आगे जाने के पीछे एक और वजह उनका महिला होना बताया जाता है, क्योंकि पहले भाजपा में महिलाओं की संख्या कम थी. उनकी पहचान कट्टर मोदी समर्थक के तौर पर है.
जानने वाले बताते हैं कि 1996 से 2001 के बीच जब केशुभाई पटेल के कारण नरेंद्र मोदी को राज्य छोड़ना पड़ा था तब भी आनंदीबेन पटेल ने उनका साथ नहीं छोड़ा. मोदी के प्रतिद्वंदी केशुभाई पटेल मंत्रिमंडल में होने के बावजूद वो मोदी के साथ रहीं.
नरेंद्र मोदी के शासन के दौरान आनंदीबेन पटेल शिक्षा मंत्री और राजस्व मिनिस्टर रहीं. उन्हें नंबर टू माना जाता था.
आने वाले दिनों में आनंदीबेन के लिए क्या चुनौतियां होंगी?
विश्लेषक हेमंत शाह कहते हैं, "वो जाएंगी तभी जब नरेंद्र मोदी चाहेंगे. भाजपा में सिर्फ़ एक फ़ैक्शन है. वो है नरेंद्र मोदी फ़ैक्शन. सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है राज्य में जातियों के बीच लड़ाई न हो. सांप्रदायिक दंगे न हों. गुजरात में वैमनस्य को कैसे दूर किया जाए. विकास लोगों तक पहुंचे. लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि अगले चुनाव से पहले उन्हें न हटाया जाए."
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